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16 महाजनपद और मगध साम्राज्य का उत्कर्ष
ईसापूर्व छठी सदी से पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार में लोहे का व्यापक प्रयोग होने से बडे-बड़े प्रादेशिक या जनपद राज्यों के निर्माण के उपयुक्त परिस्थिति बन गई। लोहे के हथियारों के कारण योद्धा-वर्ग महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने लगे। खेती के नए औजारों और उपकरणों की मदद से किसान आवश्यकता से अधिक अनाज पैदा करने लगे। अब राजा अपने सैनिक और प्रशासनिक प्रयोजनों के लिए इस फाजिल अनाज को बटोर सकता था। यह फाजिल अनाज उन शहरों को भी मिल सकता था जो ईसापूर्व छठी सदी में उदित हुए थे। इस भौतिक लाभों के कारण किसानों का अपनी जमीन से चिपक जाना स्वाभाविक था। साथ ही वे अपने पड़ोस के क्षेत्रों में भी जमीन हड़प कर फैलने लगे। शहरों को अपने कार्यकलाप का आधार बनाकर राज्यों को खड़े होते देख लोगों में जनपद-भावना प्रबल हुई। लोगों की जो प्रबल निष्ठा अपने जन या कबीले के प्रति थी वह अब अपने जनपद या स्वसम्बद्ध भूभाग के प्रति हो गई।
महाजनपदबुद्ध के समय में हम 16 बड़े-बड़े राज्य पाते हैं, जो महाजनपद कहलाते थे। इनमें अधिकतर राज्य विंध्य के उत्तर में थे और पश्चिमोत्तर सीमाप्रान्त से बिहार तक फैले हुए थे। इनमें मगध, कोसल, वत्स और अवन्ति ये चार शायद अधिक शक्तिशाली थे। पूरब से शुरू करने पर पहले अंग जनपद था जिसमें आधुनिक मुंगेर और भागलपुर जिले पड़ते हैं। इसकी राजधानी चम्पा थी, जहाँ ईसा-पूर्व छठी सदी से आबादी होने के प्रमाण मिलते हैं। अन्ततोगत्वा इस अंग जनपद को पड़ोस के शक्तिशाली मगध राज्य ने अपने में मिला लिया।मगध में आधुनिक पटना और गया जिला तथा शाहाबाद का कुछ हिस्सा पड़ता था। यह अपने समय का सबसे प्रमुख राज्य बन गया। गंगा के उत्तर में आज के तिरहुत प्रमंडल में वज्जियों का राज्य था। यह आठ जनों का संघ था। इनमें सबसे प्रबल लिच्छवि थे। इनकी राजधानी वैशाली में थी, जिसकी पहचान आधुनिक वैशाली जिले के बसाढ़ नामक गाँव से की जाती है। पुराण वैशाली को अधिक प्राचीन नगरी बताते हैं, परन्तु पुरातत्व के अनुसार बसाढ़ की स्थापना ईसापूर्व छठी सदी से पहले नहीं हुई थी। इसके पश्चिम में काशी जनपद था, जिसकी राजधानी वाराणसी थी। राजघाट में की गई खुदाई से पता चलता है कि यह बस्ती 700 ई. पू. के आसपास आबाद होना शुरू हुई। ईसापूर्व छठी सदी में इस नगरी को मिट्टी की दीवार से घेरा गया था। जान पड़ता है कि आरम्भ में काशी सबसे शक्तिशाली राज्य था। परन्तु बाद में उसने कोसल की शक्ति के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। कोसल जनपद में पूर्वी उत्तर प्रदेश पड़ता था। इसकी राजधानी श्रावस्ती थी, जिसकी पहचान उत्तर प्रदेश के गोंडा और बहराइच जिलों की सीमापर के सहेत-महेत स्थान से की जाती है। खुदाई से जानकारी मिली है कि ईसापूर्व छठी सदी में यहाँ कोई बड़ी बस्ती नहीं थी। कोसल में एक महत्वपूर्ण नगरी अयोध्या भी थी, जिसका सम्बन्ध रामकथा से जोड़ा जाता है। परन्तु उत्खनन से पता चलता है कि ईसापूर्व छठी सदी में यहाँ कोई बस्ती नहीं थी। कोसल में शाक्यों का कपिलवस्तु गणराज्य भी शामिल था। यहीं बुद्ध का जन्म हुआ। कपिलवस्तु राजधानी की खोज बस्ती जिले के पिपरहवा स्थान पर की गई है जिसे आज कल सिद्धार्थनगर जिले के रूप में भी माना जाता है। इनकी दूसरी राजधानी पिपरहवा से 15 किलोमीटर दूर नेपाल में लुम्बिनी नामक स्थान पर थी। कोसल के पड़ोस में मल्लों का गणराज्य था। इसकी सीमा वज्जि राज्य की उत्तरी सीमा से जुड़ी थी। मल्लों की एक राजधानी कुसीनारा में थी जहाँ बुद्ध की मृत्यु हुई थी। कुसीनारा की पहचान देवरिया जिले के कसिया नाम स्थान से की गई है। पश्चिम की ओर, यमुना के तट पर वत्स जनपद था। इसकी राजधानी कौशाम्बी थी। वत्स लोग वही कुरूजन थे जो हस्तिनापुर छोड़कर प्रयाग के समीप कौशाम्बी में आकर बसे थे। उन्होंने कौशाम्बी को इसलिए पसन्द किया कि वह स्थल गंगा-यमुना के संगम के नजदीक था। जैसा कि उत्खननों से पता चला है, ईसापूर्व छठी सदी में राजधानी कौशाम्बी की मजबूत किलेबन्दी की गई थी। हमें पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्राचीन कुरू पंचाल जनपदो के अस्तित्व का भी पता है, परन्तु उत्तर वैदिक काल की तरह अब उनका राजनैतिक महत्व नहीं रह गया था। अवन्ति राज्य मध्य मालवा और मध्य प्रदेश के सीमावर्ती नगरों में फैला था। इस राज्य के दो भाग थे, उत्तर भाग की राजधानी उज्जैन थी और दक्षिण भाग की माहिष्मती। उत्खननों से पता चला है कि ये दोनों नगर ईसापूर्व छठी सदी से महत्व प्राप्त करते गए और अन्ततोगवा उज्जैन ने माहिष्मती को पछाड़ दिया। यहाँ बड़े पैमाने पर लौहकर्म का विकास हुआ और इसकी मजबूत किलेबन्दी की गई। ईसापूर्व छठी सदी के आगे के भारत का राजनैतिक इतिहास प्रभुता के लिए इन राज्यों में हुए संघर्षों का इतिहास है। अन्ततः मगध राज्य सबसे शक्तिशाली बन गया और एक साम्राज्य स्थापित करने में सफल हुआ। मगध साम्राज्य की स्थापना और विस्तारबिम्बिसार के शासन काल में मगध ने खूब उन्नति की। वह बुद्ध का समकालीन था। उसके द्वारा विजय और विस्तार की शुरूआत की गई नीति अशोक की कलिंग विजय के साथ समाप्त हुई। बिम्बिसार ने अंग देश पर अधिकार कर लिया और इसका शासन अपने पुत्र अजातशत्रु का सौंप दिया। बिम्बिसार ने वैवाहिक सम्बन्धों से भी अपनी स्थिति को मजबूत किया। उसने तीन विवाह किए। उसकी प्रथम पत्नि कोसलराज की पुत्री और प्रसेनजित् की बहन थी। कोसलदेवी के साथ दहेज में प्राप्त काशी ग्राम से उसके एक लाख की आय होती थी। इससे पता चलता है कि राजस्व सिक्कों में वसूल किया जाता था। इस विवाह से कोसल के साथ उसकी शत्रुता समाप्त हो गई और दूसरे राज्यों के साथ उलझने के लिए उसे छुट्टी मिल गई। उसकी दूसरी पत्नि वैशाली की लिच्छवि-राजकुमारी चल्हना थी और तीसरी रानी पंजाब के मद्र कुल के प्रधान की पुत्री थी। विभिन्न राजकुलों से वैवाहिक सम्बन्धों के कारण बिम्बिसार को बड़ी राजनैतिक प्रतिष्ठा मिली और इस प्रकार मगध राज्य को पश्चिम और उत्तर की ओर फैलाने का मार्ग प्रशस्त हो गया।मगध की असली शत्रुता अवन्ति से थी, जिसकी राजधानी उज्जैन में थी। इसके राजा चण्डप्रद्योत महासेन की बिम्बिसार से लड़ाई हुई थी, किन्तु दोनों ने अन्त में दोस्त बन जाना ही उपयुक्त समझा। बाद में जब प्रद्योत को पीलिया रोग हो गया तो बिम्बिसार ने अवन्तिराज के अनुरोध पर अपने राजवैद्य जीवक को उज्जैन भेजा था। गन्धार के राजा के साथ हुए युद्ध में प्रद्योत को विजय नहीं मिली थी, किन्तु गन्धार के इसी राजा ने बिम्बिसार के पास एक पत्र और दूतमंडल भेजा था। इस प्रकार, विजय और कूटनीति से बिम्बिसार ने मगध को ईसापूर्व छठी सदी में सबसे अधिक शक्तिशाली राज्य बना दिया था। बताया जाता है कि उसके राज्य में 80,000 गाँव थे पर यह एक प्रचलित कहावती संख्या है। मगध की पहली राजधानी राजगीर में थी उस समय इसे गिरिव्रज कहते थे। यह स्थल पाँच पहाड़ियों से घिरा हुआ था और उनके खुल भागों को पत्थरों की दीवारों से चारों ओर से घेर दिया गया था। इस तरह राजगीर एक अभेध्य दुर्ग हो गया था। बौद्ध ग्रन्थ के अनुसार बिम्बिसार ने लगभग 544 से 492 ई. पू. तक बावन साल शासन किया। उसके बाद उसका पुत्र अजातशत्रु (492-460 ई. पू.) सिंहासन पर बैठा। अजातशत्रु ने अपने पिता की हत्या करके सिंहासन पर कब्जा किया था। उसके शासन काल में बिम्बिसार राजकुल का वैभव अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया था। उसने दो लड़ाइयाँ लड़ी और तीसरी के लिए तैयारियाँ की थीं। अपने समूचे शासन-काल में उसने विस्तार की आक्रामक नीति से काम लिया। इस कारण काशी और कोसल ने मिलकर उसका मुकाबला किया। मगध और कोसल के बीच लम्बे समय तक संघर्ष जारी रहा। अन्त में अजातशत्रु की विजय हुई। कोसल नरेश को अजातशत्रु के साथ अपनी पुत्री की ब्याह करने और अपने जमाई को काशी सौंप कर सुलह करने के लिए विवश होना पड़ा। अजातशत्रु ने रिश्तेदारी का कोई लिहाज नहीं रखा। यद्यपि उसकी माता लिच्छवि-कुल की राजकुमारी थी, फिर भी उसने वैशाली पर हमला किया। बहाना यह ढूँढा गया कि लिच्छवि कोसल के मित्र हैं। इसने लिच्छवियों में फूट डालने के लिए षड़यन्त्र रचा और अन्त में उन पर हमला करके उन्हें हराया और उनके स्वातन्त्रय को नष्ट कर डाला। वैशाली को नष्ट करने में उसे सोलह साल का लम्बा अर्सा लगा। अन्त में उसे इसलिए सफलता मिली कि उसने पत्थर फेंकने वाले एक युद्ध-यन्त्र का इस्तेमाल किया। उसके पास एक ऐसा रथ था, जिसमें गदा जैसा हथियार जुड़ा हुआ था। इससे युद्ध में लोगों को बड़ी संख्या में मारा जा सकता था। इस प्रकार काशी और वैशाली को मिला लेने के बाद मगध के साम्राज्य का और अधिक विस्तार हुआ। परन्तु अजातशत्रु की तुलना में अवन्ति का शासक अधिक शक्तिशाली था। अवन्ति के राजाओं ने कौशाम्बी के वत्सों को हराया था और अब वे मगध पर हमला करने की धमकी दे रहे थे। इसी खतरे का सामना करने के लिए अजातशत्रु ने राजगीर की किलेबन्दी की। किलेबन्दी की दीवारों के अवशेष आज भी देखने को मिलते हैं। परन्तु अजातशत्रु के जीवनकाल में अवन्ति को मगध पर हमला करने का अवसर नहीं मिला। अजातशत्रु के बाद उदयिन् (460-444 ई. पू.) मगध की गद्दी पर बैठा। उसके शासन की महत्वपूर्ण घटना यह है कि उसने पटना में गंगा और सोन के संगम पर एक किला बनवाया। इसका कारण यह था कि पटना मगध साम्राज्य के केन्द्र भाग में पड़ता था। मगध का साम्राज्य अब उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में छोटानागपुर की पहाड़ियों तक फैला हुआ था। पटना की स्थिति, जैसा कि आगे पता चलेगा, सामरिक दृष्टि से बड़े महत्व की थी। उदयिन् के बाद शिशुनागों के वंश का शासन शुरू हुआ। वे राजधानी के कुछ समय के लिए वैशाली ले गए। अवन्ति (उज्जैन की राजधानी) की शक्ति को तोड़ देना उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि थी। इसके साथ ही अवन्ति और मगध के बीच की सौ साल पुरानी शत्रुता का अन्त हो गया। इसके बाद अवन्तिराज्य मगध साम्राज्य का हिस्सा बन गया और मौर्य साम्राज्य के अन्त तक बना रहा। शिशुनागों के बाद नन्दों का शासन शुरू हुआ। ये मगध की सबसे शक्तिशाली शासक सिद्ध हुए। इनका शासन इतना शक्तिशाली था कि सिकन्दर ने, जो उस समय पंजाब पर हमला कर चुका था, पूर्व की ओर आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं की। नन्दों ने कलिंग को जीत कर मगध की शक्ति को बढ़ाया। विजय के स्मारक के रूप में वे कलिंग से जिन की मूर्ति उठा लाए थे। ये सभी बातें महापद्म नन्द के शासनकाल में घटित हुईं। उसने अपने को एकराट कहा है। जान पड़ता है कि उसने न केवल कलिंग पर कब्जा किया, बल्कि उसके खिलाफ विद्रोह करने वाले कोसल को भी हथिया लिया। नन्द शासक परम धनी और शक्तिशाली थे। कहा जाता है कि इनकी सेना में 2,00,000 पदाति, 60,000 घुड़सवारा और 6,000 हाथी थे। इतनी विशाल सेना का रखरखाव एक अच्छी खासी प्रभावी कर संग्रह प्रणाली द्वारा ही संभव है। यही कारण है कि नन्दों पर चढ़ाई करने की सिकन्दर को हिम्मत नहीं हुई। बाद में नन्द शासक दुर्बल और अलोकप्रिय सिद्ध हुए। उनके शासन के स्थान पर मगध में मौर्य वंश का शासन स्थापित हुआ। मौर्यों के शासन काल में मगध का वैभव अपने शिखर पर पहुँच गया था। मगध की सफलता के कारणमौर्यों के उत्थान के पहले की दो सदियों में मगध के साम्राज्य के विकास का दौर समकालीन ईरानी साम्राज्य के दौर के समान रहा। इस काल में भारत में सबसे बड़े राज्य की स्थापना बिम्बिसार, अजातशत्रु और महापद्म नन्द जैसे कई साहसी और महत्वाकांक्षी शासकों के प्रयासों से हुई थी। इन्होंने सत् या असत् हर उपाय से अपने राज्यों का विस्तार किया और उन्हें मजबूत बनाया। परन्तु मगध के विस्तार का यही एक कारण नहीं था।कुछ और महत्वपूर्ण कारण भी थे। लौह युग में मगध की भौगोलिक स्थिति बड़ी उपयुक्त थी, क्योंकि लोहे के समृद्ध भंडार मगध की आरम्भिक राजधानी राजगीर से बहुत दूर नहीं थे। समृद्ध लौह खनिज के भंडार समीप ही सुविधा से उपलब्ध होने के कारण मगध के शासक अपने लिए प्रभावशाली हथियार तैयार करा सके। उनके विरोधी ऐसे हथियार आसानी से नहीं प्राप्त कर सकते थे। लोहे की खानें पूर्वी मध्य प्रदेश में भी मिलती हैं, जो उज्जैन राजधानी वाले अवन्ति राज्य से अधिक दूर नहीं थीं। 500 ई. पू. के आसपास उज्जैन में निश्चय ही लेहे को गलाने और तपाकर ढालने का भी काम होता था। वहाँ के लोहार इस्पता से सम्भवतः बहुत अच्छी किस्म के हथियार तैयार करते थे। यही कारण है कि उत्तर भारत की प्रभुता के लिए अवन्ति और मगध के बीच कड़ा संघर्ष हुआ। उज्जैन पर कब्जा करने में मगध को लगभग सौ साल का समय लगा। मगध के लिए कुछ और भी अनुकूल परिस्थितियाँ थीं। मगध की दोनों राजधानियाँ - प्रथम राजगीर और द्वितीय पाटलिपुत्र - सामरिक दृष्टि से परम महत्वपूर्ण स्थानों पर थीं। राजगीर पाँच पहाड़ियों की एक श्रंखला से घिरा था, इसलिए वह दुर्भेद्य था। तोपों का आविष्कार बहुत बाद में हुआ। उन दिनों राजगीर जैसे दुर्गों को तोड़ना आसान काम नहीं था। ईसापूर्व पाँचवीं सदी में मगध के शासक अपनी राजधानी पाटलिपुत्र ले गए। केन्द्र भाग में स्थित इस स्थल के साथ सभी दिशाओं से संचार-सम्बन्ध स्थापित किए जा सकते थे। पाटलिपुत्र गंगा, गंडक और सोन नदियों के संगम पर था, और पाटलीपुत्र से थोड़ी दूरी पर सरयू नदी भी गंगा से मिलती थी। प्राक्-औद्योगिक दिनों में जब यातायात में बड़ी कठिनाईयाँ थी, नदी-मार्गों को पकड़ करके ही सेना उत्तर, पश्चिम, दक्षिण और पूरब की ओर आगे बढ़ती थी। इसके अलावा लगभग चारों ओर से नदियों द्वारा घिरे होने के कारण पटना की स्थिति अभेद्य हो गई थी। सोन और गंगा इसे पश्चिम और उत्तर की ओर से घेरे हुए थीं, तो पुनपुन दक्षिण और पूर्व की ओर से। इस प्रकार पाटलिपुत्र सही माने में एक जलदुर्ग था। उन दिनों इस नगर पर कब्जा करना आसान काम नहीं था। मगध राज्य मध्य गंगा मैदान में पड़ता था। इस परम उर्वर प्रदेश से जंगल साफ हो चुके थे। भारी वर्षा होती थी, इसलिए सिंचाई के बिना भी इलाके को उत्पादक बनाया जा सकता था। प्राचीन बौद्ध ग्रन्थो में आया है कि इस प्रदेश में अनेक प्रकार के चावल पैदा होते थे। प्रयाग से पश्चिम के क्षेत्र की अपेक्षा यह प्रदेश कहीं अधिक उपजाऊ था। परिणामतः यहाँ के किसान काफी अनाज पैदा कर लेते थे और शासक कर के रूप में इस फाजिल उपज को एकत्र कर लेते थे। मगध के शासकों ने नगरों के उत्थान और धातु-धन (सिक्के) के प्रचलन से भी लाभ उठाया। पूर्वोत्तर भारत में व्यापार-वाणिज्य की वृद्धि के कारण शासक अब वाणिज्य वस्तुओं पर चुंगी लगा सकते थे और इस प्रकार अपनी सेना के खर्च के लिए धन एकत्र कर सकते थे। सैनिक संगठन के मामले में मगध को एक खास सुविधा प्राप्त थी। भारतीय राज्य घोड़े और रथ के उपयोग से भली भाँति परिचित थे, किन्तु मगध ही पहला राज्य था जिसने अपने पड़ोसियों के विरूद्ध हाथियों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया। देश के पूर्वांचल से मगध के शासकों के पास हाथी पहुँचते थे। यूनानी स्रोतों से ज्ञात होता है कि नन्दों की सेना में 6,000 हाथी थे। दुर्गों को भेदने में तथा सड़कों से और अन्य यातायात-सुविधाओं से रहित प्रदेशों में और कच्छ के क्षेत्रों में हाथियों का इस्तेमाल किया जा सकता था। अन्त में यह उल्लेखनीय है कि मगध का समाज रूढ़िविरोधी था। कट्टर ब्राह्मण यहाँ बसे हुए किरात और मगध लोगों को निम्न कोटि के समझते थे। परन्तु वैदिक लोगों के आगमन से यहाँ जातियों का सुखद मिश्रण हुआ। चूँकि इस प्रदेश का आर्यीकरण हाल में हुआ था, इसलिए पूर्व काल से ही वैदिक प्रभाव में आए हुए राज्यों की अपेक्षा मगध में विस्तार के लिए उत्साह अधिक था। इन्हीं सब कारणों से मगध दूसरे राज्यों को हराने में और भारत में प्रथम साम्राज्य स्थापित करने में सफल हुआ। | |||||||||
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