सत्यमेव जयते gideonhistory.com
मौर्य काल का महत्व एवं पतन

राजकीय नियन्त्रण

   हिन्दू विधिग्रन्थों में बार-बार कहा गया है कि राजा को धर्मशास्त्रों में बताए गए नियमों और देश में प्रचलित आचारों के अनुसार शासन करना चाहिए। कौटिल्य ने राजा को सलाह दी है कि जब वर्णाश्रम-धर्म (वर्णों और आश्रमों पर आधारित समाज-व्यवस्था) लुप्त होने लगे तो राजा को धर्म की स्थापना करनी चाहिए। कौटिल्य ने राजा को धर्मप्रवर्तक अर्थात् सामाजिक व्यवस्था का संचालक कहा है। अशोक ने अपने अभिलेखों में बताया है कि राजा का आदेश अन्य आदेशों से ऊपर है। अशोक ने धर्म का प्रवर्तन किया और उसके मूलतत्वों को सारे देश में समझाने और स्थापित करने के लिए अधिकारियों की नियुक्ति की।
   राजा के निरंकुश अधिकार की मान्यता मगध के राजाओं द्वारा अपनाई गई सैनिक विजय की नीति की सहज परिणति थी। अंग, वैशाली, काशी, कोसल, अवन्ति, कलिंग आदि को एक-एक करके मगध साम्राज्य में मिला लिया गया। इन सभी क्षेत्रों पर जो सैनिक नियन्त्रण हुआ वह धीरे-धीरे जन-जीवन के हर अंग पर उत्पीड़क नियन्त्रण के रूप में परिणत हो गया मगध साम्राज्य को तलवार का इतना जोर था कि वह अपना पूरा नियन्त्रण लाद सके।
   जनजीवन के हर क्षेत्र को अपने वश में रखने के लिए राज्य को विशाल अधिकारी वर्ग रखना पड़ता था। प्राचीन इतिहास के किसी भी अन्य काल में हम इतने सारे अधिकारियों को नहीं पाते जितने मौर्य काल में।
   प्रशासन-तन्त्र के साथ-साथ गुप्तचर्या का भी विस्तृत जाल बिछा था। विभिन्न प्रकार के जासूस विदेशी शत्रुओं की गतिविधियों पर नजर रखते थे और संदिग्ध अधिकारियों के बारे में पता लगाया करते थे। भोले-भाले लोगों से अन्ध विश्वास का सहारा लेकर कोष-संचय करने में भी वे सहायक थे।
   शीर्षस्थ अधिकारी तीर्थ कहलाते थे। लगता है, अधिकतर अधिकारियों को नगद वेतन दिया जाता था। उच्चतम कोटि के अधिकारी थे मन्त्री, पुरोहित, सेनापति और युवराज जिन्हें उदारतापूर्ण पारितोषिक मिलता था। उन्हें 48 हजार पण की भारी रकम मिलती थी (पण 3/4 तोले के बराबर चाँदी का एक सिक्का होता था)। इसके ठीक विपरीत, सबसे निचले दर्जे के अधिकारियों को कुल मिलाकर 60 पण मिलते थे, हालाँकि कुछ कर्मचारियों को महज दस-बीस पण ही दिए जाते थे। इससे लगता है कि उच्चतम और निम्नतम श्रेणियों के कर्मचारियों के बीच भारी विषमता थी।

आर्थिक नियन्त्रण

  यह हम कौटिल्य के अर्थशास्त्र के आधार बनाएँ तो लगेगा कि राज्य में 27 अध्यक्ष नियुक्त थे। उनका कार्य मुख्य रूप से राज्य की आर्थिक गतिविधियों का नियमन करना था। वे कृषि, व्यापार-वाणिज्य और बाट-माप का तथा कताई, बुनाई, खान आदि शिल्पों का नियमन-नियन्त्रण करते थे। राज्य कृषकों की भलाई के लिए सिंचाई और जलवितरण की व्यवस्था करता था। मेगास्थनीज हमें बतलाता है कि मिश्र की भाँति ही मौर्य राज्य में अधिकारी जमीन को मापता और उन नहरों का निरीक्षण करता था जिनसे होकर पानी छोटी नहरों में पहुँचता था।
   कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार मौर्य काल की एक महत्वपूर्ण सामाजिक घटना थी कृषि कार्यों में दासों को लगाया जाना। मेगास्थनीज का कहना है कि उसने दास नहीं देखे। परन्तु इस बात में कोई सन्देह नहीं है कि भारत में गृहदास वैदिक काल से ही पाए जाते थे। पहली बार मौर्य काल में ही दासों को कृषि कार्यां में बड़े पैमाने पर लगाया गया। राज्य के पास बड़े-बड़े कृषि क्षेत्र थे, जिनमें अनगिनत दास और मजदूर खटाए जाते थे। कलिंग युद्ध में जो डेढ़ लाख लोग युद्धबन्दी बनाए गए सम्भवतः वे कृषि-कार्य में ही लगा दिए गए होंगे। परन्तु प्राचीन भारतीय समाज दास-समाज नहीं था। यूनान और रोम में जो कार्य दास करते थे वह भारत में शूद्रों से लिया जाता था। शूद्रों को ऊपर के तीनों वर्णों की साझा-सम्पत्ति समझा जाता था। वे दासों, शिल्पियों और कृषकों के रूप में ऊपर के तीनों वर्णों का काम करने के लिए बाध्य थे।
   कई कारणों से ऐसा प्रतीत होता है कि राजकीय नियन्त्रण साम्राज्य के विशाल भाग में था, कम से कम केन्द्रीय भाग में तो अवश्य था। ऐसा नियन्त्रण पाटलिपुत्र की अनुकूल अवस्थिति के कारण सम्भव हुआ। यहाँ से जलमार्ग के द्वारा राजप्रतिनिधि चारों ओर जा सकते थे। इसके अतिरिक्त, पाटलिपुत्र से एक राजमार्ग वैशाली और चम्पारन होते हुए नेपाल जाता था। यह भी ज्ञात है कि हिमालय की तराई में भी एक सड़क थी। यह सड़क वैशाली से चम्पारन होकर कपिलवस्तु, कलसी (देहरादून जिले में), हजरा और अन्त में पेशावर पहुँचती थी। मेगास्थनीज ने एक सड़क की चर्चा की है जो पश्चिमोत्तर भारत को पटना से जोड़ती थी। सड़कें पटना और सहसराम के बीच भी थीं जो वहाँ से मिर्जापुर और मध्य भारत चली गई थी। राजधानी को एक सड़क पूर्वी मध्य प्रदेश होते हुए कलिंग से जोड़ती थी और फिर कलिंग भी आन्ध्र और कर्नाटक से जुड़ा हुआ था। इन सारे मार्गों के कारण यातायात आसान था और यातायात में घोड़ों की महत्वपूर्ण भूमिका रही होगी। उत्तरी मैदानों में तो गंगा और अन्य नदियाँ भी यातायात के मार्ग थीं।
   अशोक के अभिलेखों के मिलने के स्थान महत्वपूर्ण राजमार्गों पर पड़ते हैं। इससे लक्षित होता है कि देश का जो आबाद हिस्सा मौर्यों के नियन्त्रण में था वही मुगलों के और शायद ईस्ट इंडिया कम्पनी के भी नियन्त्रण में रहा। मध्यकाल में आकर राजमार्गों के किनारे अधिकाधिक बस्तियाँ होने से और रकाबदार घोड़ो के प्रचलन से यातायात में उन्नति हुई। कम्पनी ने जो बन्दूक का प्रयोग किया उसका आयात 1830 से लगातार वाष्पशक्तिचालित जहाजों से होता रहा।
   ऐसा लगता है कि मौर्य शासकों को बहुत बड़ी जनसंख्या का सामना नहीं करना पड़ा होगा। किसी भी तरह मौर्य सेना में 6,50,000 से अधिक सिपाही नहीं थे। यदि मान लें कि आबादी की दस प्रतिशत भाग सेना में भर्ती हुआ तो गंगा मैदानों की कुल आबादी 65,00,000 से अधिक नहीं रही होगी। अशोक के अभिलेखों से पता चलता है कि उसका राज्यादेश पूर्वी छोर और दक्षिणी छोर के सिवा सारे देश में प्रचारित किया गया, लेकिन गहन राज्य-नियन्त्रण मध्य गंगा अंचल के बाहर कारगर नहीं हुआ होगा।
   मौर्य काल प्राचीन भारत में कर-प्रणाली का एक अद्भुत अध्याय है। कौटिल्य ने कृषकों, शिल्पियों और व्यापारियों से उगाहे जाने वाले बहुत-सारे करों का नामोल्लेख किया है। इन सारे करों का निर्धारण, वसूली और संग्रह के लिए एक दृढ़ और दक्ष संगठन की आवश्यकता थी। मौर्यों ने वसूली करने और ठीक से जमा रखने से अधिक महत्व कर-निर्धारण को दिया। समाहर्ता कर-निर्धारण का सर्वोच्च अधिकारी होता था और संनिधाता राजकीय कोषागार और भंडागार का संरक्षक होता था। राज्य को समाहर्ता के चलते हुए नुकसान की अपेक्षा संनिधाता के चलते हुए नुकसान को कम महत्व दिया जाता था। वास्तव में, कर-निर्धारण का ऐसा विशद संगठन पहली बार मौर्य काल में ही देखा जाता है। अर्थशास्त्र में उल्लिखित करों की लंबी सूची हृदय को छूने वाली है। यदि ये सारे कर वास्तव में उगाहे जाते होंगे तो प्रजा के पास निर्वाह के लिए नाममात्र बचता होगा।
   पुरालेखों के आधार पर हम जानते हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में भी राजकीय भंडार-घर होते थे, जिससे यह प्रकट होता है कि कर अनाज की शक्ल में भी वसूला जाता था और अनाज के इन भंडार-घरों से अकाल, सूखा आदि के समय स्थानीय लोगों को सहायता दी जाती थी।
   प्रतीत होता है कि मयूर, पर्वत और अर्धचन्द्र की छापवाली आहत रजत-मुद्राएँ मौर्य-साम्राज्य की मान्य मुद्राएँ थीं। ये मुद्राएँ भारी मात्रा में मिली हैं। निःसन्दहे, ये मुदाएँ कर की वसूली और अधिकारियों के वेतन भुगतान में सुविधाप्रद हुई होंगी और अपनी शुद्ध समरूपता के कारण व्यापक क्षेत्र में बाजार की लेन-देन में भी सुविधा के साथ चली होंगी।
   कला और वास्तुशिल्प में मौर्यां का योगदान बड़ा मूल्यवान है। पत्थर की इमारत बनाने का काम भारी पैमाने पर उन्होंने ही आरम्भ किया। मेगास्थनीज ने कहा है कि पाटलिपुत्र स्थित मौर्य राजप्रसाद उतना ही भव्य था जितना ईरान की राजधानी में बना राजप्रसाद। पत्थर के स्तम्भों और भूलमुंडों (stump) के टुकड़े आधुनिक पटना नगर के किनोर कुम्हरार में पाए गए हैं जो 80 स्तम्भों वाले विशाल भवन के अस्तित्व का संकेत देते हैं। इन अवशेषों से तो वैसी भव्यता का आभास नहीं मिलता है जैसी मेगास्थनीज ने बताई है, लेकिन वे इस बात का प्रमाण अवश्य देते हैं कि मौर्य शिल्पी पत्थर पर पालिश करने में कितने दक्ष थे। ये स्तम्भावशेष उतने ही चमकीले हैं जितने उत्तरी पालिशदार काले मृद्भांड। खदानों से पत्थर के बड़े-बड़े खंडों को ले जाना और सीधा खड़ा करने के बाद उन पर पालिश करना और नक्काशी करना अवश्य ही कठिन कार्य रहा होगा। यह सब इंजीनियरिंग का एक बड़ा चमत्कार लगता है। हर स्तम्भ बलुआ पत्थर के एक ही टुकड़े का बना है। केवल शीर्ष भाग स्तम्भों के ऊपर जोड़े गए हैं जिनमें तराशे गए सिंह और साँड विलक्षण वास्तुशिल्प के प्रमाण हैं। ये पालिशदार स्तम्भ देश भर मे जहाँ-तहाँ खड़े किए गए, जिससे प्रकट होता है कि इन्हें ढोकर ले जाने और पालिशदार बनाने में अपेक्षित तकनीकी ज्ञान सारे देश में फैला हुआ था। मौर्य शिल्पियों ने बौद्ध भिक्षुओं के निवास के लिए चट्टानो को काट कर गुहाएँ बनाने की परम्परा भी शुरू की। इसका सबसे पुराना उदाहरण है बराबर की गुफाएँ जो गया से 30 किलोमीटर दूरी पर है। बाद में इस प्रकार का गुहा-निर्माण पश्चिमी और दक्षिणी भारत में भी प्रचलित हुआ।

भौतिक संस्कृति का विस्तार और राज्य-पद्धति

  एक ओर मौर्यों ने पहली बार राज्य के सुसंगठित प्रशासनतन्त्र का निर्माण किया जो साम्राज्य के केन्द्रीय भाग में सक्रिय था और दूसरी ओर उनके साम्राज्य-विस्तार ने व्यापार और धर्मप्रचार के द्वार खोल दिए। लगता है कि प्रशासकों, व्यापारियों और जैन तथा बौद्ध भिक्षुओं ने जो सम्पर्कसूत्र जोड़े उनके फलस्वरूप गंगा के मैदान की भौतिक संस्कृति साम्राज्य के सीमान्त क्षेत्रों में भी फैल गई।
   गंगा मैदान की इस नई भौतिक संस्कृति के आधार थे - लोहे का प्रचुर प्रयोग, आहत मुद्राओं की बहुतायत, उत्तरी काला पालिशदार मृदभांड नाम से प्रसिद्ध मिट्टी के बर्तनों की भरमार, पकी इंर्टों और घेरदार कुओं का प्रचलन और सबसे ऊपर पूर्वोत्तर भारत के नगरों का उदय। एरियन नामक एक यूनानी लेखक के अनुसार नगरों की संख्या इतनी थी कि उन्हें गिन कर ठीक-ठीक बताया नहीं जा सकता है। इस प्रकार देखते हैं कि गंगा मैदानों में भौतिक संस्कृति मौर्य काल में बड़ी ही तेजी से विकसित हुई। दक्षिण बिहार में लौह अयस्क आसानी से उपलब्ध था, अतः लोहे के उपकरणों का प्रयोग खूब बढ़ा। इसी काल में मूठ वाली कुल्हाड़ियों, हँसिए और सम्भवतः फाल भी प्रचलित हुए। शस्त्रास्त्रों पर तो राज्य का एकाधिकार था, पर लोहे के अन्य औजार का प्रयोग किसी वर्ग में सीमति नहीं था। इनका इस्तेमाल और निर्माण गंगा के मैदान से साम्राज्य के सुदूर भागों में भी फैल गया होगा। मौर्यकाल में ही पूर्वोत्तर भारत में सर्वप्रथम पकाई हुई ईंट का प्रयोग हुआ। मौर्य काल में बनी पकी ईंटों की संरचनाएँ बिहार और उत्तर प्रदेश में पाई गई हैं। मकान ईंट के भी बनते थे और लकड़ी के भी। प्राचीन काल में घने पेड़-पौधों की बहुतायत के कारण इमारती लकड़ी खूब उपलब्ध थी। मेगास्थनीज ने मौर्य राजधानी पाटलिपुत्र में बने लकड़ी के भवनों का उल्लेख किया है। खुदान से मालूम होता है कि लकड़ी के लट्ठो का प्रयोग बाढ़ और बाहरी आक्रमण से बचाव के लिए एक महत्वपूर्ण रक्षा-बाँध बनाने में किया गया था। पकी ईंटों का प्रयोग साम्राज्य के दूरवर्ती-प्रान्तो में भी फैल गया। नम जलवायु और भारी वर्षा वाले क्षेत्रों में मिट्टी की या कच्ची ईंट की वैसी टिकाऊ और बड़ी-बड़ी इमारतें बनाना सम्भव नहीं था, जैसा कि शुष्क क्षेत्रों में पाते हैं। इसलिए पकी ईंट का प्रयोग एक महान् वरदान सिद्ध हुआ। इसके फलस्वरूप धीरे-धीरे साम्राज्य के विभिन्न भागों में शहर पनपने लगे। इसी प्रकार घेरदार कुएँ, जो सबसे पहले मौर्य काल में गंगा घाटी में सामने आए, साम्राज्य के केन्द्रीय भाग के बाहर भी फैल गए। चूँकि घेरदार कुओं से लोगों को घरेलू काम के लिए पानी मिल जाता था, इसलिए यह आवश्यक नहीं रहा कि बस्तियाँ नदी के किनारे ही हो। घनी आबादी वाली बस्तियों में ऐसे कुएँ जल-निकास खाई का भी काम करते थे।
   लगता है कि मध्य गंगा मैदान की भौतिक संस्कृति के तत्व, कुछ परिवर्तनों के साथ, उत्तरी बंगाल, कलिंग, आन्ध्र और कर्नाटक में भी पहुँचे। बाडंदेश में, जहाँ जिला बोगरा में मौर्य ब्राह्मी लिपि में महास्थान अभिलेख पाया गया है, वहीं दिनाजपुर जिले के बनगढ़ में उत्तरी काले पालिशदार मृद्भांड मिले हैं। ऐसे मृद्भांडों के टुकड़े पश्चिम बंगाल के चौबीस परगना जिले के चन्द्रकेतुगढ़ जैसे स्थानों में भी मिले हैं। उड़ीसा की शिशुपालगढ़ बस्तियों में भी गंगा क्षेत्र से सम्पर्क के लक्षण दिखाई देते हैं। ये बस्तियाँ मौर्य काल की ईसापूर्व तीसरी सदी की मानी जाती हैं और इनमें उत्तरी काले पालिशदार मृद्भांड के साथ-साथ लोहे के उपकरण और आहत मुद्राएँ मिली हैं। चूँकि शिशुपालगढ़ धौली और जौगदा के पास है, जहाँ भारत के पूर्वी समुद्रतट से गुजरने वाले प्राचीन राजमार्ग पर अशोक के अभिलेख पाए गए हैं, इसलिए कहा जा सकता है कि इस क्षेत्र में भौतिक संस्कृति मगध के साथ सम्पर्क के परिणाम स्वरूप पहुँची होगी। यह सम्पर्क ईसापूर्व चौथी सदी से ही आरम्भ हुआ होगा, जब कहा जाता है कि नन्दों ने कलिंग पर अधिकार किया था। लेकिन यह सम्पर्क ईसापूर्व तीसरी सदी में आकर कलिंग-विजय के बाद ही घना हुआ होगा। सम्भवतः कलिंग-विजय के बाद सांत्वना के तौर पर अशोक ने अपने साम्राज्य में मिलाई गई कुछ बस्तियों को समुन्नत किया हो।
   यद्यपि मौर्यकाल में आन्ध्र और कर्नाटक में कई स्थानों पर लोहे के औजार और हथियार पाए गए हैं, तथापि लोहे की उन्नत कारीगरी (टेक्नोलोजी) महापाषाण कालीन कारीगरों की देन है, जो अनेक प्रकार के बड़े-बड़े पत्थरों के शवाधान (दफनाने की जगह), गोलाकार, शवाधान सहित, बनाने के लिए मशहूर थे। लेकिन इनमें से कुछ स्थानों में अशोक के अभिलेख और ईसापूर्व तीसरी सदी के उत्तरी काले पालिशदार मृद्भांड के टुकड़े मिले हैं। उदाहणार्थ, आन्ध्र के अमरावती में तथा कर्नाटक के कई स्थानों में अशोक के अभिलेख पाए गए हैं। इसलिए ऐसा लगता है कि पूर्वी समुद्र तट से भौतिक संस्कृति के तत्व मौर्य सम्पर्कों के जरिए निचले दकन पठार से प्रविष्ट हुए।
   मौर्य सम्पर्कों के जरिए ही इस्पात बनाने की कला देश के कुछ भागों मे फैल गई होगी। 200 ई. पू. के आस-पास या इससे भी पहले की इस्पात की वस्तुएँ मध्य गंगा के मैदानों में पाई गई हैं। इस्पात के प्रचार से कलिंग में जंगल की सफाई और खेती के सुधरे तरीकों का इस्तेमाल होने लगा होगा, और इसके फलस्वरूप उस क्षेत्र में चेदि राज्य के उदय के लिए उपयुक्त स्थिति उत्पन्न हुई होगी। यद्यपि दकन में सातवाहन ईसापूर्व पहली सदी में ही सत्ता में आए फिर भी कुछ हद तक उनका साम्राज्य मौर्य साम्राज्य का ही एक उभार था। सातवाहनों ने मौर्यों की कुछ प्रशासनिक इकाइयों को अपनाया। उनके राज्य में कई विषयों में मौर्य प्रणाली का अनुकरण किया गया।
   प्रायद्वीपीय भारत में राज्य स्थापित करने की प्रेरणा न केवल चेदियों और सातवाहनों के मामले में बल्कि चेरों (करालपुत्रों), चोलों और पाण्ड्यों के मामले में भी मौर्यों से ही मिली है। अशोक के अभिलेखों के अनुसार, ताम्रपर्णी या श्रीलंका के जनों और सतियपुतों सहित उपर्युक्त तीनों जन मौर्य साम्राज्य के सीमाप्रान्तों में बसते थे। इसलिए उन सबों के राज्य मौर्य राज्य मिलते-जुलते थे। मौर्य राजधानी में आए मेगास्थनीज को पाण्ड्यों की जानकारी थी। अशोक अपने को ‘देवों का प्यारा’ कहता था, यही उपाधि तमिल में अनुदित करके संगम में उल्लिखित राजाओं ने धारण की।
   लगभग 300 ई. पू. से बांग्लादेश, उड़ीसा, आन्ध्र और कर्नाटक के कई भागों में अभिलेखों का पाया जाना तथा कभी-कभी उत्तरी काले पालिशदार मृद्भांड के टुकड़ों और आहत मुद्राओं का मिलना इन सबों से संकेत मिलता है कि मौर्य काल में मध्य गंगा मैदान की संस्कृति के तत्वों को दूर-दूर तक फैलाने की चेष्टा की गई। लगता है कि ऐसी कार्रवाई कौटिल्य के आदेशानुसार की गई होगी। कौटिल्य ने परामर्श दिया है कि कृषकों की अर्थात वैश्यों की सहायता से तथा घनी आबादी वाले इलाकों से मंगाए गए शूद्र श्रमिकों की सहायता से नई-नई बस्तियाँ बसाई जानी चाहिए। परती जमीन को तोड़ने के वास्ते नए किसानों को कर से छुटकारा दिया जाता था और मवेशी, बीज और धन भी दिया जाता था। राज्य ने यह नीति इस आशा से अपनाई कि इस प्रकार जो कुछ लगाया जाएगा उसका प्रतिफल अवश्य मिलेगा। ऐसी बस्तियाँ उन इलाकों में आवश्यक थीं जहाँ के लोग लोहे के फाल से परिचित नहीं थे। इस नीति के फलस्वरूप विशाल क्षेत्र में खेत और बस्ती का विस्तार हुआ।
   पूरब में छोटा नागपुर और पश्चिम में विन्ध्य के बीच फैले मध्य-भारतीय कबायली इलाके में गंगा मैदान की भौतिक संस्कृति को पहुँचाने में ये मौर्य नगर कहां तक सहायक हुए यह कहना कठिन है। पर इतना तो स्पष्ट है कि अशोक ने कबायली लोगों से निकट सम्पर्क बनाए रखा और उन्हें धर्म का पालन करने के लिए प्रोत्साहित किया। अशोक द्वारा नियुक्त धर्ममहामात्रों के साथ उनके सम्पर्क से उन्हें गंगा मैदान की उच्च संस्कृति के मूल तत्वों को आत्मसात् करने की प्रेरणा अवश्य मिली होगी। इस अर्थ में अशोक ने संस्कृति सक्रमण की सुविचारित और सुव्यवस्थित नीति चलाई। उसने कहा है कि धर्म का प्रचार होने से मानव देवताओं में मिल जाएँगे। इसका आशय यह है कि कबायली और अन्य लोग स्थायी रूप से बसने की और कर चुकाने वाले किसानों के समाज की रीति अपनाएंगे और माता-पिता और राजा के प्रभुत्व के प्रति तथा उस प्रभुत्व के सहायक भिक्षुओं, पुरोहितों और अधिकारियों के प्रति आदर भाव रखेंगे। उसकी यह नीति सफल हुई। उसने कहा है कि शिकारियों और मछुआरों ने हिंसा का त्याग करके धम्म को अपनाया। इसका अर्थ यह हुआ कि उन्होंने स्थिरवासी कृषकों का धन्धा अपनाया।

मौर्य साम्राज्य के पतन के कारण

   मगध साम्राज्य युद्ध पर युद्ध करते प्रबल होता गया, जिसकी चरम परिणति कलिंग-विजय है। लेकिन 232 ई. पू. मे अशोक के तिरोहित होते ही इसका विघटन शुरू हो गया। मगध साम्राज्य के हृास और पतन के कई कारण प्रतीत होते हैं।

ब्राह्मणों की प्रतिक्रिया

   अशोक की नीति के चलते ब्राह्मणों में प्रतिक्रिया हुई इसमें सन्देह नहीं कि अशोक की नीति में सहिष्णुता थी और उसने लोगों से ब्राह्मणों का भी आदर करने को कहा। परन्तु उसने पशु-पक्षियों के वध को निषिद्ध कर दिया और महिलाओं में प्रचलित कर्मकांडीय अनुष्ठानों की खिल्ली उड़ाई। स्वभावतः इससे ब्राह्मणों की आय घटी। बौद्ध धर्म के और अशोक के यज्ञविरोधि रूख से ब्राह्मणों को भारी हानि हुई, क्योंकि नाना प्रकार के यज्ञों में मिलने वाली दान-दक्षिणा पर ही तो वे जीते थे। अतः अशोक की नीति भले ही सहनशील हो, ब्राह्मणों में उसके प्रति विद्वेष की भावना जगने लगी। वे वास्तव में ऐसी नीति चाहते थे जो उनके पक्ष में हो और तत्कालीन हितों और विशेषाधिकारों का समर्थन करे। मौर्य साम्राज्य के खंडहर पर खड़े हुए कुछ नए राज्यों के शासक ब्राह्मण हुए। मध्य प्रदेश में और उससे पूरब मौर्य साम्राज्य के अवशेषों पर शासन करने वाले शुंग और कण्व ब्राह्मण थे। इसी प्रकार पश्चिम दकन और आन्ध्र में चिरस्थायी राज्य स्थापित करने वाले सातवाहन भी अपने को ब्राह्मण मानते थे। इन ब्राह्मण राजाओं ने वैदिक यज्ञ किए, जिनकी अशोक ने उपेक्षा की।

वित्तीय संकट

   सेना पर और प्रशासनिक अधिकारियों पर होने वाले भारी खर्च के बोझ से मौर्य साम्राज्य के सामने वित्तीय संकट खड़ा हो गया। जहाँ तक हमें मालूम है प्राचीन काल में सबसे विशाल सेना मौर्यों की थी और सबसे बड़ा प्रशासन-तन्त्र भी उन्हीं का था। प्रजा पर तरह-तरह के कर थोपने के बावजूद, इतने विशाल ऊपरी ढाँचे को बनाए रखना बड़ा ही कठिन था। लगता है कि अशोक ने बौद्ध भिक्षुओं को इतना दान दिया कि राजकोष ही खाली हो गया। अन्तिम अवस्था में अपने खर्च को पूरा करने के लिए मौर्यों को सोने की देवप्रतिमाएँ तक गलानी पडीं।

दमनकारी शासन

   साम्राज्य के टूटने का एक महत्वपूर्ण कारण था प्रान्तों में दमनकारी शासन। बिन्दुसार के शासन-काल में तक्षशिला के नागरिकों ने दुष्टामात्यों अर्थात् शैतान अधिकारियों के कुशासन की कड़ी शिकायतें की थीं। अशोक की नियुक्ति होने पर नागरिकों की शिकायतें दूर हुईं। पर जब अशोक सम्राट हो गया तब फिर उसी नगर से वैसी ही शिकायत आ गई। अशोक के कलिंग अभिलेख से प्रकट होता है कि प्रान्तों में हो रहे अत्याचारों से वह बड़ा चिन्तित था और इसलिए महामात्रों को आदेश दिया कि समुचित कारण के बिना नागरिकों को सताएँ नहीं। इसी दृष्टि से उसने तोशाली (कलिंग स्थित), उज्जैन और तक्षशिला के अधिकारियों के चक्रवत् स्थानान्तरण की परिपाटी चलाई। उसने स्वयं 256 रातें धर्मयात्रा पर बिताईं ताकि इस क्रम में प्रशासन की देखभाल भी की जाए। पर इतना सारा होने पर भी दूर के प्रान्तों में दमन का अन्त न हुआ और अशोक के अवकाश ग्रहण करते ही तक्षशिला को साम्राज्य का जुआ-काठी फेंक डालने में तनिक भी देर न लगी।

दूरवर्ती क्षेत्र में नए ज्ञान की पहुँच

   हम देख चुके हैं कि किस प्रकार मगध अपनी कतिपय मूलभूत भौतिक उत्कृष्टताओं के कारण फूलता-फलता गया। मगध साम्राज्य के विस्तार के फलस्वरूप ज्यों ही भौतिक संस्कृति के ये तत्व मध्य भारत, दकन और कलिंग पहुँच गए, त्यों ही गंगा का मैदान, जो साम्राज्य का हृदय-स्थल था, अपनी सारी उत्कृष्टता खो बैठा। ज्यों-ज्यों किनारे के प्रान्तों में लोहे के औजारों का प्रयोग बढ़ता गया त्यों-त्यों मौर्य साम्राज्य का हृास और पतन होता गया। मगध से प्राप्त भौतिक संस्कृति की बदौलत नए-नए राज्य स्थापित और विकसित होते गए। इससे स्पष्ट हो जाता है कि मध्य भारत में शुंगों और कण्वों का, कलिंग में चेदियों का और दकन में सातवाहनों का उदय कैसे हुआ।

पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त की उपेक्षा और चीन की महादीवार

  अशोक देश और विदेशों में मुख्यतः धर्म-प्रचार के काम में ही व्यस्त रहा, अतः ध्यान नहीं दे सका कि पश्चिमोत्तर सीमावर्ती दर्रे की रक्षा कैसे हो। ईसा-पूर्व तीसरी सदी में मध्य एशिया में कबीलों की जो गतिविधि थी उसे देखते हुए, उस दर्रे की ओर नजर रखना जरूरी हो गया था। सीथियन शक लोग निरन्तर जहाँ-तहाँ भटक रहे थे। अपने घोड़ों पर भरोसा रखने वाले खानाबदोश सीथियन शक चीन और भारत के स्थायी साम्राज्यों के लिए गंभीर खतरा बने हुए थे। चीन के राजा शीह हुआँग ती (247-210) ने इन शकों के हमले से अपने साम्राज्य की रक्षा के लिए लगभग 220 ई. पू. में चीनी महादीवार बनवाई। अशोक ने ऐसा कोई उपाय नहीं किया। स्वभावतः जब सीथियन शक बाहर की ओर बढ़े तो उन्होंने पार्थिअनों, शकों और यूनानियों को भारत की ओर ढकेल दिया। यूनानियों ने उत्तर अफगानिस्तान में बैक्ट्रिया नाम का एक राज्य स्थापित किया था। सर्वप्रथम उन्होंने ही 206 ई. पू. में भारत पर आक्रमण किया। इसके बाद आक्रमणों का तांता लग गया और यह सिलसिला ईस्वी सन् के आरम्भ तक जारी रहा।
   मौर्य साम्राज्य को पुष्यमित्र शुंग ने 185 ई. पू. में अन्तिम रूप से नष्ट कर दिया। ब्राह्मण होते हुए भी वह अन्तिम मौर्य राजा बृहद्रथ का एक सेनापति था। कहा जाता है कि उसने लोगो के सामने बृहद्रथ को मार डाला और बलपूर्वक पाटलिपुत्र का राज्यसिंहासन हड़प लिया। शुंगवंशियों ने पाटलिपुत्र और मध्य भारत में शासन किया और ब्राह्मणमार्गीय जीवन पद्धति का पुनरारम्भ दिखाने के लिए कई वैदिक यज्ञ किए। कहा जाता है कि उन्होंने बौद्धों को सताया भी। उनकी जगह कण्ववंशी आए और वे भी ब्राह्मण थे।