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भारत और विश्व
आठवीं शताब्दी के पश्चात् यूरोप तथा एशिया में अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। इन परिवर्तनों ने, केवल यूरोप तथा एशिया के सम्बन्धों को ही नहीं बल्कि इसका व्यापक प्रभाव लोगों के रहन-सहन और विचारधारा पर भी पड़ा। उस समय चीन, रोमन साम्राज्य तथा शेष एशिया के साथ भारत का वृहत व्यापार होने के कारण इन परिवर्तनों का अप्रत्यक्ष प्रभाव भारत पर भी पड़ा।
छठीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के आरम्भ में यूरोप का शक्तिशाली रोमन साम्राज्य दो भागों में विभाजित हो गया। पश्चिमी भाग जिसकी राजधानी रोम थी, रूस और जर्मनी की ओर से आये हुए स्लाव और जर्मन जनजातियों से पराजित हो गया। ये जनजातियाँ अनेक शाखाओं में आर्यां और प्राचीन रोम साम्राज्य के क्षेत्रों को बरवाद करने और लूटने में लग गई। लेकिन कालान्तर में ये जनजातियाँ यूरोप के अन्य भागों में बस गईं और वहाँ के मूल निवासियों के स्वभाव, अतिरिक्त भाषाओं और सरकारों के स्वरूप को गंभीर रूप से प्रभावित किया। इन जनजातियों यूरोपीय के जनता के साथ घुलने-मिलने के फलस्वरूप, इस अवधि में अनेक आधुनिक यूरोपीय राष्ट्रों की नींव पड़ी। प्राचीन रोम साम्राज्य के पूर्वी भाग की राजधानी कुस्तुनतुनिया थी। इसके पूर्वी यूरोप के अधिकांश भागों के अतिरिक्त आधुनिक तुर्की, सीरिया और उत्तरी अफ्रीका शामिल थे। यह सम्राज्य बैजन्टाईन के नाम से पुकारा जाता था। उसने रोमन साम्राज्य के शक्तिशाली राजतंत्र और अधिक केन्द्रीत प्रशासन जैसी अनेक परम्पराओं को जारी रखा। पश्चिमी कैथोलिक चर्च का केन्द्र रोम था। इसके साथ बैजन्टाईन साम्राज्य के धार्मिक विश्वासों एवं परम्पराओं में बहुत भिन्नता थी। पूर्वी यूरोप का चर्च ‘ग्रीक आर्थोडॉक्स चर्च’ (यूनानी रूढ़िवादी चर्च) कहलाता था। इसके तथा बैजन्टाईन शासकों के प्रयत्नों के परिणामस्वरूप रूस ईसाई धर्मावलम्बी बन गया। आधुनिक तुर्की और सीरिया भी जो बैजन्टाईन साम्राज्य में शामिल कर लिए गए थे, ग्रीक आर्थोडॉक्स चर्च के अनुयायी बन गये। विशाल एवं प्रगतिशील बैजेन्टाईन साम्राज्य ने पश्चिमी रोमन साम्राज्य के विध्वंस होने के बाद भी एशिया के साथ व्यापार करना जारी रखा। बैजेन्टाईन साम्राज्य ने शासन और संस्कृति की परम्पराओं का सृजन किया जिन्हें अधिकांश अरबों ने सीरिया और मिश्र की विजय के बाद अपना लिया। इस व्यापार ने ग्रीक-रोमन (यूनान-रोम) संस्कृति और अरब संसार के मध्य सेतु का काम किया और आगे चलकर पश्चिम में यूनानी ज्ञान के पुनरुत्थान में सहायता की। पन्द्रहवी शताब्दी के मध्य से तुर्की द्वारा कुस्तनतुनिया की पराजय के साथ ही इस साम्राज्य का अंत हो गया। पश्चिम के रोमन साम्राज्य के पतन के बाद कई शताब्दियों तक पश्चिमी यूरोप के शहरों का वस्तुतः अस्तित्व ही मिट गया विदेशी और अन्तर्देशीय व्यापार को भारी आघात पहुँचा। इतिहासकारों ने पश्चिमी यूरोप के इस काल को ‘अंधकार युग’ कहा है। फिर भी दसवीं शताब्दी के व्यापार और शहरी जीवन पुनर्जीवित होने लगे। बारहवीं और चौदहवीं शताब्दी के बीच पश्चिमी यूरोप पुनः वैभवशाली बन गया। इस युग की उल्लेखनीय विशेषताएँ थी - विज्ञान तथा तकनीकी विकास, नगरों की वृद्धि तथा इटली के पाडुआ और मिलान जैसे कुछ शहरों में विश्वविद्यालयों की स्थापना। विश्वविद्यालयों ने नये ज्ञान एवं नये विचारों को विकसित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। जिसे पुनर्जागरण का मार्ग धीरे-धीरे प्रस्फुटित हुआ और एक नये यूरोप का उदय हुआ। सामंतशाही का विकासरोमन साम्राज्य के विघटित होने के उपरान्त पश्चिमी यूरोप में एक नये प्रकार के समाज और एक नई शासन प्रणाली का उदय हुआ। यह नयी प्रणाली, जो धीरे-धीरे उभरकर सामने आयी, ‘सामतशाही’ कहलाती हैं इसकी उत्पत्ति लातीनी (लैटिन) शब्द ‘फयूडम’ से हुई जिसे अंग्रेजी में ‘फीफ’ कहते हैं। इस समाज में सरदारों का महत्वपूर्ण स्थान था जो सैन्य-शक्ति द्वारा भूमि के बड़े हिस्से पर अपना प्रभुत्व जमाए हुए थे और प्रशासन में भी उसका प्रभाव बना रहता था। राजा एक बहुत प्रभावशाली सामंती सरदार की भाँति था। समय की गति के साथ राजतन्त्र शक्तिशाली होता चला गया और सरदारों की शक्ति सीमित करने के प्रयत्न किए गये। इसका एक तरीका यह था कि राजा सरदारों को निष्ठावान ‘वैसल’ (जागीदार) होने की शपथ दिलावाता था। सरदार विविध रूपों में, खासतौर से सैन्य क्षेत्र में उसकी सेवा करते थे। इसके बदले में राजा, सरदारों द्वारा अधिकृत भूमि के हिस्से को जागीर के रूप में मान्यता प्रदान करता था। फिर वे सरदार अपने से छोटे सरदारों को जागीरदार के रूप में नियुक्त करते और अपनी जागीर की जमीन के एक हिस्से पर उन्हें अधिकार देते थे। मूलतः सिद्धान्त में राजा निष्ठाहीन जागीरदार की जागीर वापस ले सकता था। लेकिन व्यवहारिक रूप में ऐसा कदाचित ही किया जाता था। इस प्रकार सामन्ती व्यवस्था में सरकार पर भूमि सम्पन्न अभिजाततंत्र का बोलबाला था। अभिजाततंत्र वंशानुगत था और यह भरपूर प्रयास किया जाता था कि कोई भी बाहरी व्यक्ति इस व्यवस्था में शामिल न हो। लेकिन यह अभिजाततन्त्र कभी भी पूर्णतया संकीर्ण नहीं था।सामंती व्यवस्था की यह विस्तृत रूप रेखा थी। इस व्यवस्था में तथा तुर्कों द्वारा मध्य एशिया तथा राजपूतों द्वारा भारत में विकसित शासन और समाज व्यवस्था में बहुत सामनता है। जैसे-जैसे यह व्यवस्था विकसित होती गयी, विभिन्न देश में वहाँ की स्थिति तथा परम्पराओं के अनुरूप उसने अनेक रूप धारण कर लिए यूरोप की सामंती व्यवस्था में दो अन्य विशेषताएँ भी थी। पहली विशेषता कृषिदासता की है। कृषिदास एक ऐसा किसान था जो खेत पर काम करता, लेकिन वह किसान अपना पेशा नहीं बदल सकता था। वह न तो किसी दूसरे क्षेत्र में जाकर बस सकता था और न ही अपने सामन्त या स्वामी की अनुमति के बिना विवाह ही कर सकता था। दूसरी अन्य व्यवस्था मेनर व्यवस्था थी। मेनर एक गृह अथवा दुर्ग बनाता था, जहाँ सामंत निवास करता था। भूमि का एक अंश उसके द्वारा अलग रखा जाता था। जि भूमि पर कृषिदास अपने सामंत के लिए खेती करते थे। उन्हें स्वामी की खेती और अपनी खेती के लिए अपने समय का विभाजन करना पड़ता था। चूँकि सैद्धांतिक रूप से भूमि सामंत की होती थी, अतः इसके लिए कृषिदास को शुल्क के रूप में नकद और बहुमूल्य वस्तुएँ देनी पड़ती थीं। मेनर के सामंत को भी कानून और व्यवस्था बनाये रखने और न्याय देने आदि की जिम्मेदारी लेनी पड़ती थी। चूँकि उन दिनों बहुत अराजकता थी, स्वतंत्र किसानों को भी कभी-कभी सुरक्षा के बदले में सामंत की अधीनता स्वीकार करने के लिए तैयार रहना पड़ता था। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि कृषिदासता और मेनर व्यवस्था सामंतशाही के महत्वपूर्ण अंग हैं और ऐसे समाज को सामंतशाही व्यवस्था कहना गलत होगा जिसमें ये दोनों व्यवस्थाएँ न हों। जैसे, भारत में कृषिदासता और मेनर व्यवस्था उस रूप में नहीं थी, लेकिन आश्रित किसानों पर स्थानीय जमींदार, सामंती सरदारों जैसे अनेक अधिकारों का प्रयोग करते थे। दूसरे शब्दों में, यह ध्यान देने की बात नहीं है कि किसान औपचारिक रूप से स्वतंत्र था या नहीं, बल्कि यह कि किस ढंग से, किस हद तक वह अपनी स्वतंत्रता का प्रयोग कर सकता था। पश्चिमी यूरोप के अनेक देशों में मेनर व्यवस्था और किसानों से बेगार लेना चौदहवीं शताब्दी के बाद समाप्त हो गया। यूरोप में सामंती व्यवस्था से जुड़ी हुई दूसरी विशेषता उसका सैन्य संगठन है। सशस्त्र घुड़सवार (नाइट) सामंती व्यवस्था के विशेष प्रतीक थे। यूरोप में वस्तुतः आठवीं शताब्दी में युद्ध में घुड़सवार सेना का उपयोग होने लगा था। रोमन काल में छोटी-बड़ी सेना के मुख्य अंग, लम्बे बरछों और छोटी तलवारों से लैस पैदल सैनिक होते थे। घोड़े का उपयोग अफसरों के रथों को खींचने में होता था। सामान्यतः यह विश्वास किया जाता है कि अरबों के आगमन के साथ ही युद्धरीति में परिवर्तन हुए। अरबों के पास बड़ी संख्या में घोड़े थे और उनके तीव्रगति वाले घुड़सवार धनुर्धर सैनिकों ने पैदल सेना को प्रभावहीन बना दिया। नयी युद्ध प्रणाली की आवश्यकताओं के अनुरूप, उत्कृष्ट सैन्य संगठन के विकास एवं सेना के रख-रखाव की समस्या ने यूरोप में सामंतशाही को और भी बढ़ावा दिया। कोई भी राजा अपने साधनों से कवच और युद्ध के साज-सामान से सुसज्जित विशाल घुड़सवार सेना नहीं रख सकता था। इसलिए राज्यसेवा हेतु जागीरदारों को एक निश्चित संख्या में घुड़सवार और पैदल सैनिकों की जिम्मेदारी देकर सेना को विकेन्द्रित कर दिया गया था। दो बहुत पुराने आविष्कारों के बड़े पैमाने पर उपयोग में लाये जाने के कारण घुड़सवार सेना इस काल की युद्ध प्रणाली की मुख्य अंग बन गयी। पहला अविष्कार था लोहे की रकाब। लोहे की रकाब ने सशस्त्र व्यक्ति को घोड़े पर जमकर बैठने में सहायता की। अब बरछे से आक्रमण करते समय या धक्का लगने पर गिरने का डर न रहा इसके पूर्व या तो लकड़ी के रकाब या पैर की उँगली रखने के लिए रस्सी का एक टुकड़ा होता था। इस प्रकार घुड़सवार सेना के जबरदस्त आक्रमण का मुकाबला करना पैदल सेना के लिए कठिन था। दूसरा अविष्कार एक नये प्रकार का साज था जो घोड़े के गले का दबाता नहीं था और उसे पहले से दोगुने वजन के बोझ को खींचने की शक्ति प्रदान करता था। यह विश्वास किया जाता है कि ये दोनों अविष्कार पूर्व से, संभवतः कोरिया से आये थे। ये स्पष्ट रूप से नवीं शताब्दी या उसके बाद भारत में फैले। इस प्रकार राजनीतिक, आर्थिक तथा सैन्य संबंधी अनेक कारणों से यूरोप में सामंतशाही का विकास हुआ। ग्यारहवीं शताब्दी के बाद जब कभी शक्तिशाली सरकारों का उदय हुआ तो सामंतशाही परम्पराएँ इतनी बल पकड़ चुकी थीं कि राजा सामंती सरदारों की शक्ति को आसानी से कम नहीं कर सकता था। मध्यकालीन यूरोप की जीवन प्रणाली को सामंतशाही व्यवस्था के अतिरिक्त चर्च ने भी प्रभावित किया। बैजन्टाईन साम्राज्य और रूस में ग्रीक आर्थोडॉक्स चर्च के योगदान का उल्लेख पहले ही किया जा चुका है। पश्चिम में शक्तिशाली साम्राज्य न होने से कैथोलिक चर्च ने कुछ प्रशासनिक कार्यों को भी ग्रहण कर लिया। पोप जो कैथोलिक चर्च का प्रधान था, न केवल धार्मिक प्रधान रहा बल्कि राजनीतिक और नैतिक प्रभुत्व का भी बहुत कुछ प्रयोग करने लगा। पश्चिम एशिया और भारत की तरह यूरोप के लिए मध्यकाल, धार्मिक युग था और धार्मिक नेता बहुत हद तक शक्ति और प्रभाव का प्रयोग करते थे। राजाओं और सामंती सरदारों के भूमिदान पर धनी व्यापारियों के चंदों से अनेक धार्मिक सम्प्रदायों और मठों की स्थापना हुई। उनमें से फ्रांसिसकन जैसे कुछ सम्प्रदाय जरूरतमंद और निर्धन लोगों की सहायता करते थे। अनेक मठ चिकित्सा सेवा करते थे या यात्रियों को रहने की जगह देते थे। वे शिक्षा एवं ज्ञान केन्द्र का भी कार्य करते थे। इस प्रकार कैथोलिक चर्च ने यूरोप के सांस्कृतिक जीवन में महत्वपूर्ण योगदान दिया। कुछ मठ जो अत्यधिक धनवान हो गये थे, सामंती सरदारों की तरह व्यवहार करने लगे। इससे आंतरिक मतभेद पैदा हो गया। उन शासकों का जो चर्च और पोप की लौकिक शक्ति से अप्रसन्न थे, मठों से विरोध हो गया। अगले अध्याय में चर्च और राज्य के बीच विवाद से यूरोप और उसके बाहर के देशों पर जो प्रभाव पड़ा उसका अध्ययन करेंगे। अरबी दुनियापरस्पर विरोधी अरबी काबीलों ने इस्लाम के उदय के फलस्वरूप एक होकर एक शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना की। प्रारम्भिक खालीफाओं ने जिस अरब साम्राज्य की स्थापना की थी, उसमें अरब के अतिरिक्त सीरिया, इराक, ईरान, मिश्र, दक्षिण अफ्रीका और स्पेन भी शामिल थे। कबीलों के बीच आन्तरिक झगड़ों और गृहयुद्ध के कारण आठवीं शताब्दी के मध्य में अब्बासीयों ने बगदाद में खलीफा के रूप में शक्ति ग्रहण की। अब्बासी अपने को पेगम्बर मुहम्मद के खानदान का मानते थे और इस वजह से वे पवित्र समझे जाते थे। लगभग डेढ़ सौ वर्षों तक अब्बासी साम्राज्य जब अपनी उन्नति की चरम सीमा पर था तब उस क्षेत्र के सभी महत्वपूर्ण सभ्यता के केन्द्र उसके अधीन थे अर्थात् उत्तरी अफ्रीका, मिस्र, सीरिया, ईरान और इराक इसमें शामिल थे। इस प्रकार अब्बासियों का अधिकार न केवल पश्चिम एशिया और उत्तरी अफ्रीका के उपजाऊ देशों पर था, वरन् भूमध्य सागरीय देशों और भारत तथा चीन को जोड़ने वाले महत्वपूर्ण मार्गों पर भी इनका नियंत्रण था। इस क्षेत्र के लोगों के धनी और समृद्ध होने का एक महत्वपूर्ण कारण यह था कि अब्बासियों ने इन मार्गों को सुरक्षा और अभयदान प्रदान किया था। इसके कारण अब्बासी दरबार का गौरव और वैभव बढ़ गया। अरब के लोग उत्साही व्यापारी थे और इस काल में शीघ्र ही वे अत्यन्त साहसी और समृद्ध व्यापारी के रूप में उभरकर दुनिया के सामने आये। इसके परिणाम स्वरूप निजी और सार्वजनिक भव्य भवनों के साथ बहुत से शहरों का उदय हुआ। इस अवधि में विश्व का शायद ही कोई ऐसा देश था जो रहन-सहन के स्तर और सांस्कृतिक वातावरण में अरबी नगरों की तुलना कर सकता हो। नामून और हारून-उल-रशीद इस काल के अत्यन्त मशहूर खलीफा थे। उनके दरबार और राजभवनों के वैभव और विद्वानों के संरक्षण संबंधी बहुत सी कथाएँ एवं किंवदन्तियाँ प्रचलित हो गईं।प्रारम्भिक काल में अरबों ने जिन प्राचीन सभ्यता वाले क्षेत्रों को जीता था, उनके वैज्ञानिक ज्ञान तथा प्रशासनिक विशेषताओं को सहज ही अपना लिया। प्रशासन को चलाने के लिए उन्होंने गैर मुसलमानों जैसे ईसाई, यहूदी और गैर-अरबी खासतौर से ईरानियों को भी जिनमें अधिकांश पारसी थे या बौद्ध थे, नौकरी देने में कोई संकोच नहीं किया। यद्यपि अब्बासी खलीफा कट्टर मुसलमान थे, फिर भी उन्होंने ज्ञान के उन सिद्धान्तों को अपनाने के लिए अपना दरबार सदैव खुला रखा जो इस्लाम धर्म के सिद्धान्तों के विरुद्ध न हो। खलीफा अल-मानून ने यूनान, बैजन्टाईन, मिस्र, ईरान और भारत जैसे विविध सभ्यताओं के ज्ञान को अरबी भाषा में अनुवादित करने के लिए बगदाद में एक बेतुल हिकमत (ज्ञान का घर) बनाया। खलीफा द्वारा प्रस्तुत उदाहरण का अमीरों ने व्यक्तिगत रूप से अनुकरण किया। थोड़े ही समय में विविध देशों की लगभग सभी महत्वपूर्ण वैज्ञानिक रचनाएँ अरबी भाषा में उपलब्ध हो गयी थीं। निष्ठावान यूरोपीय विद्वत् लोगों द्वारा हाल के वर्षों में किए गये कार्यों के द्वारा हम लोग अरबों पर यूनानी विज्ञान और दर्शन के प्रभाव के बारे में बहुत कुछ जानकारी प्राप्त कर सके। अरबी दुनिया पर चीनी विज्ञान और दर्शन के प्रभाव को भी अब हम अच्छी तरह से जानने लगे हैं। इस काल में दिशा सूचक यंत्र (कंपास) कागज, मुद्रण, बारुद और साधारण पहियेदार ठेलागाड़ी तथा लोहे के रकाब जैसे बहुत से चीनी अविष्कार अरब होते हुए यूरोप पहुँचे। चीन के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त करने, विशेष रूप से रेशम का रहस्य जानने और चीन के साथ अरब व्यापारियों के रेशम व्यापार के एकाधिकार को तोड़ने के उद्देश्य से वेनिस के विख्यात यात्री मार्को पोलो ने चीन की यात्रा की थी। दुर्भाग्यवश इस काल में अरबी दुनिया के साथ भारत के आर्थिक एवं सांस्कृतिक संबंधों के विषय में तथा अरबी दुनिया को भारत की वैज्ञानिक देन के बारे में हमारी जानकारी बहुत सीमित है। आठवीं शातब्दी में अरबों द्वारा सिंध विजय से भी भारत के साथ उनके सांस्कृतिक संबंधों में विशेष प्रगति नहीं हुई। दशमलव पद्धति, जो आधुनिक गणित का आधार है और जो भारत में पाँचवीं शताब्दी में विकसित हुई थी, इसी काल में अरबी दुनिया में प्रविष्ट हुई। नवीं शताब्दी में गणितज्ञ - अल ख्वारिज्मी द्वारा इस क्षेत्र को लोकप्रिय बनाया गया। बारहवीं शताब्दी में अबेलार्ड नामक भिक्षु ने इस प्रणाली से यूरोपवासियों को परिचित कराया जो अरबी संख्याक पद्धति के नाम से जाना जाता है। ज्योतिष विद्या और गणित से संबंधित अनेक भारतीय रचनाओं को भी अरबी भाषा में अनुदित किया गया। इन रचनाओं में से आर्यभट्ट द्वारा संशोधित और परिमार्जित एक प्रसिद्ध रचना थी - सूर्य सिद्धान्त। चिकित्सा से संबंधित चरक और सुश्रुत की रचनाओं का भी अनुवाद किया गया। भारतीय व्यापारी और सौदागरों ने इराक और ईरान के बाजारों में जाना जारी रखा और बगदाद के खलीफा ने अपने दरबार में भारतीय चिकित्सकों और कुशल शिल्पकारों का स्वागत किया। विविध संस्कृत साहित्य की रचनाओं का अनुवाद अरबी भाषा में हुआ। उदाहरणार्थ पंचतंत्र का अनुवाद अरबी भाषा में ‘‘कबीला बा दिमना’’ के नाम से हुआ। इस रचना ने पश्चिम में ईसप की नीति कथाओं को मूलाधार दिया। भारतीय विज्ञान और दर्शन का अरबी दुनिया पर प्रभाव और भारत पर अरबी विज्ञान के प्रभाव का विस्तृत अध्ययन अभी किया जाना है। दसवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक अरब वाले स्वयं इस स्थिति में पहुँच चुके थे कि वे विविध वैज्ञानिक विषयों में स्वयं योगदान कर सकें। इस काल में रेखागणित, बीजगणित, भूगोल, ज्योतिष विद्या, प्रकाश विज्ञान, रसायनशास्त्र, चिकित्सा आदि के विकास ने अरबी दुनिया को विज्ञान के क्षेत्र में अगुआ बना दिया। इस काल में विश्व के सबसे समृद्ध पुस्तकालयों और वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं की स्थापना अरब वालों ने की थी फिर भी यह स्मरण रखना आवश्यक है कि इनमें से अधिकांश महान कार्य खुरासान, मिश्र, स्पेन आदि जैसे अरब महान से बाहर के देशों के लोगों ने किया था। इस प्रकार अरबी विज्ञान वस्तुतः अन्तर्राष्ट्रीय बन गया था। इसे अरबी विज्ञान के नाम से जाना जाता था क्योंकि अरबी भाषा उस क्षेत्र के साहित्य और विचार अभिव्यक्ति भाषा थी। विविध देशों लोग वहाँ स्वतन्त्र रूप से घूम सकते और काम कर सकते या अपनी इच्छा के अनुसार स्थायी रूप से रह सकते थे। वैज्ञानिकों तथा विद्वानों ने असाधारण कोटि की बौद्धिकता और वैयक्तिक स्वतन्त्रता का उपयोग किया। साथ ही साथ अरबी राजदरबारों में विद्वानों को प्राप्त होने वाला संरक्षण ही वह महत्वपूर्ण कारक था जिसके कारण अरबी विज्ञान एवं सभ्यता का असाधारण विकास हुआ। ईसाई चर्च के कठोर रुख के कारण उस समय यूरोप में ऐसी स्वतन्त्रता उपलब्ध नहीं थी। स्वतंतः भारत में कई स्थितियाँ थी जिनके कारण शायद ही कोई अरबी विज्ञान मुश्किल से भारत पहुँचा हो। भारतीय विज्ञान में स्वयं इस काल में स्थिरता आ गई थी। चौदहवीं शताब्दी के पश्चात् इस क्षेत्र में राजनीतिक तथा आर्थिक प्रतिक्रियाओं के फलस्वरूप, लेकिन इससे भी अधिक बढ़ती रूढ़िवादिता के कारण, स्वतन्त्र विचारों के विकास में अवरोध हुआ। इससे अरबी विज्ञान का हृास हो गया। पूर्व और दक्षिण पूर्व एशियाआठवीं और नौंवी शताब्दी में तांग शासन काल में चीनी समाज और संस्कृति अपने चरमोत्कर्ष पर थी। तांग शासकों ने काशगर के साथ-साथ मध्य एशिया में सिक्यांग के एक बहुत बड़े भाग पर अपना प्रभुत्व कायम कर लिया था जिससे सिल्क (स्थल मार्ग) के रास्ते होकर किए जाने वाले व्यापार को भी बढ़ावा मिला। न केवल सिल्क ही बल्कि अच्छी किस्म के चीनी मिट्टी के बर्तन और संगेअश्वय (एक हरा कीमती पत्थर जो दवा के काम आता है) इस सड़क के द्वारा पश्चिम एशिया, यूरोप तथा भारत को निर्यात किये जाते थे। चीन में विदेशी व्यापारियों का स्वागत किया जाता था। उनमें से बहुतेरे अरबी, फारसी और भारतीय व्यापारी समुद्र पार करके दक्षिण चीन पहुँचे और कैन्टन में बस गये।नौवीं शताब्दी के मध्य से तांग साम्राज्य का पतन हो गया और दसवीं शताब्दी में शुंग वंश की स्थापना हुई जिसने सौ वर्ष तक चीन पर शासन किया। इसकी बढ़ती दुर्बलताओं ने तेरहवीं शताब्दी में मंगोलों को चीन पर आक्रमण करने का अवसर दिया। मंगोलों ने चीन में बड़े पैमाने पर तबाही मचाई और हत्याएँ कीं। बहुत अनुशासित एवं गतिशील घुड़सवार सेना के कारण मंगोल शासकों को पहली बार उत्तरी और दक्षिणी चीन को एक करने में सफलता मिली थी। कुछ समय के लिए उन्होंने टांकिन (उत्तरी वियतनाम) और अन्नाम (दक्षिणी वियतनाम) को भी अपने अधिकार में ले लिया था। उत्तर में उन्होंने कोरिया को जीता था। इस प्रकार मंगोलों ने पूर्वी एशिया में एक बहुत बड़े साम्राज्य की स्थापना की। वेनिस यात्री मार्को पोलो ने चीन के सबसे मशहूर मंगोल राजा कुबलाई ख़ान के राजदरबार में कुछ समय व्यतीत किया था। उसने वहाँ के बारे में एक सजीव लिखित वृतांत छोड़ा है। मार्को पोलो भारत में मालाबार होते हुए समुद्रों मार्ग से इटली लौटा। इस प्रकार विश्व के विविध भाग एक दूसरे के निकट आ रहे थे और उनके व्यापारिक और सांस्कृतिक संबंध बढ़ रहे थे। दक्षिण पूर्व एशिया के कुछ देश भी चीनी शासकों की विस्तारवादी नीति से प्रभावित हुए थे, लेकिन वे अधिक समय तक स्वतन्त्र भी रहे। इस काल में इस क्षेत्र के दो शक्तिशाली साम्राज्य शैलेन्द्र और कम्बोज थे। सातवीं शताब्दी में श्री विजय साम्राज्य के विस्थापित होने के जिस शैलेन्द्र साम्राज्य का उदय हुआ वह दसवीं शताब्दी तक फलता-फूलता रहा। अपने चरमोत्कर्ष पर इस साम्राज्य में सुमात्रा, जावा, मलाया प्रायद्वीप, स्याम (आधुनिक थाईलैण्ड) के कुछ भाग और फिलिपाईन्स भी शामिल था। नौवीं शताब्दी के एक अरबी लेखक के अनुसार यह साम्राज्य इतना विशाल था कि सबसे तेज गति वाला जहाज भी पूरे साम्राज्य की परिक्रमा दो वर्ष में भी पूरी नहीं कर सकता था। शैलेन्द्र शासकों के पास एक शक्तिशाली नौसेना थी जो चीन के समुद्री व्यापार पर छायी रही। दसवीं शताब्दी में भी विजय साम्राज्य पुनर्जीवित हुआ तथा तेरहवीं शताब्दी तक कायम रहा। भारत का इस क्षेत्र के देशों के साथ निकट का व्यापारिक और सांस्कृतिक संबंध था। अनेक चीनी और भारतीय विद्वानों ने सुमात्रा स्थित श्रीविजय की राजधानी पालेमबांग की यात्रा की थी जो पहले से ही संस्कृत और बौद्ध धर्म का अध्ययन केन्द्र था। वहाँ के शासकों ने इस काल में भव्य मन्दिरों का निर्माण किया जिनमें महात्मा बुद्ध के नाम समर्पित सबसे प्रसिद्ध बोरोबुदूर का मन्दिर था। मूर्तियाँ इस संपूर्ण पर्वत के नौ चबूतरों पर खोदकर बनाई गयी हैं जिसके ऊपर एक स्तूप खडा है। इस काल में यहाँ के साहित्य, लोककला एवं कठपुतली नाच के विषय भारतीय महाकाव्यों रामायण और महाभारत से ही लिए जाते थे। कंबोज साम्राज्य का विस्तार कंबोडिया और अन्नाम तक था और इसने उस क्षेत्र के प्रभावशाली हिन्दू राज्य फुनाम की जगह से ली। उच्चस्तरीय सांस्कृतिक विकास और आर्थिक समृद्धि को प्राप्त कर कंबोज का साम्राजय पन्द्रहवीं शताब्दी तक फलता-फूलता रहा। इसकी अत्यधिक शानदार उपलब्धि संभवतः कंबोडिया में अकोरथोन शहर के निकट मन्दिरों का समूह है। दसवीं शताब्दी के आरभ्भ से 3.2 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र के अन्दर जब तक दो सौ मन्दिरों का निर्माण नहीं हो गया तब तक प्रत्येक राजा ने अपनी यादगार को ताजा बनाए रखने के लिए एक-एक नये मन्दिर का निर्माण किया। इनमें से सबसे विशाल अंकोरवट मन्दिर है। इसमें तीन किलोमीटर तक छत से ढका मार्ग है जिसमें देवियों, देवताओं, अप्सराओं की मनोहर मूर्तियाँ हैं। रामायण और महाभारत के दृश्य चौखटों में निपणता से बनाए गये हैं। इन समस्त भवनों के समूह को बाह्य दुनिया में लोगों ने भुला दिया था और अधिकांश भाग जंगलों से ढक गये थे। एक फ्रांसीसी ने सन् 1869 में इसे ढूँढ़ निकाला था। यह एक दिलचस्व बात है कि दसवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक का समय मन्दिर निर्माण कार्य के लिए अत्यंत अनुकूल सिद्ध हुआ। मलाया प्रायद्वीप को तक्क्राला बंदरगाह से चीनी समुद्र तक स्थल मार्ग से चलकर अनेक भारतीय व्यापारी दक्षिणी चीन पहुँचे थे। अनेक ब्राह्मण और फिर बौद्ध भिक्षु वहीं आकर बस गये। बौद्ध धर्म का अपनी जन्मभूमि भारत में पतन हुआ जबकि दक्षिण-पूर्व एशिया में इसकी लोकप्रियता बढ़ी। बौद्ध धर्म ने कालान्तर में हिन्दू देवताओं को बौद्ध मठों में शामिल कर लिया और मन्दिरों को भी अपना लिया। भारत में इस प्रक्रिया के उलट हुआ। दक्षिण पूर्व एशिया के राज्यों ने भारत और चीन के मध्य व्यापारिक एवं सांस्कृतिक संबंधों के बीच एक प्रकार से सेतु का कार्य किया। यद्यपि ये राज्य भारतीय सभ्यता और संस्कृति से गम्भीर रूप से प्रभावित थे, तो भी ये अपनी एक अलग अति विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखने में समर्थ हुए। अरब के व्यापारी दक्षिण भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों के साथ पहले से व्यापार करते चले आ रहे थे, अब्बासी साम्राज्य की स्थापना के पश्चात् ये हिन्द महासागर में पहले से और अधिक सक्रिय हो गये लेकिन अरबवालों ने भारतीय व्यापारियों और धर्मोपदेशकों को विस्थापित नहीं किया। न ही उन्होंने उस क्षेत्र के लोगों को इस्लाम धर्म स्वीकार करवाने के लिए कोई विशेष प्रयास ही किया। इस प्रकार एक विलक्षण धार्मिक स्वतन्त्रता और सहिष्णुता तथा विविध संस्कृतियों के साथ घुल-मिल जाना इन देशों की विशेषताएँ रहीं, जिन्हें वहाँ के लोगो ने आज तक सुरक्षित रखा। भारत में इस्लाम की स्थिति सुदृढ़ होने के पश्चात् इन्डोनिशया और मलाया ने धीरे-धीरे इस्लाम को अपनाया। बौद्ध धर्म अन्यत्र फलता-फूलता रहा। भारत और इन देशों के बीच व्यापारिक सांस्कृतिक संबंध तभी टूटे जब इन्डोनेशिया में डच, भारत, वर्मा और मलाया में अंग्रेज तथा बाद में हिन्द-चीन में फ्रांसीसी बस गये। भारत का व्यापारिक संबंध मेडागास्कर और अफ्रीका के पूर्वी समुद्र तट के बंदरगाहों और राज्यों के साथ भी था। | |||||||||
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