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पाषाणकाल - पुरापाषाण, मध्‍यपाषाण एवं नवपाषाण काल

पुरापाषाण काल : आखेटक और खाद्य-संग्राहक

पृथ्वी लगभग 400 करोड़ वर्ष पुरानी है। इसकी परत के विकास से चार अवस्थाएँ प्रकट होती हैं। चौथी अवस्था क्वार्टर्नरी (चातुर्थिकी) कहलाती है, जिसके दो भाग हैं, प्लाइस्टोसीन (अतिनूतन) और होलोसीन (अद्यतन)। पहला दूसरे से पूर्व दस लाख और दस हजार वर्ष के बीच था और दूसरा आज से लगभग दस हजार वर्ष पहले शुरू हुआ। कहा जाता है कि मानव धरती पर प्लाइस्टोसीन के आरम्भ में पैदा हुआ। इसी समय सचमुच की गाय, सचमुच का हाथी और सचमुच का घोड़ा भी उत्पन्न हुआ था। परन्तु लगता है कि यह घटना अफ्रीका में लगभग 26 लाख वर्ष पहले हुई होगी।
   आदिम मानव के जीवाश्म (फॉसिल) भारत में नहीं मिले हैं। मानव के प्राचीनतम अस्तित्व का संकेत द्वितीय हिमावर्तन (ग्लेसिएश्न) काल के बताए जाने वाले संचयों में मिले पत्थर के औजारों से मिलता है, जिसका काल लभग 250,000 ई. पू. रखा जा सकता है। लेकिन हाल में महाराष्ट्र के बोरी नामक स्थान से जिन तथ्यों की रिपोर्ट मिली है उनके अनुसार मानव की उपस्थिति और भी पहले 14 लाख वर्ष पूर्व मानी जा सकती है। सम्प्रति प्रतीत होता है कि अफ्रीका की अपेक्षा भारत में मानव बाद में बसे, हालाँकि इस उपमहाद्वीप का पाषान-कौशल मोटे तौर पर उसी तरह विकसित हुआ है जिस तरह अफ्रीका में। भारत में आदिम मानव पत्थर के अनगढ़ और अपरिष्कृत औजारों का इस्तेमाल करता था। ऐसे औजार सिन्धु, गंगा और यमुना के कछारी मैदानां को छोड़ सारे देश में पाए गए हैं। तराशे हुए पत्थर के औजारों और फोड़ी हुई गिट्टियों से वे शिकार करते, पेड़ काटते तथा अन्य कार्य भी करते थे। इस काल में मानव अपना खाद्य कठिनाई से ही बटोर पाता और शिकार से जीता था। वह खेती करना और घर बनाना नहीं जानता था। यह अवस्था सामान्यतः 9000 ई. पू. तक बनी रही।
   पुरापाषाण काल के औजार छोटा नागपुर के पठार में मिले हैं जो 100,000 ई. पू. के हो सकते हैं। ऐसे औजार, जिनका समय 20,000 ई. पू. और 10,000 ई. पू. के बीच है, आन्ध्र-प्रदेश के कुर्नूल शहर से लगभग 55 कि.मी. की दूरी पर मिले हैं। इनके साथ हड्डी के उपकरण और पशुओं के अवशेष भी मिले हैं। उत्तर-प्रदेश के मिर्जापुर जिले की बेलन घाटी में जो पशुओं के अवशेष मिले है उनसे ज्ञात होता है कि बकरी-भेड़, गाय-भैंस आदि मवेशी पाले जाते थे। फिर भी पुरापाषाण युग की आदिम अवस्था का मानव शिकार और खाद्य-संग्रह पर जीता था। पुराणों में केवल फल और कन्द-मूल खाकर जीने वाले लोगों की चर्चा है। इस तरह के कुछ लोग तो आधुनिक काल तक पर्वतों और गुफाओं में रहते और उसी पुराने ढंग से जीते आए हैं।
   भारत की पुरापाषण युगीन सभ्यता का विकास प्लाइस्टोसीन काल या हिम-युग में हुआ। यद्यपि पत्थर के औजारों के साथ मानव अवशेष जो अफ्रीका में मिले हैं वे 26 लाख वर्ष पुराने माने जाते हैं, तथापि यदि हम भारत में मिली बोरी की सामग्री की छोड़ दें तो पत्थर के औजारों से स्पष्टतः लक्षित मानव की प्रथम उपस्थिति मध्य-प्लाइस्टोसीन से पूर्व की नहीं ठहरती है। प्लाइस्टोसीन काल में पृथ्वी की सतह का बहुत अधिक भाग, खासकर अधिक ऊँचाई पर और उसके आसपास के स्थान, बर्फ की चादरों से ढका रहता था, किन्तु पर्वतो को छोड़, उष्ण-कटिबन्धीय क्षेत्र बर्फ से मुक्त था, बल्कि वहाँ दीर्घ काल तक भारी वर्षा होती रही।

पुरापाषाण युग की अवस्थाएँ

भारतीय पुरापाषाण युग को, मानव द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले पत्थर के औजारों के स्वरूप और जलवायु में होने वाले परिवर्तन के आधार पर, तीन अवस्थाओं में बाँटा जाता है। पहली को आरम्भिक या निम्न-पुरापाषाण युग, दूसरी को मध्य-पुरापाषाण युग और तीसरी को उच्च-पुरापाषाण युग कहते हैं। जब तक बोरी के शिल्प कौशलों के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं मिल जाती, तब तक मौटे तौर पर पहली अवस्था को 2500000 ई. पू. और 100000 ई. पू. के बीच, दूसरी अवस्था को 100000 ई. पू. और 40000 ई. पू. के बीच और तीसरी को 40000 ई. पू. और 10000 ई. पू. के बीच रख सकते हैं, जैसा कि अब तक वैज्ञानिक तिथि-निर्धारण हमें ज्ञात हैं।
   अधिकांश हिमयुग आरम्भिक पुरापाषाण युग में गुजरा है। इसका लक्षण है कुल्हाड़ी या हस्त-कुठार (हैंड-एक्स), विदारणी (क्लीवर) और खंडक (गँड़ासा) का उपयोग। भारत में पाई गई कुल्हाड़ी काफी हद तक वैसी ही है जैसी पश्चिम एशिया, यूरोप और अफ्रीका में मिली हैं। पत्थर के औजार से मुख्यतः काटने, खोदने, और छीलने का काम लिया जाता था। निम्न-पुरापाषाण युग के स्थल सम्प्रति पाकिस्तान में पड़ी पंजाब की सोअन या सोहन नदी की घाटी में पाए जाते हैं। कई स्थल कश्मीर और थार मरूभूमि में मिले है। निम्न-पुरापाषाण कालीन औजार उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में बेलन घाटी में भी पाए गए हैं। जो औजार राजस्थान की मरूभूमि के दिदवाना क्षेत्र में, बेलन और नर्मदा नदी की घाटियों में तथा मध्य प्रदेश के भोपाल के पास भीमबेतका गी गुफाओं और शैलाश्रयों (चट्टानों से बने शरण-स्थलों) में मिले हैं वे मोटा-मोटी 100000 ई. पू. के हैं। शैलाश्रयों का उपयोग मानवों के स्थायी बसेरे के रूप में किया जाता होगा। हस्त-कुठार द्वितीय हिमालयीय अन्तर्हिमावर्तन (इन्टरग्लेसिएशन) के समय के जमाव में मिले हैं। इस अवधि में जलवायु में नमी कम हो गई थी।
   मध्य-पुरापाषाण युग में उद्योग मुख्यतः शल्क (फ्लेक) से बनी वस्तुओं का था। ये शल्क सारे भारत में पाए गए हैं और इनमें क्षेत्रभेद से भेद भी पाए गए हैं। मुख्य औजार हैं शल्कों के बने विविध प्रकार के फलक, वेधनी, छेदनी और खुरचनी। हमें वेधानियाँ और फलक जैसे हथियार भी भारी मात्रा में मिले हैं। मध्य-पुरापाषाण स्थलों की भौगोलिक क्षैतिज रेखा मोटे तौर पर निम्न-पुरापाषाण स्थलों की उक्त रेखा के साथ चलती है। यहाँ एक हम एक प्रकार के सरल बटिकाश्म उघोग (पत्थर के गोलों से वस्तुओं का निर्माण) देखते हैं जो तृतीय हिमालयीय हिमावर्तन के सीधे समकाल में चलता है। इस युग का शिल्प-कौशल नर्मदा नदी के किनारे-किनारे कई स्थानों पर और तुंगभद्रा नदी के दक्षिणवर्ती कई स्थानों पर भी पाया जाता है।
   उच्च-पुरापाषाणीय अवस्था में आर्द्रता कम थी। इस अवस्था का विस्तार हिम-युग की उस अंतिम अवस्था के साथ रहा जब जलवायु अपेक्षाकृत गर्म हो गई थी। विश्वव्यापी संदर्भ में इसकी दो विलक्षणताएँ हैं - नये चकमक उद्योग की स्थापना और आधुनिक प्ररूप के मानव (होमोसेपिएन्स) का उदय। भारत में फलकों और तक्षणियों (ब्लेड्स और ब्युरिन्स) का इस्तेमाल देखा जाता है, जो आन्ध्र, कर्नाटक, महाराष्ट्र, केन्द्रीय मध्य प्रदेश, दक्षिणी उत्तर प्रदेश, बिहार के पठार में और उनके इर्द-गिर्द पाए गए हैं। उच्च-पुरापाषाणीय अवस्था के मानवों के उपयोग के लायक गुफाएँ और शैलाश्रय भोपाल से दक्षिण 40 किलोमीटर दूर भीमबेतका में मिले हैं। गुजरात के टिब्बों के ऊपरी तलों पर एक उच्च-पुरापाषाणीय भंडार भी मिला है जिसकी विशेषता है शल्कों, फलकों, तक्षणियों और खुरचनियों का अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में पाया जाना।
   इस प्रकार यह लक्षित होगा कि देश के अनेकों पहाड़ी ढलानों और नदी-घाटियों में पुरापाषाणीय स्थल पाए जाते हैं। किन्तु सिन्धु और गंगा के कछारी मैदानों में इनका पता नहीं है।

मध्य पाषाण युग : आखेटक और पशुपालक

उच्च-पुरापाषाण युग का अन्त 9000 ई. पू. के आसपास हिम-युग के अन्त के साथ ही हुआ और जलवायु गर्म व शुष्क हो गई। जलवायु के परिवर्तन के साथ ही पेड़-पौधों और जीव-जन्तुओं में भी परिवर्तन हुए और मानव के लिए नए क्षेत्रों की ओर अग्रसर होना संभव हुआ। तब से जलवायु की स्थिति में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं हुआ है। प्रस्तर-युगीन संस्कृति में 9000 ई. पू. में एक मध्यवर्ती अवस्था आई जो मध्य-पाषाण युग कहलाती है। यह पुरापाषाण युग और नवपाषाण युग के बीच का संक्रमणकाल है। मध्य-पाषाण युग के लोग शिकार करके, मछली पकड़कर और खाद्य वस्तुएँ बटोर कर पेट भरते थे। आगे चलकर वे पशुपालन भी करने लगे। इनमें शुरू के तीन पेशे तो पुरा-पाषाण युग से ही चले आ रहे थे, जबकि अंतिम पेशा नव-पाषाण संस्कृति से जुड़ा है।
   मध्य-पाषाण युग के विशिष्ट औजार हैं सूक्ष्म-पाषाण (या पत्थर के परिष्कृत औजार)। मध्य-पाषाण स्थल राजस्थान, दक्षिणी उत्तर प्रदेश, केन्द्रीय और पूर्वी भारत में बहुतायत से पाए जाते हैं तथा कृष्णा नदी के दक्षिण में भी हैं। इनमें से राजस्थान में बागोर स्थल का उत्खनन भली भाँति हुआ है। यहाँ सुस्पष्ट सूक्ष्म-पाषाण उद्योग था और यहाँ के निवासियों की जीविका शिकार और पशुपालन थी। इस स्थल पर बस्ती ईसा-पूर्व पाँचवे सहस्त्रब्द के आरम्भ से 5000 वर्षो तक रही। मध्य प्रदेश में आदमगढ़ और राजस्थान में बागोर पशुपालन का प्राचीनतम साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं, जिसका समय लगभग 5000 ई. पू. हो सकता है। राजस्थान के एक अतीत नामक-झील सम्भर के जमावों के अध्ययन से प्रतीत होता है कि 7000-6000 ई. पू. के आसपास पौधे लगाए जाते थे।
   अभी तक मध्य-पाषाण युग की कुछ ही उपलब्धियों का वैज्ञानिक काल-परीक्षण हो पाया है। मध्य-पाषाण संस्कृति का महत्व मौटे तौर पर 9000 ई. पू. से 4000 ई. पू. तक बना रहा। इसमें संदेह नहीं कि इसने नव-पाषाण संस्कृति का मार्ग प्रशस्त किया।

प्रागैतिहासिक कलाकृतियाँ

पुरा-पाषाण और मध्य-पाषाण युग के लोग चित्र बनाते थे। प्रागैतिहासिक कलाकृतियाँ तो कई स्थानों में हैं, परन्तु मध्यप्रदेश का भीमबेतका स्थल अद्भुत है। यह भोपाल से 35 किलोमीटर दक्षिण-विन्ध्यपर्वत पर अवस्थित है। इसमें 10 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में बिखरे 500 से भी अधिक चित्रित शैलाश्रय हैं। इन शैलाश्रयों के चित्र पुरा-पाषाण काल से मध्य-पाषाण काल तक के बने हुए हैं और कुछ श्रंखलाओं मे तो हाल के समय तक के हैं। परन्तु इनमें अनेकों शैलाश्रय मध्य-पाषाण काल के लोगों से सम्बद्ध हैं। बहुत सारे पशु, पक्षी और मानव चित्रित हैं। स्पष्टतः इन कलाकृतियों में चित्रित अधिकांश पक्षी और पशु वे हैं जिनका शिकार जीवन-निर्वाह के लिए किया जाता था। अनाज पर जीने वाले पर्चिंग (Perching) पक्षी उन आरम्भिक चित्रों में नहीं पाए जाते हैं, क्योंकि वे चित्र अवश्य ही शिकार/खाद्यसंग्रह अर्थव्यवस्था से सम्बद्ध होंगे।
   यह बड़ी रोचक बात है कि बेलन घाटी में विन्धय पर्वत के उत्तरी पृष्ठों पर लगातार तीनों अवस्थाएँ एक के बाद एक पाई जाती हैं - पहले पुरापाषाण कालिक, तब मध्य-पाषाण कालिक और तब नव-पाषाण कालिक और यही बात नर्मदा घाटी के मध्य-भाग की है। किन्तु कई क्षेत्रों में नव-पाषाण संस्कृति मध्य-पाषाण परम्परा के बाद आती है जो ठीक लौह-युग के आरम्भ से अर्थात् 1000 ई. पू. से चलती रही।

नव पाषाण युग : खाद्य उत्पादक

विश्वस्तरीय संदर्भ में नव-पाषाण युग 9000 ई. पू. में आरम्भ होता है। भारतीय उपमहाद्वीप में नव-पाषाण युग की एक ऐसी बस्ती मिली है जिसका समय 7000 ई. पू. बताया जाता है। यह पाकिस्तान के एक प्रान्त बलूचिस्तान में अवस्थित मेहरगढ़ में है। आरम्भ में, 5000 ई. पू. से पहले, इस स्थान के लोग मृद्भांड का प्रयोग नहीं करते थे। विन्धय पर्वत के उत्तरी पृष्ठ पर पाये गए कुछ नव-पाषाण स्थलों को 5000 ई. पू. तक पुराना बताया जाता है। किन्तु सामान्यतया दक्षिण भारत में पाई गई नव-पाषाण बस्तियाँ 2500 ई. पू. से अधिक पुराना नहीं है, भारत के कुछ दक्षिणी और पूर्वी भागों में ऐसे स्थल महज 1000 ई. पू. के हैं।
   इस युग के लोग पालिशदार पत्थर के औजारों और हथियारों का प्रयोग करते थे। वे खास तौर पर पत्थर की कुल्हाड़ियों का इस्तेमाल किया करते थे। ये कुल्हाड़ियाँ देश के पहाड़ी इलाकों के अनेकों भाग में विशाल मात्रा में पाई गई हैं। काटने के इस औजार से लोग कई तरह के काम लेते थे और पौराणिक कथाओं में परशुराम तो कुल्हाड़ी से लड़ने वाले एक महान योद्धा हो गए हैं। नव-पाषाण युग के निवासियों द्वारा व्यवहृत कुल्हाड़ियों के आधार पर हम उनकी बस्तियों के तीन महत्वपूर्ण क्षेत्र देखते हैं - उत्तर-पश्चिमी, उत्तर-पूर्वी और दक्षिणी। उत्तर-पूर्वी समूह के नवपाषाण औजारों में वक्र धार की तिकोनी कुल्हाडियाँ हैं। उत्तर-पूर्वी समूह की कुल्हाड़ियाँ पालिशदार पत्थर की होती थीं जिनमें तिकोना दस्ता लगा रहता था और कभी-कभी स्कन्धीय हो (Shouldered hoe) भी लगे होते। दक्षिणी समूह की कुल्हाड़ियों की बगलें अंडाकार होतीं और हत्था नुकीला रहता है।
   उत्तर-पश्चिम में, कश्मीरी नवपाषाण संस्कृति की कई विशेषताएँ हैं जैसे गर्तावास (गड्ढा घर), मृद्भांड की विविधता, पत्थर और हड्डी के औजारों का प्रकार और सूक्ष्म पाषाण का पूरा अभाव। इसका एक महत्वपूर्ण स्थल है बुर्जाहोम, जिसका अर्थ है जन्म स्थान। यह श्रीनगर से उत्तर पश्चिम की ओर 16 कि.मी. दूर है। वहाँ नवपाषाण लोग एक झील के किनारे गर्तावासों (गड्ढों) में रहते थे और शिकार और मछली पर जीते थे। लगता है, वे खेती से परिचित थे। एक अन्य नवपाषाण स्थल है गुफकराल (कुलाल अर्थात कुम्हार की गुहा) जो श्रीनगर से 41 कि.मी. दक्षिण-पश्चिम में है। यहाँ के लोग कृषि और पशुपालन दोनों धंधे करते थे। कश्मीर में नवपाषाण युगीन लोग ने केवल पत्थर के पालिशदार औजारों का प्रयोग करते थे, अपितु इससे भी मजेदार बात है कि वे हड्डी के बहुत सारे औजारों और हथियारों का भी प्रयोग करते थे। जहाँ प्रचुर मात्रा मे हड्डी का उपकरण पाया गया हो भारत में ऐसा एक ही स्थान चिरांद है, जो गंगा के उत्तर किनारे पर पटना से 40 कि. मी. पश्चिम में है। ये उपकरण हिरण के सींगों के हैं और परवर्ती नवपाषाण परिवेश में 100 सेंटीमीटर वर्षा वाले क्षेत्र में पाए गए हैं। यहाँ बस्ती इसलिए संभव हुई कि गंगा, सोन, गंडक और घाघरा इन चार नदियों का संगमस्थल होने के कारण यहाँ खुली जमीन उपलब्ध थी। यहाँ पत्थर के औजारों की कमी ध्यान योग्य है।
   बुर्जाहोम के लोग रूखड़े धूसर मृदभांडों का प्रयोग करते थे। यह रोचक बात है कि यहाँ कब्रों में पालतू कुत्ते भी अपने मालिकों के शवों के साथ दफनाए जाते थे। गड्ढों में रहने और पालतू कुत्तों को उनके मालिकों की कब्रों में दफनाने की प्रथा भारत के अन्य किसी भी भाग में नवपाषाण युगीन लोगों में शायद नहीं थी। बुर्जाहोम के बारे में सबसे पूर्व की तिथि 2400 ई. पू. है, किन्तु चिरांद में मिली हड्डियों की तिथि 1600 ई. पू. से पहले नहीं रखी जा सकती है और सम्भवतः वे औजार पाषाण ताम्र अवस्था के हैं।
   नवपाषाण युग के लोगों का दूसरा समूह दक्षिण भारत में गोदावरी नदी के दक्षिण में रहता था। वे लोग आम तौर से नदी के किनारे ग्रेनाइट की पहाडियों के ऊपर या पठारों में बसते थे। वे पत्थर की कुल्हाड़ियों का और कई तरह के प्रस्तर-फलकों का भी प्रयोग करते थे। पकी मिट्टी की मूर्तिकाओं (फिगरिनों) से प्रकट होता है कि वे बहुत से जानवर पालते थे। उनके पास गाय-बैल, भेड और बकरी होती थी। वे सिलबट्टे का प्रयोग करते थे जिससे प्रकट होता है कि वे अनाज पैदा करना जानते थे।
   तीसरा क्षेत्र जहाँ नवपाषाण युग के औजार मिले हैं, असम की पहाडियों में पड़ता है। नवपाषाण औजार भारत की उत्तर-पूर्वी सीमा पर मेघालय की गारो पहाडियों में भी पाए गए हैं। इसके अतिरिक्त, हम विन्ध्य के उत्तरी पृष्ठों पर मिर्जापुर और इलाहाबाद जिलों में भी कई नवपाषाण स्थल पाते हैं। इलाहाबाद जिले के नवपाषाण स्थलों की विशेषता है कि यहाँ ईसा-पूर्व की छठी सहत्राब्दी में भी चावल का उत्पादन होता था।
   जिन कई नवपाषाण स्थलों का या नवपाषाण परतों वाले स्थलों का उत्खनन हुआ है उनमें प्रमुख हैं - कर्नाटक में मास्की, ब्रह्मगिरि, हल्लुर, कोडक्कल, पिक्लीहल, संगनकल्लु, टी. नरीसपुर और तैक्कलककोट तथा तमिलनाडु में पैयमपल्ली। उतनूर आन्ध्रप्रदेश का एक महत्वपूर्ण नवपाषाण स्थल है। जान पड़ता है, दक्षिण भारत में नवपाषाणावस्था 2000 ई. पू. से 1000 ई. पू. तक जारी रही।
   कर्नाटक के पिक्लीहल के नव-पाषाणयुगीन निवासी पशुपालक थे और गाय, बैल, बकरी, भेड आदि पालते थे। वे खंभे और खूंटे गाड़-गाड़कर मवेशी के बाड़े बनाते और उनके बीच में मौसमी शिविरों में रहते थे। इन बाड़ों में गोबर जमा करते। फिर उस सारे शिविर स्थल में आग लगाकर उसे साफ कर देते ताकि अगले मौसम में फिर शिविर लगाए जाएँ। पिक्लीहल में राख के ढेर और निवास स्थल दोनों मिले हैं।
   नवपाषाण युग के निवासी सबसे पुराने कृषक समुदाय थे। वे पत्थर की कुदालों (हो) और खोदने के डंडों से, जिनके एक ओर एक से आधे किलोग्राम वजन के प्रस्तर वलय लगे रहते थे, जमीन को तोड़ते थे। पत्थर के पालिशदार औजारों के अलावा वे सूक्ष्म पाषाण फलकों का भी प्रयोग करते थे। वे मिट्टी और सरकंडे के बने गोलाकार या आयताकार घरों में रहते थे। बताया जाता है कि गोलाकार घरों में रहने वालों की सम्पत्ति पर सामुदायिक प्रभुत्व होता था। जो भी हो, इतना तो निश्चित है कि नवपाषाण युगीन लोग स्थायी रूप से घर बनाकर बसने वाले हो चले थे। ये रागी और कुल्थी पैदा करते थे।
   मेहरगढ़ में बसने वाले नवपाषाण युग के लोग अधिक उन्नत थे। वे गेहूँ, जौ और रूई उपजाते थे और कच्ची ईंटों के घरों में रहते थे।
   चूँकि नवपाषाण अवस्था के कई स्थिरवासी अनाजों की खेती से परिचित हो गए थे और पालतू पशु भी रखने लगे थे, इसलिए अनाज रखने के बर्तनों की उन्हें जरूरत हुई। फिर पकाने, खाने और पीने के पात्रों की भी आवश्यकता हुई। अतः कुम्भकारी सबसे पहले इसी अवस्था में दिखाई देता है। आरम्भ में हाथ से बनाए गए मृद्भांड मिलते हैं। बाद में मिटटी के बर्तन चाक पर बनने लगे। इन बर्तनों में पालिशदार काला मृद्भांड, धूसर-मृदभांड और मन्दवर्ण मृदभांड् शामिल हैं।
   नवपाषाण युग के सेल्ट, कुल्हाडियाँ, बसूले, छेनी आदि औजार उड़ीसा और छोटा नागपरु के पहाड़ी इलाकों में भी पाए गए हैं। परन्तु मध्य प्रदेश के कुछ भागों में तथा उच्च दकन के कई प्रदेशों में नवपाषाण बस्तियों का आभास आम तौर से बहुत कम मिलता है, जिसका कारण यह है कि वहाँ उन किस्मों के पत्थर नहीं थे जिन्हें आसानी से खराद कर चिकना किया जा सके।
   9000 ई. पू. और 3000 ई. पू. के बीच की अवधि में पश्चिम एशिया में भारी तकनीकी प्रगति हुई, क्योंकि इसी अवधि में लोगों ने खेती, बुनाई, कुम्भकारी, भवन-निर्माण, पशुपालन आदि का कौशल विकसित किया। फिर भी, भारतीय उपमहाद्वीप में नवपाषाण युग ईसा-पूर्व छठे सहस्त्राब्द के आस-पास शुरू हुआ। चावल, गेहूँ, जौ आदि सहित कई महत्वपूर्ण फसलें इस उपमहाद्वीप में इसी अवधि से उपजाई जाने लगीं और संसार के इस भाग में कई गाँव बसे। लगता है, यहाँ आकर मानव ने सभ्यता के द्वार पर पाँव रखा।
   प्रस्तर युग के लोगों की एक भारी लाचारी थी। उन्हें पूर्णतः पत्थर के ही औजारों और हथियारों पर आश्रित रहना पडा, इसलिए वे पहाड़ी इलाकों से दूर जाकर बस्तियाँ नहीं बना सकते थे। वे पहाड़ियों के ढलानो पर, शैलाश्रयों में और पहाड़ियों से युक्त नदी-घाटियों में ही अपना निवास बना सके। साथ ही, वे अपने काफी प्रयास के बावजूद सिर्फ उतना ही अनाज पैदा कर सकते थे जितने से किसी तरह अपना जीवन बसर कर सकें।