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जैन और बौद्ध धर्म
ईसा पूर्व छठी सदी में गंगा के मैदानों के मध्य में अनेक धार्मिक सम्प्रदायों का उदय हुआ। इस युग के करीब 62 धार्मिक सम्प्रदाय ज्ञात हैं। इनमें से कई सम्प्रदाय पूर्वोत्तर भारत में रहने वाले विभिन्न समुदायों में प्रचलित धार्मिक प्रथाओं और अनुष्ठान-विधियों पर आधारित हैं। इनमें जैन सम्प्रदाय और बौद्ध सम्प्रदाय सबसे महत्व के थे और इन दोनों का उदय धार्मिक सुधार के परम शक्तिशाली आन्दोलन के क्रम में हुआ है।
उद्भव के कारणवैदिकोत्तर काल में समाज स्पष्टतः चार वर्णों में विभाजित था - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। हर वर्ण के कर्तव्य अलग-अलग निर्धारित थे और ऊपर के दो वर्णों को कुछ विशेषाधिकार दिये गये थे, हालाँकि इस पर भी जोर दिया जाता था कि वर्ण जन्ममूलक है। ब्राम्हण जिन्हें पुरोहितों और शिक्षकों का कर्तव्य सौंपा गया था, समाज में अपना स्थान सबसे ऊँचा होने का दावा करते थे। वे कई विशेषाधिकारों के दावेदार थे, जैसे दान लेना, करों से छुटकारा, दंडों की माँफी आदि। उत्तर वैदिक ग्रंथों में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जहां ब्राम्हणों ने ऐसे अधिकारों का लाभ प्राप्त किया। वर्णक्रम में क्षत्रियों का स्थान दूसरा था। वे युद्ध करते थे, शासन करते थे और किसानों से उगाहे गए करों पर जीते थे। वैश्य खेती, पशुपालन और व्यापार करते थे। लगता है, ये ही मुख्य करदाता थे। फिर भी इन्हें दो उच्च वर्णों के साथ द्विज नामक एक समूह में स्थान मिला था। द्विज को जनेऊ पहनने का और वेद पढ़ने का अधिकार था, पर शूद्र इससे अलग रखा गया था। शूद्रों का कर्तव्य ऊपर के तीनों वर्णों की सेवा करना था और महिलाओं की भाँति उन्हें भी वेद पढ़ने के अधिकार से वंचित रखा गया था। वैदिकोत्तर काल में वे गृहदास, कृषिदास, शिल्पी और मजदूर के रूप में दिखाई देते हैं। वे स्वभावतः क्रूरकर्मा, लोभी, चोर कहे गए हैं और कुछ अस्पृश्य भी माने जाते थे। जो जितने ऊँचे वर्ण का होता था वह उतना ही सुविधाधिकारी और शुद्ध समझा जाता था। अपराधी जितने ही नीच वर्ण का होता उसके लिए सजा उतनी ही अधिक कठोर होती थी।यह स्वाभाविक ही था कि इस तरह के वर्ण-विभाजन वाले समाज में तनाव पैदा हो। वैश्यों और शूद्रों में इसकी कैसी प्रतिक्रिया थी यह जानने का कोई साधन नहीं है। परन्तु क्षत्रिय लोग, जो शासक के रूप में काम करते थे, ब्राम्हणों के धर्म विषयक प्रभुत्व पर प्रबल आपत्ति करते थे और लगता है कि उन्होंने वर्णव्यवस्था को जन्ममूलक मानने के विरूद्ध एक प्रकार का आन्दोलन छेड़ दिया था। इस प्रकार विविध विशेषाधिकारों का दावा करने वाले पुरोहितों या ब्राम्हणों की श्रेष्ठता के विरूद्ध क्षत्रियों का खड़ा होना नये धर्मों के उद्भव का अन्यतम कारण हुआ। जैन धर्म के स्थापक वर्धमान महावीर और बौद्ध धर्म के स्थापक गौतम बुद्ध दोनों क्षत्रिय वंश के थे और दोनों ने ब्राम्हणों की मान्यता को चुनौती दी। परन्तु इन धर्मों के उद्भव का यथार्थ कारण है पूर्वोत्तर भारत में एक नई कृषिमूलक अर्थव्यवस्था का उदय। पूर्वी उत्तर प्रदेश और उत्तरी एवं दक्षिणी बिहार सहित पूर्वोत्तर भारत में वर्षा की दर लगभग 100 सेंटीमीटर है। यहाँ, जब तक भारी पैमाने पर बस्ती नहीं बनी थी, घने जंगल छाये हुये थे। ऐसे घने जंगलों को साफ करना लोहे की कुल्हाड़ी के बिना आसान नहीं था। यद्यपि इस क्षेत्र में 600 ई. पू. से पहले भी कुछ लोग बसते थे, पर उनके औजार पत्थर और ताँबे के थे और वे नदी के किनारों और संगमस्थलों में कष्ट से जीवन बिताते थे, क्योंकि वहाँ बाढ़ और कटाव के फलस्वरूप बसने लायक खाली जमीन मिलती थी। 600 ई. पू. के आसपास जब इधर लोहे का इस्तेमाल होने लगा, मध्य गंगा के मैदानों में लोग भारी संख्या में बसने लगे। इस क्षेत्र की मिट्टी में नमी अधिक है, अतः पूर्व काल के लोहे के बहुत से औजार तो बच नहीं सके, फिर भी कुछेक कुल्हाड़ियाँ लगभग 600-500 ई. पू. के स्तर से निकली हैं। लोहे के औजारों का इस्तेमाल की बदौलत जंगलों की सफाई, खेती और बड़ी-बड़ी बस्तियाँ सम्भव हुईं। लोहे के फाल वाले हलों पर आधारित कृषि-मूलक अर्थव्यवस्था में बैल का इस्तेमाल जरूरी था और पशुपालन के बिना बैल आएँ कहाँ से। परन्तु इसके विपरीत वैदिक प्रथा के अनुसार यज्ञों में पशु अन्धाधुन्ध मारे जाने लगे। यह खेती की प्रगति में बाधक सिद्ध हुआ। असंख्य यज्ञों में बछडों और सांडों के लागातार मारे जाते रहने से पशुधन क्षीण होता गया। मगध के दक्षिणी और पूर्वी छोरों पर बसे कबायली लोग भी पशुओं को मार-मार के खाते गये लेकिन यदि इस नई कृषि-मूलक अर्थव्यवस्था को बचाना था तो इस पशुवध को रोकना आवश्यक ही था। इस काल में पूर्वोत्तर भारत में अनेक नगरों की स्थापना हुई, उदाहरणार्थ, कौशाम्बी (प्रयाग के समीप), कुशीनगर (जिला देवरिया, उत्तर प्रदेश), वाराणसी, वैशाली (इसी नाम का नवस्थापित जिला, उत्तर बिहार), चिराँद (सारन जिला) और राजगीर (पटना से लगभग 100 कि. मी. दक्षिण-पूर्व)। अन्यान्य नगरों के अतिरिक्त इन नगरों में बहुत से शिल्पी और व्यापारी रहते थे, जिन्होंने सर्वप्रथम सिक्के चलाए। सबसे पुराने सिक्के ईसा पूर्व पाँचवीं सदी के हैं और वे पंचमार्क्ड या आहत सिक्के कहलाते हैं। आरम्भ में उनका प्रचलन पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में हुआ। स्वभावतः सिक्कों के प्रचलन से व्यापार-वाणिज्य बढ़े और उससे वैश्यों का महत्व बढ़ा। ब्राम्हण प्रधान समाज में वैश्यों का स्थान तृतीय कोटि में था, प्रथम और द्वितीय कोटियों में क्रमशः ब्राह्मण और क्षत्रिय आते थे। स्वभावतः वे ऐसे किसी धर्म की खोज में थे जहाँ उनकी सामाजिक स्थिति सुधरे। वैश्यों ने महावीर और गौतम बुद्ध दोनों की उदारतापूर्वक सहायता की। वणिकों ने, जो सेट्ठि कहलाते थे, गौतम बुद्ध और उनके शिष्यों ने प्रचुर दान दिए। इसके कई कारण थे। पहला यह कि जैन और बौद्ध धर्म में आरम्भिक अवस्था में तत्कालीन वर्ण-व्यवस्था को कोई महत्व नहीं दिया गया। दूसरे, वे अहिंसा का उद्देश्य देते थे जिससे विभिन्न राजाओं के बीच होने वाले युद्धों का अन्त हो सकता था और उसके फलस्वरूप व्यापार-वाणिज्य में उन्नति अवश्यंभावी थी। तीसरे, ब्राम्हणों की कानून सम्बन्धी पुस्तकों में, जो धर्मसूत्र कहलाती थीं, सूद पर धन लगाने के कारोबार की निन्दा की गई है और सूद पर जीने वाले को अधम कहा गया हैं। अतः जो वैश्य व्यापार-वाणिज्य में वृद्धि होने के कारण महाजनी करते थे वे आदर नहीं पाते थे और अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए उत्सुक थे। दूसरी ओर तरह-तरह की निजी सम्पत्ति के संचय के विरूद्ध भी कड़ी प्रतिक्रिया थी। पुराने विचार के लोग सिक्कों को, जो अवश्य ही चाँदी और ताँबे के होते थे, इस्तेमाल में लाना या जमा करना पसन्द नहीं करते थे। वे लोग नए-नए ढंग के निवासों और परिधानों से, नई परिवहन प्रणालियों से परहेज करते थे, तथा युद्ध और हिंसा से घृणा करते थे। सम्पत्ति के नए-नए प्रकारों से समाज में असमानता पनपती थी और आम जनता को उससे कष्ट होता था। इसलिए सामान्य लोग कामना करते थे कि आदिम जीवन लौट आए। वे फिर उस सन्यास के आर्दश की ओर लौटना चाहते थे जिसमें सम्पत्ति के नए-नए प्रकारों और जीवन की नई पद्धति के लिए जगह नहीं थी। बौद्ध धर्म और जैन दोनों सम्प्रदाय सरल, शुद्ध और संयमित जीवन के पक्षधर थे। बौद्ध और जैन दोनों भिक्षुओं को आदेश था कि वे जीवन में उत्कृष्ट वस्तुओं का उपभोग नहीं करें। उन्हें सोना और चाँदी छूना मना था। उन्हें अपने दाताओं से उतना ही ग्रहण करना था जितने से उनकी प्राण-रक्षा हो। इसलिए उन्होंने गंगा घाटी के नए जीवन में विकसित भौतिक सुख-सुविधाओं का विरोध किया। दूसरे शब्दों में, ईसापूर्व छठी सदी में पूर्वोत्तर भारत में हम भौतिक जीवन में हुए परिवर्तनों के विरूद्ध उसी प्रकार की प्रतिक्रिया देखते हैं, जैसी प्रतिक्रिया आधुनिक काल में औधोगिक क्रांति से आए परिवर्तनों के विरूद्ध देख रहे हैं। औधोगिक क्रांति ने जिस प्रकार बहुत लोगों के मन में यन्त्र-पूर्व युग के जीवन में लौट जाने की चाह जगाई है उसी प्रकार अतीत के लोगों ने भी लौह युग के पूर्व की जिन्दगी में लौट जाना चाहा था। वर्धमान महावीर और जैन सम्प्रदायजैन धर्मवलम्बियों का विश्वास है कि उनके सबसे महान धर्मोपदेष्टा महावीर के पहले तैंतीस और आचार्य हो गए हैं जो तीर्थंकर कहलाते थे। यदि महावीर को अन्तिम या चौतीसवें तीर्थंकार मानें तो जैन धर्म का उद्भव-काल ईसा पूर्व नवीं सदी ठहरता है। परन्तु आरम्भ के अधिकतर तीर्थंकर, पंद्रहवें तक, पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में उत्पन्न बताए गए हैं, इसलिए उनकी ऐतिहासिकता नितान्त संदिग्ध है। मध्य गंगा मैदान का कोई भी भाग ईसा पूर्व छठी सदी से पहले आबाद नहीं हुआ था। स्पष्ट है कि इन तीर्थंकर की, जो अधिकतर मध्य गंगा मैदान में उत्पन्न और बिहार में निर्वाण प्राप्त हुए, मिथक-कथा जैन सम्प्रदाय की प्राचीनता सिद्ध करने के लिए गढ़ ली गई है। जैन धर्म के प्राचीनतम् सिद्धान्तों के उपदेष्टा तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ माने जाते हैं जो वाराणसी के थे। वे राज्य सुख को छोड़ संन्यायी हो गए किन्तु यथार्थ में जैन धर्म की स्थापना उनके अध्यात्मिक शिष्य वर्धमान महावीर ने की।वर्धमान महावीर का जन्म 540 ई. पू. में वैशाली के पास किसी गाँव में हुआ। वैशाली की पहचान उत्तर बिहार में इसी नाम के नवस्थापित जिले के बसाढ़ से की गई है। उनके पिता सिद्धार्थ एक क्षत्रीय कुल के प्रधान थे। उनकी माता का नाम त्रिशाला था जो बिम्बिसार के ससुर लिच्छवि-नरेश चेतक की बहन थी। इस प्रकार महावीर के परिवार का सम्बन्ध मगध के राजपरिवार से था। उच्च कुलों से सम्बन्ध रखने के कारण अपने धर्म-प्रसार के क्रम में उन्हें राजाओं और राजसचिवों के साथ सम्पर्क करना आसान हुआ। आरम्भ में महावीर गार्हस्थ्य जीवन में थे, किन्तु सत्य की खोज में वे 30 वर्ष की अवस्था में सांसरिक जीवन का त्याग करके यती (संन्यासी) हो गए। 12 वर्षो तक वे जहाँ-तहाँ भटकते रहे। वे एक गाँव में एक दिन से अधिक और एक शहर में पाँच दिन से अधिक नहीं टिकते थे। कहा जाता है कि अपनी बारह साल की लम्बी यात्रा के बीच उन्होंने एक बार भी अपने वस्त्र नहीं बदले किन्तु जब 42 वर्ष की अवस्था में उन्हें कैवल्य प्राप्त हो गया तो उन्होंने वस्त्र का एकदम त्याग ही कर दिया। कैवल्य द्वारा उन्होंने सुख-दुख पर विजय प्राप्त की। इसी विजय के कारण वे महावीर अर्थात् महान् शूर, या जिन अर्थात् विजेता कहलाए और उनके अनुयायी जैन कहलाते हैं। कोसल, मगध, मिथिला, चम्पा आदि प्रदेशों में घूम-घूम कर वे अपने धर्म का प्रचार 30 वर्षां तक करते रहे। उनका निवार्ण 468 ई. पू. में बहत्तर साल की उम्र में आज के राजगीर के समीप पावापुरी में हुआ। जैन धर्म के सिद्वान्तजैन धर्म के पाँच व्रत हैं - (1) अहिंसा या किसी की हिंसा नहीं करना, (2) अमृषा या झूठ न बोलना, (3) अचौर्य या चोरी न करना, (4) अपरिग्रह या सम्पत्ति अर्जित नहीं करना और (5) ब्रह्मचर्य या इन्द्रिय निग्रह करना। कहा जाता है कि इनमें चार व्रत पहले से चले आर रहे थे, महावीर ने केवल पाँचवाँ व्रत जोड़ा। जैन धर्म में अहिंसा या किसी प्राणी को न सताने के व्रत को सबसे अधिक महत्व दिया गया है। कभी कभी इस व्रत के विचित्र परिणाम दिखाई देते हैं, जैसे कुछ जैन धर्मावलम्बी राजा पशु की हत्या करने वालों को फाँसी चढ़ा देते थे। महावीर के पूर्व तीर्थंकर पार्श्व ने तो अपने अनुयायियों को निचले और ऊपरी अंगो को वस्त्र से ढकने की अनुमति दी थी, पर महावीर ने वस्त्र का सर्वथा त्याग करने का आदेश दे दिया। इसका आशय यह था कि वे अपने अनुयायियों के जीवन में और भी अधिक संयम लाना चाहते थे। इसके चलते, बाद में जैन धर्म दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गया - श्वेताम्बर अर्थात् सफेद वस्त्र धारण करने वाले और दिगम्बर अर्थात् नग्न रहने वाले।जैन धर्म में देवताओं का अस्तित्व स्वीकार किया गया है, पर उनका स्थान जिन से नीचे रखा गया है। बौद्ध धर्म में वर्णव्यवस्था की जो निन्दा है वह इस धर्म में नहीं है। महावीर के अनुसार, पूर्व जन्म में अर्जित पुण्य और पाप के अनुसार ही किसी का जन्म उच्च या निम्न कुल में होता है। महावीर ने चाण्डालों में भी मानवीय गुणों को होना सम्भव बताया है। उनके मत में शुद्ध और अच्छे आचरण वाले निम्न जाति के लोग भी मोक्ष पा सकते हैं। जैन धर्म में मुख्यतः सांसारिक बन्धनों से छुटकारा पाने के उपाय बताए गए हैं। ऐसा छुटकारा या मोक्ष पाने के लिए कर्म कांडीय अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं है, यह सम्यक् ज्ञान, सम्यक ध्यान और सम्यक आचरण से प्राप्त किया जा सकता है। ये तीनों जैन धर्म का त्रिरत्न अर्थात् तीन जौहर माने जाते हैं। जैन धर्म में युद्ध और कृषि दोनों वर्जित हैं, क्योंकि दोनां में जीवों की हिंसा होती है। फलतः जैन धर्मावलम्बियों ने अपना कार्यकलाप व्यापार और वाणिज्य तक ही सीमित रखा। जैन धर्म का प्रसारजैन धर्म के उपदेशों के प्रचार-प्रसार के लिए महावीर ने अपने अनुयायियों का एक संघ बनाया जिसमें स्त्री और पुरूष दोनों को स्थान मिला। महावीर के अनुयायियों की संख्या 14,000 बताई गई है, जो कोई बड़ी संख्या नहीं है । चूंकि जैन धर्म ने अपने को ब्राह्मण धर्म से स्पष्टतः पृथक नहीं किया, इसलिए वह लोगों को अधिक संख्या में आकृष्ट करने में असफल रहा। इसके बावजूद, जैन धर्म धीरे-धीरे दक्षिण और पश्चिम भारत में फैला। एक परवर्ती परम्परा के अनुसार, कर्नाटक में जैन धर्म का प्रचार सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य (322-298 ई. पू.) ने किया। उन्होंने जैन धर्म को अपना लिया, राज्य को त्याग दिया और अपने जीवन के अन्तिम वर्ष जैन साधु होकर कर्नाटक में जैन धर्म का प्रचार करते हुए बिताए। लेकिन इस परम्परा की पुष्टि अन्य किसी स्रोत से नहीं होती है। दक्षिण भारत में जैन धर्म के फैलने का दूसरा कारण यह बताया जाता है कि महावीर के निर्वाण के 200 वर्ष बाद मगध में भारी अकाल पड़ा, अकाल बारह वर्षों तक रहा, अतः बहुत से जैन बाहुभद्र के नेतृत्व में प्राण बचाने के लिए दक्षिणापथ चले गए, शेष जैन लोग स्थलबाहु के नेतृत्व में मगध में ही रह गए। प्रवासी जैनों ने दक्षिण भारत में जैन धर्म का प्रचार किया। अकाल समाप्त होने पर वे मगध लौट आए और स्थानीय जैनो से उनका मतभेद हो गया। दक्षिण से लौटे जैनों का दावा था कि अकाल की अवधि में भी उन लोगों ने अपने धार्मिक नियमों का पालन किया है, लेकिन जो मगध में रहे उन्होंने नियमों का पालन नहीं किया और शिथिल हो गए। इस मतभेद को दूर करने के लिए जैन धर्म के मुख्य उपदेशों को संकलित करने के लिए पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) में एक परिषद् का आयोजन किया गया। लेकिन दक्षिणी जैनों ने इस परिषद् का बहिष्कार किया और इसके निर्णयों को मानना अस्वीकार कर दिया। तबसे दक्षिणी जैन दिगम्बर कहलाए और मगध के जैन श्वेताम्बर। परन्तु कर्नाटक में जैन धर्म के फैलने का पुरातात्विक साक्ष्य ईसा की तीसरी सदी से पहले का नहीं मिलता है। बाद की सदियो में, विशेष कर पाँचवीं सदी में कर्नाटक में बहुत सारे जैन मठ स्थापित हुए जो बसदि कहलाते थे, और उनके भरणपोषण के लिए उन्हें राजाओं से भूमिदान मिले।कलिंग या उड़ीसा में जैन धर्म का प्रचार ईसा पूर्व चौथी सदी में हुआ और ईसा पूर्व पहली सदी में इसे आन्ध्र और मगध के राजाओं को पराजित करने वाले कलिंग-नरेश खारवेल का संरक्षण मिला। ईसा पूर्व दूसरी और पहली सदी में लगता है यह तमिलनाडु के दक्षिणी भागों में भी पहुँच गया था। बाद की सदियों में जैन धर्म मालवा, गुजरात और राजस्थान में फैला और इन क्षेत्रों में आज भी जैन धर्मावलम्बियों की संख्या अधिक है, जो मुख्यतः व्यापार और वाणिज्य में लगे हुए हैं। यद्यपि जैन धर्म को उतना राजाश्रय नहीं मिला जितना बौद्ध धर्म को और पूर्व काल में इसका प्रसार भी उतना तेज नहीं हुआ, तथापि यह जहाँ-कहीं पहुँचा अपना अस्तित्व बनाए हुए है। इसके विपरीत बौद्ध धर्म तो मानों भारतीय उपमहाद्वीप में लापता ही हो गया। जैन धर्म का योगदानजैन धर्म ने ही सबसे पहले वर्ण-व्यवस्था और वैदिक कर्मकांड की बुराईयों को रोकने के लिए गंभीर प्रयास किया। आरम्भ में जैनों ने मुख्यतः ब्राह्मणों द्वारा सम्पोषित संस्कृत भाषा का परित्याग किया और अपने धर्मोपदेश के लिए आम लोगों की बोलचाल की प्राकृत भाषा को अपनाया। उनके धार्मिक ग्रन्थ अर्धमागधी भाषा में लिखे गए और ये ग्रन्थ ईसा की छठी सदी में गुजरात में वलभी नामक स्थान में, जो एक महान् विद्या-केन्द्र था, अन्तिम रूप में संकलित किए गए। जैनों ने प्राकृत को अपनाया, इससे प्राकृत भाषा और साहित्य की अभिवृद्धि हुई। प्राकृत भाषा से कई क्षेत्रीयें भाषाएँ विकसित हुई। इनमें विशेष उल्लेखनीय हैं शौरसेनी, जिससे मराठी भाषा निकली है। जैनों ने अपभ्रंश भाषा में पहली बार कई महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे और इसका पहला व्याकरण तैयार किया। जैन साहित्य में महाकाव्य, पुराण, आख्यायिका और नाटक हैं। जैन लेखों का बहुत बड़ा भाग आज भी पांडुलिपि के रूप में पड़ा है और अप्रकाशित है। गुजरात और राजस्थान के जैन मठों में ऐसी पांडुलिपियाँ पाई जाती हैं। जैनों ने मध्य काल के आरम्भ में सस्कृत का भी खूब प्रयोग किया और इसमें बहुत से ग्रन्थ लिखे। अन्ततः पर गौणतः नहीं, जैनों ने कन्नड़ के विकास में भी योगदान दिया, इस भाषा में उन्होंने प्रचुर लेखन किया है।बौद्धों की तरह जैन लोग भी आरम्भ में मूर्तिपूजक नहीं थे। बाद में वे महावीर जी और तीर्थंकरों की भी पूजा करने लगे। इसके लिए सुन्दर और कभी-कभी विशाल प्रस्तर-प्रतिमाएँ विशेषकर कर्नाटक, गुजरात, राजस्थान और मध्यप्रदेश में निर्मित हुई। प्राचीन काल की जैन कला उतनी उत्कृष्ट नहीं है जितनी बौद्ध कला, किन्तु मध्यकाल की कला और स्थापत्य में जैनों का प्रशंसनीय योगदान है। गौतम बुद्ध और बौद्ध धर्मगौतम बुद्ध या सिद्धार्थ महावीर के समकालीन थे। उनका जन्म 563 ई. पू. में शाक्य नामक क्षत्रिय कुल में कपिलवस्तु में हुआ। यह कपिलवस्तु नेपाल की तराई में पड़ता है। प्रतीत होता है कि गौतम के पिता कपिलवस्तु के निर्वाचित राजा और गणतान्त्रिक शाक्यों के प्रधान थे। उनकी माता कोसल-राजवंश की कन्या थीं। इस प्रकार, जैसे महावीर वैसे वह भी उच्च कुल वाले थे। गणराज्य में उत्पन्न होने के कारण उनमें कुछ समतावादी भावना आई थी।बचपन से ही गौतम का ध्यान आध्यात्मिक चिन्तन की ओर था। शीघ्र ही उनका विवाह करा दिया गया, पर दाम्पत्य-जीवन में उनका मन नहीं रमा। वे लोगों के सांसारिक दुःख देखकर द्रवित हो जाते और ऐसे दुःखों के निवारण का उपाय सोचने लगते। 29 वर्ष की उम्र में महावीर की ही तरह वे घर से निकल पड़े। सात वर्षां तक भटकते रहने के बाद 35 वर्ष की उम्र में बोध गया में एक पीपल के वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ। तबसे वे बुद्ध अर्थात् प्रज्ञावान कहलाने लगे। गौतम बुद्ध ने अपने ज्ञान का प्रथम प्रवचन वाराणसी के सारनाथ नामक स्थान में किया। उन्होंने लम्बी-लम्बी यात्रा कर-कर के अपना धर्म-संदेश दूर-दूर तक पहुँचाया। वह शरीर से खूब तगड़े थे, इसलिए वे एक दिन में 20 से 30 किलोमीटर तक पैदल चल लेते थे। वे लगातार चालीस साल तक उपदेश देते, चिन्तन-मनन करते घूमते भटकते रहे, केवल बरसात में ही एक स्थान पर टिके रहते थे। इस लम्बी अवधि में उनका ब्राह्मणों सहित बहुत से प्रतिद्वन्दी कट्टरपंथियों से मुकाबला हुआ, पर वे शास्त्रार्थ में सबों को पराजित करते गए। उनके धर्मप्रचार के कार्यों में ऊँच-नीच, अमीर-गरीब और स्त्री-पुरूष के बीच कोई भेदभाव नहीं रहता था। गौतम बुद्ध 80 वर्ष की उम्र में 483 ई. पू. में कुशीनगर नामक स्थान में स्वर्गवासी हुए। इस स्थान की पहचान पूर्वी उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के कसिया नामक गाँव से की जाती है। बौद्ध धर्म के सिद्धान्तबुद्ध बड़े व्यावहारिक सुधारक थे। उन्होंने अपने समय की वास्तविकताओं को खुली आँखों से देखा। वे उन निरर्थक वादविवादों में नहीं उलझे जो उनके समय में आत्मा (जीव) और परमात्मा (ब्रह्म) के बारे में जोरों से चल रहे थे। उन्होंने अपने को सांसरिक समस्याओं में लगाया। उन्होंने कहा कि संसार दुःखमय है और लोग केवल काम (इच्छा, लालसा) के कारण दुःख पाते हैं। यदि इस काम पर विजय पाई जाए तो निर्वाण प्राप्त हो जाएगा, अर्थात् जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति मिल जाएगी।गौतम बुद्ध ने दुःख की निवृत्ति के लिए अष्टांगिक मार्ग (अष्टविध साधन) बताया। यह अष्टांगिक मार्ग ईसापूर्व तीसरी सदी के आसपास के एक ग्रन्थ में बुद्ध का बताया हुआ कहा गया है। ये आठ साधान हैं - सम्यक्दृष्टि, सम्यक्संकल्प, सम्यक्वाक्, सम्यक्कर्मान्त, सम्यक्आजीव, सम्यक्व्यायाम, सम्यक्स्मृति और सम्यक् समाधि। यदि कोई व्यक्ति इन आठ मार्गों का अनुसरण करे तो उसे पुरोहितों के फेर में नहीं पड़ना पड़ेगा और वह अपना लक्ष्य प्राप्त कर लेगा। उनकी शिक्षा है कि न अत्यधिक विलास करना चाहिए न अत्यधिक संयम ही। वे मध्यम मार्ग के प्रंशसक थे। जैन तीर्थंकरों की तरह बुद्ध ने भी अपने अनुयायियों के लिए आचार-नियम (विनय) निर्धारित किए। इस आचार-संहिता के मुख्य नियम हैं - (1) पराये धन का लोभ नहीं करना, (2) हिंसा नहीं करना, (3) नशा का सेवन न करना और (4) दुराचार से दूर रहना। सामाजिक आचरण के ये नियम सामान्य रूप से प्रायः सभी धर्मों में निर्धारित हैं। बौद्ध धर्म की विलक्षणताएँ और इसके प्रसार के कारणबौद्ध धर्म ईश्वर और आत्मा को नहीं मानता है। इस बात को हम भारत के धर्मों के इतिहास में एक क्रांति कह सकते हैं। बौद्ध धर्म शुरू में दार्शनिक वाद-विवादों के जंजाल में फँसा नहीं था, इसलिए यह सामान्य लोगों को भाया। यह विशेष रूप से निम्न वर्णों का समर्थन पा सका, क्योंकि इसमें वर्ण-व्यवस्था की निन्दा की गई है। बौद्ध संघ का दरवाजा हर किसी के लिए खुला रहता था चाहे वह किसी भी जाति का क्यों न हो। संघ में प्रवेश का अधिकार स्त्रियों को भी था और इस प्रकार उन्हें पुरूषों की बराबरी प्राप्त होती थी। ब्राह्मण धर्म की तुलना में बौद्ध धर्म अधिक उदार और अधिक जनतांत्रिक था।बौद्ध धर्म वैदिक क्षेत्र के बाहर के लोगों को अधिक भाया और वे लोग सुविधा पूर्वक इस धर्म में दीक्षित हुए। मगध के निवासी इस धर्म की ओर तुरन्त उन्मुख हुए, क्योंकि कट्टर ब्राहाण उन्हें नीच मानते थे और मगध आर्यों की पुण्य भूमि आर्यावर्त्त अर्थात आधुनित उत्तर प्रदेश की सीमा के बाहर पड़ता था। वह पुरानी परम्परा अभी भी जीवित है और उत्तर बिहार के लोगा गंगा के दक्षिण मगध में मरना पसन्द नहीं करते हैं। बुद्ध के व्यक्तित्व और धर्मोपदेश करने की उनकी प्रणाली दोनों ही बौद्ध धर्म के प्रचार में सहायक हुए। वे भलाई करके बुराई को भगाने तथा प्रेम करके घृणा को भगाने का प्रयास करते थे। निन्दा और गाली से उन्हे क्रोध नहीं होता था। कठिन स्थितियों में भी वह धीर और शान्त बने रहते थे और अपने विरोधियों का सामना चार्तुय और प्रत्युत्पन्न मति से करते थे। कहा जाता है कि एक बार एक अज्ञानी व्यक्ति ने उन्हे गालियाँ दीं। वे चुपचाप सुनते रहे। उस व्यक्ति का गाली देना बंद हुआ तो उन्होंने पूछा : “वत्स, यदि कोई दान को स्वीकार नहीं करे तो उस दान का क्या होगा ? विरोध ने उत्तर दिया : “वह देने वाले के पास ही रह जाएगा।” तब बुद्ध ने कहा : “वत्स, मैं तुम्हारी गालियाँ लेना स्वीकार नहीं करता।” आम लोगों की भाषा पालि को अपनाने से भी बौद्ध धर्म के प्रचार में बल मिला। इससे आम जनता में बौद्ध धर्म का प्रचार आसान हुआ। गौतम बुद्ध ने एक संघ की स्थापना की, जिसमें हर किसी को जाति या लिंग के भेद के बिना प्रवेश था। भिक्षुओं के लिए एक ही शर्त थी कि उन्हें संघ के नियमों का निष्ठापूर्वक पालन करना होगा। बौद्ध संघ में शामिल होन के बाद इसके सदस्यों को इन्द्रियनिग्रह, अपरिग्रह (धनहीनता) और श्रद्धा का संकल्प लेना पड़ता था। इस प्रकार बौद्ध धर्म के तीन प्रमुख अंग थे : बुद्ध, संघ और धम्म। संघ के तत्वावधान में सुगठित प्रचार की व्यवस्था होने से बुद्ध के जीवनकाल में ही बौद्ध धर्म ने तजी से उन्नति की। मगध, कोसल और कौशाम्बी के राजाओं ने, अनेक गणराज्यों ने और उनकी जनता ने बौद्ध धर्म को अपना लिया। बुद्ध के निर्वाण के दो सौ साल बाद प्रसिद्ध मौर्य सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म ग्रहण किया। यह एक युग-प्रवर्तक घटना सिद्ध हुई। अशोक ने अपने धर्मदूतों के द्वारा इस धर्म को मध्य एशिया, पश्चिमी एशिया और श्रीलंका में फैलाया और इसे एक विश्व धर्म बना दिया। आज भी श्रीलंका, बर्मा और तिब्बत में तथा चीन और जापान के कुछ भागों में बौद्ध धर्म प्रचलित हैं। अपनी जन्मभूमि से तो यह धर्म लुप्त हो गया, परन्तु दक्षिण एशिया, दक्षिण पूर्व-एशिया और पूर्वी एशिया के देशों में जीता-जागता है। बौद्ध धर्म के हृास के कारणईसा की बारहवीं सदी आते-आते बौद्ध धर्म भारत से लुप्त-सा हो गया। कुछ परिवर्तित रूप में यह बंगाल और बिहार में ग्यारहवीं सदी तक रहा, किन्तु उसके बाद यह धर्म सारे देश से पूर्णतः चला गया। ऐसा क्यों हुआ ? हम देखते हैं कि आरम्भ में हर धर्म सुधार की भावना से उत्साहित रहता है, परन्तु कालक्रमेण वह उन्ही कर्मकांडों और अनुष्ठानों के जाल में फँस जाता है जिनकी वह आरम्भ में निन्दा करता था। बौद्ध धर्म में भी स्वरूप-परिवर्तन का ऐसा ही चक्र चला। इसमें भी ब्राहाण-धर्म की वे बुराइयाँ घुस गई जिनके विरूद्ध इसने आरम्भ में लड़ाई छेड़ी थी। बौद्ध धर्म की चुनौती का मुकाबला करने के लिए ब्राहाण ने अपने धर्म को सुधारा। उन्होंने गौधन की रक्षा पर बल दिया तथा स्त्रियों और शूद्रों के लिए भी धर्म का मार्ग प्रशस्त किया। दूसरी ओर बौद्ध धर्म में विकृतियाँ आतीं गई। धीरे-धीरे बौद्ध भिक्षु जनजीवन की मुख्य धारा से कटते गए। उन्होंने जनसामान्य की भाषा पालि को छोड़ दिया और संस्कृत को ग्रहण कर लिया जो केवल विद्वानों की भाषा थी। ईसा की पहली सदी से वे बड़ी मात्रा में प्रतिमा-पूजन करने लगे और उपासकों से खूब चढ़ावा लेने लगे। इस चढ़ावे के अतिरिक्त बौद्ध विहारों को राजाओं से भी भारी-भारी सम्पत्ति के दान मिलने लगे। इस सबों से बौद्ध भिक्षुओं का जीवन सुख का जीवन हो गया। नालन्दा आदि कुछ बौद्ध विहार तो दो-दो सौ गाँवों से कर तहसीलते थे। सातवीं सदी के आते-आते बौद्ध विहार विलासी लोगों के प्रभुत्व में आ गए और उन कुकर्मों के केन्द्र बन गए जिनका गौतम बुद्ध ने कड़ाई के साथ निषेध किया था। बौद्ध धर्म का यह नया रूप वज्रयान नाम से प्रसिद्ध हुआ। विहारों में अपार सम्पत्ति और महिलाओं का प्रवेश होने से उनकी स्थिति और भी बिगड़ी। बौद्ध भिक्षु नारी को भोग की वस्तु समझने लगे। कहा गया है कि एक समय बुद्ध ने अपने प्रिय शिष्य आनन्द से कहा था - यदि विहारों में स्त्रियों का प्रवेश न हुआ होता तो यह धर्म हजार वर्ष टिकता, लेकिन जब स्त्रियों को प्रवेशाधिकार दे दिया गया, तो अब यह धर्म केवल पाँच सौ वर्ष टिकेगा।कहा जाता है कि ब्राह्मण शासक पुष्यमित्र शुंग ने बौद्धों को सताया। सताए जाने के कई उदाहरण ईसा की छठी-सातवीं सदियों में मिलते हैं। शैव सम्प्रदाय के हूण राजा मिहिरकुल ने सैकड़ों बौद्धों को मौत के घाट उतारा। गौड़ देश के शिवभक्त शंशाक ने बौद्ध गया में उस बोधिवृक्ष को काट डाला जिसके नीचे बुद्ध को ज्ञान मिला था। हुआन त्साँग ने लिखा है कि 1600 स्तूप और विहार तोड़ डाले गए और हजारो भिक्षुओं और उपासकों को मार डाला गया। इसमें कुछ-न-कुछ सच्चाई अवश्य होगी। इस पर बौद्धों की प्रतिक्रिया कई देवायतनों में देखी जा सकती है। जहाँ बोधिसत्वों को हिन्दू देवताओं के ऊपर खड़ा दिखाया गया है। मध्य काल के आरम्भ में दक्षिण भारत में शैव और वैष्णव दोनों सम्प्रदायों के लोगों ने जैनों और बौद्धों का कड़ा विरोध किया। ऐसे संघर्षों से बौद्ध धर्म अवश्य कमजोर हुआ होगा। विहारों में अपार संपत्ति को देखकर तुर्की हमलावरों की ललचाई नजर उन पर पड़ी। ये विहार उन लोभी हमलावरों के विशेष लक्ष्य हो गए। तुर्कों ने नालन्दा में असंख्य बौद्ध भिक्षुओं का संहार किया और कुछ भिक्षु जान बचाकर नेपाल और तिब्बत भाग गए। मोटे तौर पर, बारहवीं सदी तक बौद्ध धर्म अपनी जन्मभूमि से करीब-करीब गायब हो चुका था। बौद्ध धर्म की उपादेयता और प्रभावइस प्रकार यह संघबद्ध बौद्ध धर्म अन्ततः लुप्त हो जाने पर भी भारत के इतिहास में अपनी अमिट छाप छोड़ गया। ईसा-पूर्व छठी सदी में पूर्वोत्तर भारत की जनता के सामने जो समस्याएँ खड़ी थीं उनकी ओर बौद्धों ने प्रबल जागरूकता दिखाई। लोहे के फाल वाले हल से चली खेती, व्यापार और सिक्कों के प्रचलन से व्यापारियों और अमीरों को धन संचित करने का मौका मिला, अस्सी कोटि धन वाले व्यक्ति की भी चर्चा मिलती है। इन सबों से स्वभावतः सामाजिक और आर्थिक असमानता भारी मात्रा में उत्पन्न हुई। इसलिए बौद्ध धर्म ने घोषणा कि की धन-संचय नहीं करना चाहिए। इस धर्म के अनुसार दरिद्रता ही घृणा, क्रूरता और हिंसा की जननी है। इन बुराइयों को दूर करने के लिए बुद्ध ने उपदेश दिया कि किसानों को बीज और अन्य सुविधाएँ मिलनी चाहिए, व्यापारियों को धन मिलना चाहिए और श्रमिकों को मजदूरी मिलनी चाहिए। इन उपायों की अनुशंसा सांसरिक दरिद्रता को दूर करने के लिए की गई। बौद्ध धर्म यह भी उपदेश देता है कि जो दरिद्र व्यक्ति भिक्षुओं को भीख देगा वह अगले जन्म में धनवान होगा।भिक्षुओं के आचरण के लिए जो नियम संहिता बनाई गई वह ईसा पूर्व छठी और पाँचवीं सदी की पूर्वोत्तर भारत की भौतिक स्थिति के प्रति हो रही प्रतिक्रिया की झलक देती है। इसमे भिक्षुओं के भोजन, परिधान और यौन सम्बन्ध पर अंकुश लगाए गए हैं। भिक्षु सोना और चाँदी ग्रहण नहीं कर सकते थे, खरीद-बिक्री नहीं कर सकते थे। ये नियम तो बुद्ध की मृत्यु के बाद शिथिल कर दिए गए, परन्तु आरम्भिक नियम एक प्रकार के आदिम साम्यवाद की ओर लौटने का एक संकेत देते हैं, जो साम्यवाद हमें व्यापार और उन्नत खेती न करने वाले कबायली समाज में लक्षित होता है। भिक्षुओं के लिए बनाए गए ये आचार-नियम पूर्वोत्तर भारत में ईसा-पूर्व छठी सदी में विकसित मुद्रा के प्रचलन, निजी सम्पत्ति और विलासपूर्ण जीवन के विरूद्ध आंशिक विद्रोह की झलक देते हैं। उन दिनों मुद्रा और सम्पत्ति विलास की वस्तुएँ मानी जाती थीं। बौद्ध धर्म में ईसापूर्व छठी सदी के भौतिक जीवन में उत्पन्न बुराइयों को दूर करने का प्रयत्न किया गया और साथ ही लोगों के सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में हुए सत्परिवर्तनों को स्थायी रखने की ओर भी कदम उठाया गया। संघ में कर्जदारों का प्रवेश वर्जित कर दिया गया। इससे स्पष्टतः महाजनों और धनवानों को लाभ हुआ, क्योंकि कर्जदार अब संघ में शामिल होकर उनके शिकंजे से मुक्त नहीं हो सकते थे। इसी प्रकार संघ ने दासों के प्रवेश-निषेध का नियम दासों के स्वामियों के लिए लाभकर हुआ। इस प्रकार गौतम बुद्ध के उपदेशों और नियमों में भौतिक जीवन में आए परिवर्तनों को पूरी तरह ध्यान में रखा गया और सैद्धान्तिक रूप से उसे दृढ़ बनाया गया। यों तो बौद्ध भिक्षु संसार से विरक्त रहते और बार-बार लोभी ब्राह्मणों की निन्दा करते थे, फिर भी कई मामलों में ब्राह्मणों से उनका साम्य था। दोनों उत्पादन-कार्य में प्रत्यक्ष रूप से भाग नहीं लेते थे और समाज से मिली भीख या दान पर जीते थे। दोनों ही बताते थे कि परिवार का पालन करना, निजी सम्पत्ति की रक्षा करना और राजा का आदर करना अच्छा है। दोनों वर्गमूलक समाज व्यवस्था के समर्थक थे। भेद इतना ही था कि भिक्षु वर्ण को गुण और कर्म के अनुसार मानते थे, पर ब्राह्मण जन्म के अनुसार। निःसन्देह बौद्ध धर्म का लक्ष्य था मानव को मुक्ति या निर्वाण का मार्ग दिखाना। जो लोग पुराने कबायली समाज के विघटन और निजी सम्पत्ति के प्रचलन से उत्पन्न हुई घोर सामाजिक असमानताओं को बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं थे उन्हें तो बौद्ध धर्म में कुछ राहत मिली, किन्तु ऐसी राहत तो भिक्षुओं के लिए ही सम्भव थी, गृहस्थ अनुयायियों के लिए तो छुटकारे का कोई उपाय नहीं था, अतः उन्हें मौजूदा स्थिति से समझौता कर लेने का ही उपदेश दिया गया। बौद्ध धर्म ने स्त्रियों और शूद्रों के लिए अपने द्वारा खोलकर समाज पर गहरा प्रभाव जमाया। ब्राहाण धर्म ने स्त्रियों और शूद्रों को एक ही दर्जे में रखा और उनके लिए न यज्ञोपवीत संस्कार अनुमत था और न वेदाध्ययन। बौद्धधर्म ग्रहण करने पर उन्हें इस हीनता से मुक्ति मिल गई। बौद्ध धर्म ने अहिंसा और जीवमात्र के प्रति दया की भावना जगाकर देश में पशुधन की वृद्धि की। एक प्राचीनतम बौद्ध ग्रन्थ सुत्तनिपात में गाय को भोजन, रूप और सुख देने वाली (अन्नदा वन्नदा सुखदा) कहा गया है और इस कारण उसकी रक्षा करने का उपदेश किया गया है। यह उपदेश ऐन मौके पर आया जब आर्येतर लोग माँस के लिए और आर्य लोग धर्म के लिए पशुधन का संहार करते जा रहे थे। ब्राह्मण धर्म में गाय की पूजनीयता और अहिंसा पर जोर पड़ने का कारण स्पष्टतः बौद्धधर्म के उपदेशों का प्रभाव था। बौद्ध धर्म ने बौद्धिक और साहित्यिक जगत् में भी एक चेतना जगाई। इसने लोगों को यह सुझाया कि किसी वस्तु को यों ही नहीं, बल्कि भली-भाँति गुणदोष का विवेचन करके ग्रहण करें। बहुत हद तक अन्धविश्वास का स्थान तर्क ने ले लिया। इससे लोगों में बुद्धिवाद पनपा। अपने नए धर्म के सिद्धांतों का प्रतिपादन करने के लिए बौद्धों ने नए प्रकार से साहित्यसर्जना की। उन्होंने अपने लेखन से पालि को परम समृद्ध किया। आरम्भिक पालि साहित्य तीन कोटियों में बाँटा जा सकता है। प्रथम कोटि में बुद्ध के वचन और उपदेश हैं, दूसरी में संघ के सदस्यों द्वारा पालनीय नियम आते हैं और तीसरी में धर्म का दार्शनिक विवेचन है। बौद्धों की साहित्यिक गतिविधि मध्य युग में भी चलती रही। पूर्वी भारत की कुछ प्रख्यात अपभ्रंश कृतियाँ बौद्धों की देन हैं। बौद्ध विहार महान् विद्याकेन्द्र हो गए, जिन्हें आवासिक विश्वविद्यालय की संज्ञा दी जा सकती है। इनमें बिहार में नालन्दा और विक्रमशील तथा गुजरात में वलभी उल्लेखनीय है। प्राचीन भारत की कला पर बौद्ध धर्म का स्पष्ट प्रभाव है। भारत में पूजित पहली मानव-प्रतिमाएँ शायद बुद्ध की ही हैं। श्रृद्धालु उपासकों ने बुद्ध के जीवन की अनेक घटनाओं को पत्थरों में उकेरा। बिहार के गया में और मध्य प्रदेश के साँची और भरहुत में जो पैनेल (चित्रफलक) मिले हैं वे बौद्ध कला के उत्कृष्ट नमूने हैं। ईसा की पहली ही सदी से गौतम बुद्ध की फलक-प्रतिमाएँ बनने लगीं। भारत के पश्चिमोत्तर सीमान्त में यूनान और भारत के मूर्तिकारों ने एक नए ढंग की कला की सृष्टि करने के लिए सम्मिलित रूप से प्रयास किया जिसका परिणाम गन्धार कला के नाम से विख्यात है। इस प्रदेश में बनी प्रतिमाओं में देशी और विदेशी दोनों प्रभाव स्पष्ट हैं। भिक्षुओं के निवास के लिए चट्टान तराश-तराश कर कमरे बनाए गए और इस प्रकार गया की बराबर पहाड़ियों में और पश्चिम भारत में नासिक के आसपास की पहाड़ियों में गुहा-वास्तुशिल्प का आरम्भ हुआ। बौद्ध कला दक्षिण में कृष्णा डेल्टा में और उत्तर में मथुरा में फूली-फली। | |||||||||
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