| |||||||||
|
प्राचीन भारतीय इतिहास के स्त्रोत
साहित्यिक स्रोतयद्यपि प्राचीन भारत के लोगों को लिपि का ज्ञान 2500 ई. पू. में भी था, परन्तु हमारी प्राचीनतम उपलब्ध हस्तलिपियाँ ईसा की चौथी सदी के पहले की नहीं है और ये भी मध्य एशिया से प्राप्त हुई हैं। भारत में हस्तलिपियाँ, भोजपत्रों और तालपत्रों पर लिखी मिलती हैं, परन्तु मध्य एशिया में जहाँ भारत से प्राकृत भाषा फैल गई थी, ये हस्तलिपियाँ मेषचर्म तथा काष्ठफलकों पर भी लिखी गई हैं। इन्हें हम भले ही अभिलेख कह दें परन्तु हैं ये एक प्रकार की हस्तलिपियाँ हीं। उन दिनों मुद्रण कला का आविष्कार नहीं हुआ था, इसलिए ये हस्तलिपियाँ मूल्यवान समझी जाती थीं। वैसे तो समूचे भारत में संस्कृति की पुरानी हस्तलिपियाँ मिली हैं, परन्तु इनमें से अधिकतर दक्षिण भारत, कश्मीर और नेपाल से प्राप्त हुई हैं। आजकल अधिकांश अभिलेख संग्राहलयों में और हस्तलिपियाँ पुस्तकालयों में संचित सुरक्षित है।अधिकांश प्राचीन ग्रंथ धार्मिक विषयों पर हैं। हिन्दुओं के धार्मिक साहित्य में वेद, रामायण, महाभारत, पुराण आदि आते हैं। यह साहित्य प्राचीन भारत की सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्थिति पर काफी प्रकाश डालता है। किन्तु देश और काल के संदर्भ में इसका उपयोग करना बड़ा ही कठिन है। ऋग्वेद को 1500-1000 ई. पू. के लगभग का मान सकते हैं। लेकिन अथर्ववेद, यजुर्वेद, ब्राह्मणों और उपनिषदों को 1000-500 ई. पू. के लगभग का माना जाएगा। प्रायः सभी वैदिक ग्रंथों मे क्षेपक मिलता है जो सामान्यतः आदि या अन्त में रहता है। यों ग्रंथ के बीच में भी जो क्षेपक का पाया जाना कोई असाधारण बात नही हैं। ऋग्वेद में मुख्यतः देवताओं की स्तुतियाँ हैं, परन्तु बाद के वैदिक साहित्य में स्तुतियों के साथ-साथ कर्मकाण्ड, जादूटोना और पौराणिक आख्यान भी हैं। हाँ, उपनिषदों में हमें दार्शनिक चिन्तन मिलते हैं। वैदिक मूलग्रंथ का अर्थ समझ में आये इसके लिए वेदांगों अर्थात वेद के अंगभूत शास्त्रों का अध्ययन आवश्यक था। ये वेदांग हैं शिक्षा (उच्चारण विधि), कल्प (कर्मकाण्ड), व्याकरण, निरूक्त (भाषा विज्ञान), छन्द और ज्योतिष। इनमें से हरेक शास्त्र के चतुर्दिक प्रचुर साहित्य विकसित हुए हैं। ये वेदांग गद्य में सूत्र रूप में लिखे गये हैं। अतः संक्षिप्त होने के कारण ये सूत्र कहलाते हैं। सूत्रलेखन का सबसे विख्यात उदाहरण है पाणिनि का व्याकरण जो 400 ई. पू. के आस-पास लिखा गया था। व्याकरण के नियमों का उदाहरण देने के क्रम में पाणिनि ने अपने समय के समाज, अर्थव्यवस्था और संस्कृति पर अमूल्य प्रकाश डाला। महाभारत, रामायण और प्रमुख पुराणों के अन्तिम रूप से संकलन 400 ई. पू. के आसपास हुआ प्रतीत होता है। इनमें महाभारत जो व्यास की रचना माना जाता है, सम्भवतः 10 वीं सदी ई. पू. से चौथी ई. सदी तक की स्थिति का आभास देता है। पहले इसमें केवल 8800 श्लोक थे और इसका नाम जय संहिता था जिसका अर्थ है विजय सम्बन्धी संग्रह ग्रन्थ। बाद में यह बढ़कर 24000 श्लोकों का हो गया और भारत नाम से प्रसिद्ध हुआ क्योंकि इसमें प्राचीनतम वैदिकजन भरत के वंशजों की कथा है। अन्ततः इसमें एक लाख श्लोक हो गए और तदानुसार यह शतसाहस्त्री संहिता या महाभारत कहलाने लगा इसमें कथोपकथाएँ हैं, वर्णन हैं और उपदेश भी हैं। इसकी मूल कथा, जो कौरवों और पाण्डवों की युद्ध की है, उत्तर वैदिक काल की हो सकती है, वर्णनांश का उपयोग वेदोत्तर काल के संदर्भ में किया जा सकता है और उपदेशात्मक अंश का सामान्यतः मौर्योत्तर काल और गुप्तकाल के संदर्भ में। इसी प्रकार, वाल्मिकी रामायण में मूलतः 6000 श्लोक थे, जो बढ़कर 12000 श्लोक हो गए और अन्ततः 24000 श्लोक। यद्यपि यह महाकाव्य महाभारत की अपेक्षा अधिक ठोस है, तथापि इसमें भी कुछ ऐसे उपदेशात्मक भाग हैं जो बाद में जोड़ दिए गए हैं। इसकी रचना सम्भवतः ईसा पूर्व पाँचवी सदी में शुरू हुई। तब से यह पाँच अवस्थाओं से गुजर चुकी है और इसकी पाँचवी अवस्था तो ईसा की बारहवीं सदी में आई है। कुल मिलाकर इसकी रचना महाभारत के बाद हुई प्रतीत होती है। वैदिक काल के बाद कर्मकाण्ड-साहित्य की भरमार मिलती है। राजाओं के द्वारा तीन उच्च वर्णों के धनाढ्य पुरूषों द्वारा अनुष्ठेय सार्वजनीन यज्ञों के विधि विधान श्रौतसूत्रों में दिए गए हैं, और इन्हीं में राज्याभिषेक के कई आडम्बरपूर्ण अनुष्ठान भी वर्णित हैं। इसी तरह जातकर्म (जन्मानुष्ठान), नामकरण, उपनयन, विवाह, श्राद्ध आदि घरेलू या पारिवारिक अनुष्ठानों का विधि विधान गृह्यसूत्रों में पाया जाता है। श्रौतसूत्र और गृह्यसूत्र दोनों ईसा पूर्व 600-300 के आसपास के हैं। यहाँ शुल्वसूत्र भी उल्लेखनीय हैं जिनमें यज्ञवेदी के निर्माण के लिए विविध प्रकार के मापों का विधान है। ज्यामिती और गणित का अध्ययन वहीं से आरम्भ होता है। जैनों और बौद्धों के धार्मिक ग्रन्थां में ऐतिहासिक व्यक्तियों और घटनाओं का उल्लेख मिलता है। प्राचीनतम बौद्ध ग्रन्थ पालि भाषा में है। यह भाषा मगध यानी दक्षिण बिहार मे बोली जाती थी। इन ग्रंथों को अन्ततः संकलित तो किया गया श्रीलंका में, ईसा पूर्व दूसरी सदी में पर इनके विनय विषयक अंश बुद्ध के समय की स्थिति बताते हैं। इन ग्रंथों में हमें न केवल बुद्ध के जीवन के बारे में, बल्कि उनके समय के मगध, उत्तर बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई शासकों के बारे में भी जानकारी मिलती है। बौद्धों के धार्मिकेतर साहित्य में सबसे महत्वपूर्ण और रोचक हैं गौतम बुद्ध के पूर्व जन्मों की कथाएँ। ऐसा विश्वास था कि गौतम बुद्ध इस रूप में जन्म लेने से पहले बुद्ध 550 से भी अधिक पूर्व जन्मों से गुजरे थे और इनमें से कई जन्मों में उन्होंने पशु के जीवन पाये थे। पूर्व जन्मों की वे कथाएँ जातक कहलाती हैं और प्रत्येक जातक कथा एक प्रकार की लोक कथा है। ये जातक ईसा पूर्व पाँचवी सदी से दूसरी सदी तक की सामाजिक और आर्थिक स्थिति पर बहुमूल्य प्रकाश डालते हैं। प्रसंगवश ये कथाएँ बुद्धकालीन राजनीतिक घटनाओं की भी जानकारी देती हैं। जैन ग्रन्थों की रचना प्राकृत भाषा में हुई थी। ईसा की छठी सदी में गुजरात के वलभी नगर में इन्हें अन्तिम रूप से संकलित किया गया था। फिर भी इन ग्रंथों में ऐसे अनेक अंश हैं जिनके आधार पर हमें महावीर कालीन बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के राजनीतिक इतिहास के पुनर्निर्माण में सहायता मिलती है। जैन ग्रन्थों में व्यापार और व्यापारियों के उल्लेख बहुतायत में मिलते हैं। लौकिक साहित्य भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। धर्मसूत्र और स्मृतियाँ, जिन्हें सम्मिलित रूप से धर्मशास्त्र कहा जाता है, इसी कोटि की रचनाएँ हैं। धर्मसूत्रों का संकलन 500-200 ई. पू. में हुआ था। श्रौतसूत्रों और गृह्यसूत्रों के साथ ये सभी कल्पसूत्र कहलाते हैं। मुख्य स्मृतियाँ ईसा की आरम्भिक छह सदियों में संहिताबद्ध की गईं। इन में विभिन्न वर्णों, राजाओं और पदाधिकारियों के कर्तव्यों का विधान किया गया है। इनमें सम्पत्ति के अर्जन, विक्रय और उत्तराधिकार के नियम भी दिए गए हैं तथा चोरी, हमला, हत्या, व्यभिचार आदि के लिए दंड विधान किया गया है। कौटिल्य का अर्थशास्त्र एक अत्यंत महत्वपूर्ण विधिग्रन्थ है। यह पन्द्रह अधिकरणों या खंडों में विभक्त है जिनमें दूसरा और तीसरा अधिक पुराने हैं। लगता है कि इन अधिकरणों की रचना विभिन्न लेखकों ने की है। इस ग्रन्थ को वर्तमान रूप ईसवी सन् के आरम्भ में दिया गया, परन्तु इसके प्राचीनतम अंश मौर्यकालीन समाज और अर्थतन्त्र की झलक देते हैं। इसमें प्राचीन भारतीय राज्यतंत्र तथा अर्थव्यवस्था के अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण सामग्री मिलती है। हमें, भास, शूद्रक, कालिदास और बाणभट्ट की रचनाएँ भी प्राप्त हैं। इनका साहित्यिक मूल्य तो है ही, इनमें लेखकों के अपने-अपने समय की स्थितियाँ भी प्रतिबिम्बित हैं। कालिदास ने काव्य और नाटक लिखे, जिनमें सबसे प्रसिद्ध है अभिज्ञानशाकुन्तल। इन महान सर्जनात्मक कृतियों में गुप्तकालीन उत्तरी और मध्य भारत के सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन की भी झलक मिलती है। इन संस्कृत स्रोतों के अलावा, कुछ प्राचीनतम तमिल ग्रंथ भी हैं जो संगम साहित्य में संकलित हैं। राजाओं द्वारा संरक्षित विद्या केन्द्रों में समवेत हो होकर कवियों और भाटों ने तीन-चार सदियों में इस साहित्य का सृजन किया था। ऐसी साहित्यिक सभा को संगम कहते थे, इसलिए समूचा साहित्य संगम साहित्य के नाम से प्रसिद्ध हो गया। कहा जाता है कि इन कृतियों का संकलन ईसा की आरम्भिक चार सदियों में हुआ, हालाँकि इनका अंतिम संकलन छठी सदी मे हुआ जान पड़ता है। संगम साहित्य में काव्य 30,000 पंक्तियों में है, जो आठ एट्टुट्टकै अर्थात संकलनों में विभक्त है। पद्य सौ-सौ के समूहों में संगृहीत हैं, जैसे पुरपननुरू (बाहर के चार शतक) आदि। मुख्य समूह दो हैं - पटिनेडिकल कणक्कु (अठारह निम्न संग्रह) और पट्टुप्पट्टु (दस गीत)। पहला दूसरे से पुराना माना जाता है, इसलिए लौकिक इतिहास के लिए महत्वपूर्ण समझा जाता है। संगम ग्रन्थ बहुस्तरीय है, परन्तु सम्प्रति शैली और विषय-वस्तु के आधार पर उनका स्तर निर्धारण नहीं किया जा सकता है। जैसा कि आगे बताया गया है, इन के स्तरों का पता सामाजिक विकास की अवस्थाओं के आधार पर ही लगाया जा सकता है। संगम ग्रन्थ वैदिक ग्रन्थों से, खासकर ऋग्वेद से भिन्न प्रकार के हैं। ये धार्मिक ग्रंथ नही हैं। इनके मुक्तकों और प्रबन्धकाव्यों की रचना बहुत सारे कवियों ने की है, जिनमें बहुत से नायकों (वीरपुरूषों) और नायिकाओं का गुणानुवाद है। इस प्रकार ये लौकिक कोटि के हैं। ये आदिम कालीन गीत नहीं हैं, बल्कि इनमें परिष्कृत साहित्य का दर्शन होता है। अनेक काव्यों में किन्ही योद्धा, सामन्त या राजा का नामतः उल्लेख करके उनके वीरतापूर्ण कार्यों का सविस्तार वर्णन किया गया है। उसके द्वारा भाटों को दिए गए दानों की प्रशंसा की गई है। ये काव्य दरबारों में पढ़े जाते होंगे। इनकी तुलना होमर-युग के वीरगाथा काव्यों से की जा सकती है, क्योंकि इनमें भी युद्धों और योद्धाओं के एक वीर युग का चित्रण है। इन ग्रंथों का उपयोग ऐतिहासिक प्रयोजन से करना आसान नहीं है। शायद इन काव्यों में उल्लिखित व्यक्तिवाचक नाम, उपाधि, वंश, क्षेत्र, युद्ध आदि आंशिक रूप से ही यथार्थ हैं, संगम ग्रंथों में उल्लिखित चेर राजाओं के नाम दानकर्ता के रूप में ईसा पूर्व की पहली और दूसरी सदी के दानपत्रों में भी आए हैं। संगम ग्रन्थों में बहुत से नगरों का उल्लेख मिलता है। इनमें उल्लखित कावेरीपट्टनम् का समृद्धिपूर्ण अस्तित्व पुरातात्विक साक्ष्य से समर्थित हुआ है। इनमें यह भी बताया गया है कि यवन लोग अपने अपने पोतों पर आते, सोना देकर गोल मिर्च खरीदते और स्थानीय लोगों को सुरासुन्दरियाँ पहुँचाते थे। यह व्यापार हम केवल लेटिन और ग्रीक लेखों से ही नहीं, बल्कि पुरातात्विक अभिलेखों से भी जानते हैं। ईसा की आरम्भिक सदियों में प्रायद्वीपीय तमिलनाडु के लोगों के सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक जीवन के अध्ययन के लिए संगम साहित्य हमारा एकमात्र प्रमुख स्रोत है। व्यापार और वाणिज्य के बारे में इससे जो जानकारी मिलती है उसकी विदेशी विवरणों और पुरातात्विक प्रमाणों से भी पुष्टि होती है। विदेशी विवरणविदेशी विवरणों को देशी साहित्य का अनुपूरक बनाया जा सकता है। पर्यटक बनकर या भारतीय धर्म को अपना कर अनेक यूनानी, रोमन और चीनी यात्री भारत आए और अपनी आँखों देखे भारत के विवरण लिख छोड़े। ध्यान देने योग्य बात है कि भारतीय स्रोतों में सिकन्दर के हमले की कोई जानकारी नहीं मिलती, उसके भारतीय कारनामों के इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए हमें पूर्णतः यूनानी स्रोतों पर आश्रित रहना पड़ता है।यूनानी यात्रियों ने 324 ई. पू. में भारत पर हमला करने वाले सिकन्दर महान के एक समकालीन के रूप में सन्द्रोकोत्तस नामोल्लेख किया है। यह सिद्ध किया गया है कि यूनानी विवरणों का यह सन्द्रोकोत्तस और चन्द्रगुप्त मौर्य, जिनके राज्यारोपण की तिथि 322 ई. पू. निर्धारित की गई है, एक ही व्यक्ति थे। यह पहचान प्राचीन भारत के तिथिक्रम के लिए एक सुदृढ़ आधारशिला बन गई। चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में दूत बनकर आए मेगास्थनीज की इंडिका उन उद्धरणों के रूप में ही सुरक्षित है जो अनके प्रख्यात लेखकों की रचनाओं में आए हैं। इन उद्धरणों को एक साथ मिलाकर पढ़ने पर न केवल मौर्य शासन व्यवस्था के बारे में ही बल्कि मौर्यकालीन सामाजिक वर्गों और आर्थिक क्रियाकलाप के बारे में भी मूल्यवान जानकारी मिलती है। इंडिका आँखे मूँद कर मान ली गई या अतिरंजित बातों से मुक्त नहीं है, पर ऐसी बातें तो अन्यान्य प्राचीन विवरणों में भी पाई जाती हैं। ईसा की पहली और दूसरी सदियों के यूनानी और रोमन विवरणों में भारतीय बन्दरगाहों के उल्लेख मिलते हैं और भारत तथा रोमन साम्राज्य के बीच होने वाले व्यापार की वस्तुओं के बारे में भी जानकारी मिलती है। यूनानी भाषा में लिखी गई तोलेमी की ज्योग्राफी और पेरिप्लस आफ द एरिथ्रियन सी नामक पुस्तकों में भी प्राचीन भूगोल और वाणिज्य के अध्ययन के लिए प्रचुर मात्रा में महत्वपूर्ण सामग्री मिलती है। इनमें पहली पुस्तक 80 और 115 ई. के बीच किसी समय किसी अज्ञातनामा लेखक ने लिखी, जिसने लाल सागर, फारस की खाड़ी और हिन्द महासागर में होने वाले रोमन व्यापार का वृत्तान्त दिया है। दूसरी पुस्तक 150 ई. के आसपास की मानी जाती हैं। प्लिनी की नेचुरलिस हिस्टोरिका ईसा की पहली सदी की है। यह लैटिन भाषा में है और हमें भारत और इटली के बीच होने वाले व्यापार की जानकारी देती है। चीनी पर्यटकों में प्रमुख हैं फा-हियान और हुआन त्सांग। दोनों बौद्ध थे और तीर्थों का दर्शन करने तथा बौद्ध धर्म का अध्ययन करने भारत आए थे। फा-हियान ईसा की पाँचवी सदी के प्रारम्भ में आया था और हुआन त्सांग सातवीं सदी के दूसरे चरण में। फा-हियान ने गुप्तकालीन भारत की सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक स्थिति की जानकारी दी है, तो हुआन त्सांग ने इसी प्रकार की जानकारी हर्षकालीन भारत के बारे में दी है। ऐतिहासिक दृष्टिप्राचीन भारतीयों पर यह आरोप लगाया गया है कि उनमें ऐतिहासिक दृष्टि का अभाव था। यह तो स्पष्ट है कि उन्होंने वैसा इतिहास नहीं लिखा जैसा आजकल लिखा जाता है और न वैसा ही लिखा जैसा यूनानियों ने लिखा है, फिर भी, हमें पुराणों में एक प्रकार का इतिहास अवश्य मिलता है। पुराणों की संख्या अठारह है, अठारह एक पारम्परिक पद है। विषयवस्तु की दृष्टि से पुराण विश्वकोश जैसे हैं, पर इनमें गुप्त काल के आरम्भ तक का राजवंशीय इतिहास आया है। इनमें घटना के स्थलों का उल्लेख है और कभी-कभी घटना के कारणों और परिणामों का विवेचन भी किया गया है, परन्तु यथार्थ में ये घटनाएँ विवरण लिखे जाने के काफी पहले हो चुकी थीं। इन पुराणों के लेखक परिवर्तन की धारणा से अनभिज्ञ नहीं थे, जो इतिहास का सारतत्व होती हैं। पुराणों में चार युग बताए गए हैं कृत, त्रेता, द्वापर और कलि। इनमें हर युग अपने पिछले युग से अधम बताया गया है और कहा गया है कि एक युग के बाद जब दूसरा युग आरम्भ होता है तब नैतिक मूल्यों और सामाजिक मानदण्डों का अधःपतन होता है। काल जो इतिहास का मेरूदण्ड है उसका महत्व इनमें बताया गया है। कई प्रकार के संवत्, जिनके निर्देश के साथ घटनाएँ अभिलिखित होती थीं, प्राचीन भारत में ही शुरू हुए। विक्रम संवत् का आरम्भ 57 ई. पू. में हुआ, शक संवत् का 78 ई. में और गुप्त संवत् का 319 ई. में। उत्कीर्ण अभिलेखों में घटनाओं का उल्लेख काल और स्थान के संदर्भ के साथ किया गया है। तीसरी सदी ई. पू. के दौरान अशोक के शिलालेखों में काफी ऐतिहासिक दृष्टि लक्षित होती है। अशोक ने 37 वर्ष राज किया। उनके शिलालेखों में उनके राज्याभिषेक के वर्ष से आठवें और इक्कीसवें वर्ष तक की घटनाएँ वर्णित हैं। अभी तक उनके जो शिलालेख मिले हैं उनसे उनके केवल नौ अभिषेक वर्षां की घटनाओं का पता चलता है। भविष्य में और अभिलेखों के मिलने पर उनके जीवन के शेष अभिषेक वर्षां की घटनाओं का भी पता चल सकता है। इसी तरह ईसा की पहली सदी में कलिंग के खारवेल ने हाथीगुम्फा अभिलेख में अपने जीवन की बहुत सी घटनाओं का जिक्र वर्षवार किया है।भारत के लोगों ने जीवनचरितात्मक रचनाओं में ऐतिहासिक दृष्टि का अच्छा परिचय दिया है। इसका सुन्दर उदाहरण है हर्षचरित जिसकी रचना बाणभट्ट ने ईसा की सातवीं सदी में की। यह लगभग जीवनचरित के ढंग का एक गद्यकाव्य है और अलंकारों से इतना जटिल है कि परवर्ती नकलचियों के छक्के छूट गये हैं। इसमें हर्षवर्धन के आरम्भिक जीवन का वृतान्त है। अत्युक्तियों की भरमार के होते हुए भी यह हर्ष के दरबार की चहल-पहल और अपने युग के सामाजिक और धार्मिक जीवन का विलक्षण आभास देता है। बाद में कई भी ‘चरित‘ लिखे गए। सन्ध्याकर नन्दी के रामचरित (12वीं सदी) में बताया गया है कि कैवर्त्त जाति के किसानों और पाल वंश के राजा रामपाल के बीच किस तरह लड़ाई हुई और किस तरह रामपाल विजयी हुए। विल्हण के विक्रमांकदेवचरित में कल्याण के चालुक्य राजा विक्रमादित्य पंचम (1076-1127) के पराक्रमों का वृतान्त है। 12वीं - 13वीं सदी में गुजरात में तो कई सेठों के भी चरित (जीवनी) लिखे गए। इस तरह की ऐतिहासिक रचनाएँ दक्षिण भारत में भी हुई होगी, लेकिन अभी तक ऐसा एक ही वृतान्त प्रकाश में आया है। इसका नाम है मूषिकवंश, इसकी रचना अतुल ने ग्यारहवीं सदी में की। इसमें मूषिक राजवंश का वृतान्त है जिसका शासन उत्तरी केरल में था। परन्तु आरम्भिक ऐतिहासिक लेखन का सबसे अच्छा उदाहरण है राजतरंगिणी (राजाओं की धारा), जिसकी रचना कल्हण ने बारहवीं शताब्दी में की। यह कश्मीर के राजाओं के चरितों का संग्रह है। दरअसल यह पहली कृति है जिसमें आज के अर्थ में इतिहास के बहुत कुछ लक्षण विद्यमान हैं। पुरातात्विक स्त्रोतप्राचीन भारत के निवासियों ने अपने पीछे अनगिनत भौतिक अवशेष छोड़े हैं। दक्षिण भारत में पत्थर के मन्दिर और पूर्वी भारत मे ईंटों के विहार आज भी धरातल पर देखने को मिलते हैं और उस युग का स्मरण कराते हैं जब देश में भारी संख्या में भवनों का निर्माण हुआ। परन्तु इन भवनों के अधिकांश अवशेष सारे देश में बिखरे अनेकोनेक टीलों के नीचे दबे हुए हैं। टीला धरती की सतह के उस उभरे हुए भाग को कहते हैं जिसके नीचे पुरानी बस्तियों के अवशेष ढके रहते हैं। यह कई प्रकार का हो सकता है - एक संस्कृतिक, मुख्यसंस्कृतिक और बहुसंस्कृतिक। एक संस्कृतिक टीलों में सर्वत्र एक ही संस्कृति दिखाई देती है। कुछ टीले केवल चित्रित धूसर मृदभांड संस्कृति के द्योतक हैं, कुछ सातवाहन संस्कृति के और कुछ कुषाण संस्कृति के। मुख्य संस्कृति टीलों में एक संस्कृति प्रधान रहती है और अन्य संस्कृतियाँ जो पूर्व काल की भी हो सकती हैं और उत्तर काल की भी, विशेष महत्व की नहीं होतीं। बहु-संस्कृति टीलों में उत्तरोत्तर अनेक संस्कृतियाँ मिलती हैं जो कभी-कभी एक दूसरी से अंशतः संकीर्ण भी पाई जाती हैं। रामायण और महाभारत की भाँति खोदे गये टीले का उपयोग हम संस्कृति के भौतिक और अन्य पक्ष के क्रमिक स्तरों को समझने के लिए कर सकते हैं।टीले की खुदाई दो तरह से की जा सकती है - लंब रूप में या क्षैतिज रूप में। लम्बरूप उत्खनन का अर्थ है लम्बालम्बी खुदाई करना जिससे कि विभिन्न संस्कृतियों का कालक्रमिक तांता उद्घाटित हो। यह सामान्यतः स्थल के कुछ भाग में ही सीमित रहता है। क्षैतिज उत्खनन का अर्थ है कि सारे टीले की या उसके बृहत भाग की खुदाई। इस तरह की खुदाई से हम उस स्थल की काल विशेष की संस्कृति का पूर्ण आभास पा सकते हैं। अधिकांश स्थलों की खुदाई लम्ब रूप में होने के कारण उनसे हमें भौतिक संस्कृति का अच्छा खासा कालानुक्रमिक सिलसिला मिल जाता है। क्षैतिज खुदाईयाँ खर्चीली होने के कारण बहुत कम की गई हैं। फलस्वरूप उत्खननों से प्राचीन भारतीय इतिहास की अनेक अवस्थाओं के भौतिक जीवन का पूर्ण और समग्र चित्र नहीं मिल पाता। जिन टीलों का उत्खनन हुआ है उनके भी पुरावशेष विभिन्न अनुपातों में ही सुरक्षित हैं। सूखी जलवायु के कारण पश्चिमी उत्तर प्रदेश, राजस्थान और पश्चिमोत्तर भारत के पुरावशेष अधिक सुरक्षित बने रहे परन्तु मध्य गंगा घाटी और डेल्टाई क्षेत्रों में नम और आर्द्र वायु में लोहे के औजार भी संक्षारित हो जाते हैं और कच्ची मिट्टी से बने भवनों के अवशेषों का नजर आना कठिन होता है। नम और जलोढ़ क्षेत्रों में तो पक्की ईंटों और पत्थर के भवनों के काल में आकर ही हमें उत्कृष्ट और प्रचुर अवशेष मिल पाते हैं। पश्चिमोत्तर भारत में हुए उत्खननों से ऐसे नगरों का पता चलता है जिनकी स्थापना लगभग 2500 ई. पू. में हुई थी। इसी प्रकार उत्खननों से हमें गंगा की घाटी में विकसित भौतिक संस्कृति के बारे में भी जानकारी मिली है। इससे पता चलता है कि उस समय के लोग जिस प्रकार की बस्तियों में रहते थे उनका विन्यास क्या था, वे किस प्रकार के मृदभांड उपयोग में लाते थे, किस प्रकार के घरों में रहते थे, भोजन में किन अनाजों का इस्तेमाल करते थे और किस प्रकार के औजारों या हथियारों का उपयोग करते थे। दक्षिण भारत के कुछ लोग मृत व्यक्ति के शव के साथ औजार, हथियार, मिट्टी के बर्तन आदि चीजें भी कब्र में रख देते थे और इसके ऊपर एक घेरे में बड़े-बड़े पत्थर खड़े कर दिये जाते थे। ऐसे स्मारकों का महापाषाण (मेगालिथ) कहते हैं, हालाँकि सभी महापाषाण इस श्रेणी में नहीं आते। इनकी खुदाई करने से हमें जानकारी मिली है कि लौह युग की शुरूआत होने पर दक्कन के लोग किस प्रकार का जीवन व्यतीत करते थे। जिस विज्ञान के आधार पर पुराने टीलों का क्रमिक स्तरों में विधिवत् उत्खनन किया जाता है और प्राचीन काल के लोगों के भौतिक जीवन के बारे में जानकारी मिलती है उसे पुरातत्व कहते हैं। उत्खनन और गवेषणा के फलस्वरूप प्राप्त भौतिक अवशेषों का विभिन्न प्रकार से वैज्ञानिक परीक्षण किया जाता है। रेडियो कार्बन विधि से यह पता लगता है कि वे किस काल के हैं। काल निर्धारण का आधार यह सिद्धांत है कि कार्बन सभी प्राणवान् वस्तुओं में समन्वित है। जब कोई वस्तु निष्प्राण हो जाती है तब वह C14 नामक एक खास प्रकार के कार्बन की नई खुराक लेना बंद कर देती है। तब से उस समय वर्तमान C14 में एक प्रकार के क्षय की प्रक्रिया होने लगती है जिसे रेडियो एक्टिविटी कहते हैं। C14, C12 का एक रेडियो एक्टिवआइसोटोप (समस्थानिक) या घटक है और दोनों समान अनुपात में उपस्थित रहते हैं। हम क्षयशील C14 को C12 से मिलाकर मापते हैं और क्षय के आरम्भ काल में बीते वर्षों की संख्या मालूम कर लेते हैं। जिस वस्तु में C14 जितना ही कम रहता है वह उतनी ही पुरानी सिद्ध होती है और जिसमें C14 अधिक होता है वह बाद की होती है। यह मापन इस आधार पर किया जाता है कि C14 का आधा जीवन 5568 वर्षों का होता है। रेडियोएक्टिव पदार्थ का आधा जीवन उतने काल को कहते हैं जितने में उस पदार्थ की आधी मात्रा क्षीण हो जाती है। चूँकि अधिकांश कार्बनिक पदार्थ काल क्रमेण नष्ट हो जाते हैं, इसीलिए लकड़ी का कोयला ही, जिसमें कार्बन की मात्रा अत्यधिक रहती है, रेडियो कार्बन काल-निर्धारण के काम में आम तौर से लिया जाता है। पौधों के अवशेषों का परीक्षण कर विशेषतः पराग के विश्लेषण द्वारा जलवायु और वनस्पति का इतिहास जाना जाता है। इसी आधार पर यह कहा जाता है कि राजस्थान और कश्मीर में कृषि का प्रचलन लगभग 7000-6000 ई. पू. में भी था। धातु की शिल्पवस्तुओं की प्रकृति और घटकों का वैज्ञानिक विश्लेषण किया जाता है और उसके परिणाम से यह पता चलता है कि वे जगहें कहाँ हैं जहाँ से ये धातुएँ प्राप्त की गई हैं और इनसे धातु विज्ञान के विकास की अवस्थाओं का पता लगाया जाता है। पशुओं की हड्डियों का परीक्षण कर हम यह पता लगाते हैं कि क्या वे पशु पालतू थे और उनसे क्या-क्या काम लिए जाते थे। सिक्केअनेक सिक्के और अभिलेख धरातल पर भी मिले हैं, पर इनमें से अधिकांश जमीन को खोदकर निकाले गए हैं। सिक्कों के अध्ययन को मुद्राशास्त्र कहते हैं। आजकल की तरह प्राचीन भारत में कागज की मुद्रा का प्रचलन नहीं था, पर धातुधन या धातुमुद्रा (सिक्का) चलता था। पुराने सिक्के ताँबा, चाँदी, सोना और सीसा धातु के बनते थे। पकाई मिट्टी के बने सिक्कों के साँचे बड़ी संख्या में मिले हैं। इनमें से अधिकांश साँचे कुषाण काल के अर्थात ईसा की आरम्भिक तीन सदियों के हैं। गुप्तोत्तर काल में ये साँचे लगभग लुप्त हो गए।प्राचीन काल में आज जैसी बैंकिंग प्रणाली नहीं थी, इसलिए लोग अपना पैसा मिट्टी और काँसे के बर्तनों में बड़ी हिफाजत से जमा रखते थे ताकि मुसीबत के दिनों में उस बहुमूल्य निधि का उपयोग कर सकें। ऐसी अनेक निधियाँ, जिनमें न केवल भारतीय सिक्के हैं बल्कि रोमन साम्राज्य जैसी विदेशी टकसालों में ढाले गए सिक्के भी हैं, देश के अनेक भागों में मिली हैं। ये निधियाँ अधिकतर कलकत्ता, पटना, लखनऊ, दिल्ली, जयपुर, मुम्बई और मद्रास के संग्राहालयों में सुरक्षित हैं। बहुत से भारतीय सिक्के नेपाल, बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के संग्राहलयों में भी देखने को मिलते हैं। चूँकि ब्रिटेन ने भारत पर लम्बे अरसे तक शासन किया, इसलिये ब्रिटिश अधिकारियों को भी अपने निजी तथा सार्वजनिक संग्राहलयों में बहुत सारे भारतीय सिक्के स्थानान्तरित करने में सफलता मिल गई। प्रमुख राजवंशों के सिक्कों की सूचियाँ तैयार कर प्रकाशित की गई हैं। कलकत्ता के इंडियन म्यूजियम, लंदन के ब्रिटिश म्यूजियम आदि के सिक्कों की ऐसी सूचियाँ उपलब्ध हैं। परन्तु बहुत सारे सिक्कों की सूचियाँ बनाना और प्रकाशित करना अब भी बाकी ही है। हमारे आरम्भिक सिक्कों पर तो कुछेक प्रतीक मात्र बनाए मिलते हैं, पर बाद के सिक्कों पर राजाओं और देवताओं के नाम तथा तिथियाँ भी उल्लिखित मिलती हैं। इन सिक्कों के उपलब्धि स्थानों से यह ज्ञात होता है कि इलाके में इन सिक्कों का प्रचलन था। इस प्रकार प्राप्त सिक्कों के आधार पर कई राजवंशों के इतिहास का पुनर्निर्माण सम्भव हुआ है, विशेषतः उन हिन्द यवन शासकों के इतिहास का जो उत्तरी अफगानिस्तान से भारत पहुँचे थे और जिन्होंने ईसा पूर्व दूसरी और पहली सदियों में यहाँ शासन किया। चूँकि सिक्कों का काम दान-दक्षिणा, खरीद-बिक्री और वेतन-मजदूरी के भुगतान में होता था, इसलिए सिक्कों से आर्थिक इतिहास पर भी महत्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है। राजाओं से अनुमति लेकर व्यापारियों और स्वर्णकारों की श्रेणियों (व्यापारिक संघों) ने भी अपने कुछ सिक्के चलाए थे। इससे शिल्पकारी और व्यापार की उन्नतावस्था सूचित होती है। सिक्कों के सहारे बड़ी मात्रा में नकदी और जिन्सी लेन-देन संभव हुआ और व्यापार को बढ़ावा मिला। सबसे अधिक सिक्के मौर्योत्तर कालों में मिले हैं जो विशेषतः सीसे, पोटिन, ताँवे, काँसे, चाँदी और सोने के हैं। गुप्त शासकों ने सोने के सिक्के सबसे अधिक जारी किए। इन सबसे पता चलता है कि व्यापारवाणिज्य, विशेषतः मौर्योत्तर काल में और गुप्त काल के अधिक भाग में, खूब ही बढ़ा। इसके विपरीत गुप्तोत्तर काल के बहुत कम सिक्के मिले हैं, इससे यह प्रकट होता है कि उन दिनों व्यापार वाणिज्य नीचे गिरा था। सिक्कों पर राजवंशों और देवताओं के चित्र धार्मिक प्रतीक और लेख भी अंकित रहते हैं और ये सभी तत्कालीन कला और धर्म पर प्रकाश डालते हैं। अभिलेखसिक्कों से भी कहीं अधिक महत्व के हैं अभिलेख। इनके अध्ययन को पुरालेखशास्त्र कहते हैं और इनकी तथा दूसरे पुराने दस्तावेजों की प्राचीन तिथि के अध्ययन को पुरालिपिशास्त्र कहते हैं। अभिलेख मुहरों, प्रस्तरस्तम्भों, स्तूपों, चट्टानों और ताम्रपत्रों पर मिलते हैं, तथा मन्दिर की दीवारों और ईंटों या मूर्तियों पर भी।समग्र देश में आरम्भिक अभिलेख पत्थरों पर खुदे मिलते हैं। किन्तु ईसा के आरम्भिक शतकों में इस काम में ताम्रपत्रों का प्रयोग आरम्भ हुआ। तथापि पत्थर पर अभिलेख खोदने की परिपाटी दक्षिण भारत में भारी मात्रा में जारी रही। दक्षिण भारत में मन्दिर की दीवारों पर भी स्थायी स्मारकों के रूप में भारी संख्या में अभिलेख खोदे गए हैं। सिक्कों की तरह अभिलेख भी देश के विभिन्न संग्रहालयों में सुरक्षित हैं। सबसे अधिक अभिलेख मैसूर के मुख्य पुरालेखशास्त्री के कार्यालय में संगृहीत हैं। आरम्भिक अभिलेख प्राकृत भाषा में हैं और ये ई. पू. तीसरी सदी के हैं। अभिलेखों में संस्कृत भाषा ईसा की दूसरी सदी से मिलने लगती हैं और चौथी-पाँचवी सदी में इसका सर्वत्र व्यापक प्रयोग होने लगा। तब भी प्राकृत का प्रयोग समाप्त नहीं हुआ। अभिलेखों में प्रादेशिक भाषाओं का प्रयोग नौवीं-दसवीं सदी से होने लगा। मौर्य, मौर्योत्तर और गुप्त काल के अधिकांश अभिलेख कार्पस इनसक्रिप्शओनम इंडिकारम् नामक ग्रन्थ माला में संकलित करके प्रकाशित किए गए हैं। परन्तु गुप्तोत्तर काल के अभिलेख अभी तक इस प्रकार सुव्यवस्थित रूप से संकलित नहीं हुए हैं। दक्षिण भारत के अभिलेखों की स्थानक्रमिक सूचियाँ प्रकाशित हुई हैं। फिर भी 50000 से भी अधिक अभिलेख, जिन में अधिकाँश दक्षिण भारत के हैं, प्रकाशन की प्रतीक्षा कर रहे हैं। हड़प्पा संस्कृति के अभिलेख अभी तक पढ़े नहीं जा सके हैं। ये सम्भवतः ऐसी किसी भावचित्रात्मक लिपि में लिखे गए हैं जिसमें विचारों और वस्तुओं को चित्रों के रूप में व्यक्त किया जाता था। अशोक के शिलालेख ब्राह्मी लिपि में हैं। यह लिपि बायें से दायें लिखी जाती थी। उन के कुछ शिलालेख खरोष्ठी लिपि में भी हैं जो दायें से बाएँ लिखी जाती थी, लेकिन पश्चिमोत्तर भारत में भिन्न प्रदेशों में बाह्मी लिपि का ही प्रचार रहा। पाकिस्तान और अफगानिस्तान के अशोक के शिलालेखों में यूनानी और आरामाइक लिपियों का भी प्रयोग हुआ है। गुप्तकाल के अन्त तक देश की प्रमुख लिपि ब्राह्मी ही रही। यदि बाह्मी और इसकी विभिन्न शैलियों का भली-भाँति ज्ञान हो जाए तो कोई भी पुरालेखविद् ईसा की आठवीं सदी तक के अधिकाँश पुरालेखों को पढ़ सकता है। परन्तु इसके बाद इस लिपि की प्रादेशिक शैलियों में भारी अन्तर आ गया और इन्हें अलग-अलग नाम दे दिए गए। सबसे पुराने अभिलेख हड़प्पा संस्कृति की मुहरों पर मिलते हैं। ये लगभग 2500 ई. पू. के हैं। इनका पढ़ना अब तक संभव नहीं हुआ है। सबसे पुराने अभिलेख जो पढ़े जा चुके हैं वे है ई. पू. तीसरी सदी के अशोक के शिलालेख। फीरोजशाह तुगलक को अशोक के दो स्तम्भलेख मिले थे, एक मेरठ में और दूसरा हरियाणा के टोपरा नामक स्थान में। उनसे इन्हें दिल्ली मँगवाया और अपने राज्य के पंडितों से पढ़वाने का प्रयास किया पर कोई भी पंडित पढ़ नहीं पाए। अठारहवीं सदी के अन्तिम चरण में अंग्रेजों ने इन्हें पढ़ाने की कोशिश की तो उन्हें भी इसी कठिनाई का सामना करना पड़ा। इन अभिलेखों को पढ़ने में सर्वप्रथम 1837 में सफलता मिली जेम्स प्रिन्सेप को, जो उस समय बंगाल में ईस्ट इंडिया कंपनी की सेवा में ऊँचे पद पर थे। अभिलेखों के अनेक प्रकार हैं। कुछ अभिलेखों में अधिकारियों और जनता के लिए जारी किए गए सामाजिक, धार्मिक तथा प्रशासनिक राज्यादेशों और निर्णयों की सूचनाएँ रहती हैं। अशोक के शिलालेख इसी कोटि के हैं। दूसरी कोटि में वे आनुष्ठानिक अभिलेख आते हैं जिन्हें बौद्ध, जैन, वैष्णव, शैव आदि सम्प्रदायों के अनुयायियों ने भक्तिभाव से स्थापित स्तम्भों, प्रस्तरफलकों, मन्दिरों और प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण कराया है। तीसरी कोटि में वे प्रशस्तियाँ आती हैं जिनमें राजाओं और विजेताओं के गुणों और कीर्तियों का बखान तो रहता हैं, पर उनकी पराजयों और कमजोरियों का कोई जिक्र नहीं होता। समुद्रगुप्त की प्रयाग-प्रशस्ति इस कोटि का उदाहरण है। इन सबों के अलावा, बहुत सारे ऐसे दान-पत्र मिलते हैं जिनमें केवल राजाओं और राजपुत्रों द्वारा बल्कि शिल्पियों और व्यापारियों द्वारा भी मुख्यतः धर्मार्थ पैसा, मवेशी, भूमि आदि के विशिष्ट दान अभिलिखित रहते हैं। मुख्यतः राजाओं और सामन्तों द्वारा किए गए भूमिदान के अभिलेख विशेष महत्व के हैं, क्योंकि इनमें प्राचीन भारत की भूव्यवस्था और प्रशासन के बारे में उपयोगी सूचनाएँ मिलती हैं। ये अभिलेख अधिकतर ताम्रपत्रों पर उकेरे गए हैं। इनमें भिक्षुओं, ब्राह्मणों, मन्दिरों, विहारों, जागीरदारों और अधिकारियों को दिए गए गाँवों, भूमियों और राजस्व के दानों का विवरण रहता है। ये सभी भाषाओं में लिखे मिलते हैं, जैसे प्राकृत, संस्कृत, तमिल, तेलगु आदि। इतिहास का निर्माण
अब तक प्रागैतिहासिक और ऐतिहासिक दोनों तरह के बहुत सारे स्थलों की खुदाई और छानबीन की जा चुकी है, परन्तु प्राचीन भारतीय इतिहास की मुख्य धारा में उसके परिणामों को स्थान नहीं मिल पाया है। भारत में सामाजिक विकास किन-किन अवस्थाओं से गुजरा है इसका बोध तब तक नहीं हो सकता है जब तक प्रागैतिहासिक पुरातत्व के परिणामों की ओर ध्यान नहीं दिया जाएगा। इतिहासकालीन पुरातत्व भी उतने ही महत्व का है। यद्यपि प्राचीन इतिहास के काल के 150 से भी अधिक स्थलों की खुदाई हो चुकी है तथापि प्राचीन कालों की सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक प्रवृत्तियों के अध्ययन में उन खुदाइयों की प्रासंगिकता का विवेचना सर्वेक्षणात्मक पुस्तकां में नहीं किया गया है। यह काम परम आवश्यक है, प्राचीन भारत के नगरक्षेत्रीय इतिहास के संदर्भ में तो यह और भी जरूरी है। अब तक अधिकांशतः बौद्ध और कुछेक ब्राह्मणिक स्थलों के ही महत्व रेखांकित किए गए हैं, किन्तु यह आवश्यक है कि धार्मिक इतिहास का भी अन्य ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में अवलोकन किया जाए। प्राचीन इतिहास अभी तक मुख्यतः देशी या विदेशी साहित्यिक स्रोतों के आधार पर ही रचा गया है। सिक्कों और अभिलेखों की कुछ भूमिका अवश्य रही है, किन्तु अधिक महत्व ग्रन्थों को ही दिया गया है। अब नये-नये तरीकां की ओर ध्यान देना है। हमें एक और वैदिक युग और दूसरी ओर चित्रित धूसर मृदभांड आदि प्रकार के पुरातत्व के बीच पारस्परिक संबंध स्थापित करना है। इसी तरह, आरम्भिक पालि ग्रन्थों का सम्बन्ध उत्तरी काला पालिशदार मृदभांड (एन. बी. पी. डब्लयू) पुरातत्व के साथ जोड़ना होगा और संगम साहित्य से प्राप्त सूचनाओं को उन सूचनाओं के साथ मिलाना है जो प्रायद्वीपीय भारत को आरम्भिक महापाषाणीय पुरातत्व से जोड़ता है। पुराणों में दी गई लम्बी-लम्बी वंशावलियों की अपेक्षा पुरातात्विक साक्ष्य को कहीं अधिक मूल्य दिया जाना चाहिए। पौराणिक अनुश्रुति के अनुसार, अयोध्या के राम का काल 2000 ई. पू. के आसपास भले ही मान लें, पर अयोध्या में की गई खुदाई और व्यापक छानबीन से तो यही सिद्ध होता है कि उस काल के आस-पास वहाँ कोई बस्ती थी ही नहीं। इसी तरह महाभारत में कृष्ण की भूमिका भले ही महत्वपूर्ण हो, पर मथुरा में पाये गए 200 ई. पू. से 300 ई. तक के बीच के अभिलेखों और मूर्तिकला कृतियों से उनके अस्तित्व की पुष्टि नहीं होती है। इसी तरह की कठिनाइयों के कारण, महाभारत और रामायण के आधार पर कल्पित महाकाव्य-युग (एपिक एज) की धारणा त्यागनी होगी, हालाँकि अतीत में प्राचीन भारत पर लिखी गई लगभग सभी सर्वेक्षण-पुस्तकों में इसे एक अध्याय बनाया गया है। अवश्य ही रामायण और महाभारत दोनों में सामाजिक विकास के विभिन्न चरण ढूँढे जा सकते हैं। इसका कारण यह है कि ये महाकाव्य सामाजिक विकास की किसी एक अवस्था के द्योतक नहीं हैं, इनमें अनेक बार परिवर्तन हुए हैं जैसा कि इस अध्याय में पहले बताया जा चुका है। कई अभिलेखों की उपेक्षा अब तक यह कहकर की जाती रही है कि उनका ऐतिहासिक मूल्य नाममात्र है। “ऐतिहासिक मूल्य” का अर्थ मान लिया गया है ऐसी कोई जानकारी जो राजनीतिक इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए अपेक्षित हो। पौराणिक अनुश्रुतियों की अपेक्षा अभिलेख निश्चय ही अधिक निर्भर योग्य हैं। जैसे, अनुश्रुति का सहारा सातवाहनों के आरम्भ को पीछे ढकेलने में लिया जाता है, जबकि पुरालेखीय आधार पर उनका आरम्भ काल ईसा पूर्व पहली सदी है। अभिलेख में किसी राजा का शासन-काल, उसकी विजय और उसका राज्य-विस्तार ये बातें मिल सकती हैं पर साथ ही राज्यतंत्र, समाज, अर्थतंत्र और धर्म के विकास की प्रवृत्तियाँ भी तो दिखाई दे सकती हैं। इसलिए प्रस्तुत पुस्तक में अभिलेखों का सहारा केवल राजनीतिक या धार्मिक इतिहास के प्रसंग में ही नहीं लिया गया है। पुरालेखनीय दान पत्रों का महत्व केवल वंशावलियों और विजयावलियों के लिए ही नहीं है, बल्कि और भी विशेष रूप से ऐसी जानकारी के लिए है कि किन-किन नये राज्यों का उदय हुआ और कृषिभूमि की व्यवस्था में, विशेषतः गुप्तोत्तर काल में क्या-क्या परिवर्तन हुए हैं। इसी तरह सिक्कों का सहारा हिन्द-यवनों, शकों, सातवाहनों और कुषाणों के इतिहास के पुनर्निर्माण के लिये ही नहीं लेना है बल्कि व्यापार और नगर जीवन के इतिहास की झलक पाने के लिए भी लिया जा सकता है। सारांश यह है कि इतिहास के निर्माण के लिए ग्रन्थों, सिक्कों, अभिलेखों, पुरातत्व आदि से निकली सारी सामग्री का ध्यान से परितुलन किया जाना परमावश्यक है। बताया जा चुका है कि इसमें विभिन्न स्रोतों के आपेक्षिक महत्व की समस्या खड़ी होती है। जैसे सिक्के, अभिलेख और पुरातत्व उन अनुश्रुतियों से अधिक मूल्यवान हैं जो हमें रामायण, महाभारत और पुराणों में मिलती हैं। पौराणिक साहित्य प्रबल प्रथाओं की पुष्टि कर सकता है, लोकाचार को मान्य बता सकता है और जातियों या अन्य सामाजिक वर्गों में संगठित लोगों के विशेषाधिकारों और अपात्रताओं को न्यायोचित ठहरा सकता है, परन्तु उनमें वार्णित घटनाओं को यों ही सहीं नही मान लिया जा सकता है। अतीत के प्रचलनां की व्याख्या तत्काल जीवित कुछ प्राचीन प्रचलनों से, या आदिम जनों के अध्ययन से प्राप्त अन्तर्दृष्टि से भी की जा सकती है। कोई भी ठोस ऐतिहासिक पुनर्निर्माण अन्य प्राचीन समाजों में होने वाली हलचल से आँखें नहीं मूद सकता है। तुलनात्मक दृष्टि को अपनाने से प्राचीन भारत में पाई जाने वाली किसी बात को “विरल” या “अभूतपूर्व” मान लेने का दुराग्रह दूर हो सकता है और ऐसी प्रवृत्तियाँ भी दिखाई दे सकती हैं जो अन्य देशों के प्राचीन समाजों की प्रवृत्तियों से मिलती जुलती हों। | |||||||||
| |||||||||