धातुकाल
धातुकाल:-
धातु काल से तात्पर्य यह है कि इस काल में मानव पत्थर के साथ साथ धातुओं के उपयोग से भी परिचित हो गया था। सर्वप्रथम मानव ने पत्थर के साथ तांबे का प्रयोग और किया इसीलिए इस काल को ताम्राश्म काल कहा जाता है। तांबे के उपयोग के बाद मानव ने क्रमश कांस्य एवं लोहे का प्रयोग किया। इसीलिए इन्हें कांस्य एवं लौहयुग कहते हैं।
पाषाण काल के अन्तिम दिनो में ही धातुओं का आविष्कार और उनका सीमित उपयोग प्रारम्भ हो गया था। प्रस्तर-युग में पड़े हुए मानव को धातुओं का ज्ञान धीरे-धीरे प्राप्त होने लगा। भोजन पकाने के लिए पत्थरों की बनाई हुई भट्ठी अथवा चूल्हे का उपयोग मनुष्यों ने जान लिया था। ऐसा प्रतीत होता है कि भट्ठी बनाने के काम में लाये हुये धातु-मिश्रित पत्थरों से भोजन पकाते समय पिघली हुई दशा में जो धातु निकल पड़ता था, उसी से उन्हें धातुओं के अस्तित्व का पता चला और फिर ठोक-पीटकर उस धातु को पका रूप देकर उन्होंने जानवरों के शिकार में उसका उपयोग किया। इस प्रकार के प्रयोग से उसने अनुभव किया कि पत्थर से निर्मित औजारों की अपेक्षा धातुओं के औजार अधिक उपयोगी और सुविधाजनक हैं। अतः उसने धातुओं को ही प्रधानतः अपनाना आरम्भ कर दिया। धातुओं में मनुष्य को सबसे पहले सोने का पता लगा। इसकी चमक में एक प्रबल आर्कषण था। इसकी खोज में मनुष्य प्रायः इधर से उधर घूमता रहा। परन्तु सोने का उपयोग केवल आभूषण के लिए होता था, इसलिए मनुष्य के साधारण जीवन के विस्तार में इससे कुछ सहायता नहीं मिली। भारतवर्ष सोने के सबसे पुराने उद्रमों में से है, किन्तु इससे अपनी आवश्यकता की पूर्ति न होते देख मनुष्य ने अधिक मात्रा में मिलने वाली और उपयोगी धातुओं की खोज की। पाषाण काल के बाद उत्तर भारत में ताम्रकाल, किन्तु दक्षिण में लौह-काल प्रारम्भ होता है। इस देश के इतिहास में शुद्ध कांस्य-काल का अभाव-सा है। केवल सन्धि में इस काल की कुछ विशेषताएँ मिलती हैं। ताँबे के साथ-साथ चाँदी का भी आविष्कार हो गया था।
इस काल की संस्कृति में कुछ बातें उल्लेखनीय हैं। धातुओं के उपयोग ने मनुष्य की शक्ति और योग्यता को बढ़ाया। उसके औजार और हथियार पहले की अपेक्षा अधिक कड़े, तीक्ष्ण और स्थायी बनने लगे। एतत्कालीन पदार्थों के देखने से मालूम होता है कि इस काल के लोग केवल उपयोगिता पर ही ध्यान न देते थे, अपितु सौन्दर्य और कला पर भी पर्याप्त ध्यान देते थे। हथियारों की मुंठियों पर स्वस्तिक और क्रास बने मिलते हैं, जो मनुष्य जाति के सबसे पुराने धर्म, कल्याण और शोभा के चिन्ह हैं। कवच के नमूने भी पाये जाते हैं जिनसे तंत्र, मंत्र जादू-टोने में विश्वास प्रकट होता है। मृतक संस्कार प्रायः दाह‘-क्रिया से होता था, यद्यपि गाड़ने की प्रथा अब भी जारी थी। धातुओं के आविष्कार से आभूषणों के बनाने में भी उन्नति हुई। सोने के विजापट, शिरोभूषण, मुकुट, हार, कलश आदि बनते थे और चाँदी, टिन, सीसा आदि धातुओं का उपयोग भी गहनों के बनाने में होने लगा।
धातुओं का उपयोग
अनेक शताब्दियों बाद भारत में संभवतः उत्तर-प्रस्तर-युगीय मनुष्य ने धातुओं का प्रयोग जाना। स्वर्ण का ज्ञान शायद उन्हें सबसे पहले हुआ परन्तु इस धातु का उपयोग केवल आभूषण बनाने में होता था। उसके हरबे-हथियार अन्य कठिन धातुओं के बने होते थे। अनेक प्राचीन स्थलों में मिले अवशेषों से ज्ञात होता है कि दक्षिण भारत में तो पत्थर का स्थान सीधे लोहे ने ले लिया, परंतु उत्तर भारत में फरसे, तलवार, बर्छे, खंजर आदि पहले तो ताँबे के बने, फिर से लोहे के। प्रायः सारे उत्तर-भारत में हुगली से सिन्धुनद और हिमालय से कानपुर तक, ताँबे के बने हथियारों के ढेर मिले हैं। जिन युगों में इन धातुओं का उपयोग अधिकाधिक होने लगा था उसको लौह या ताम्रयुग कहते हैं। यह स्मरण रखने की बात है कि सिन्धु को छोड़कर भारत में और कहीं उत्तर-प्रस्तर-युग और लौहयुग के बीच कोई काँसे का युग नहीं हुआ। अन्य देशों में एक काँसा-युग होने का भी पता चलता है। काँसा, ताँबे और टिन का मिश्रण होने के कारण, कठिन होता है और इसी से हथियारों के विशिष्ट योग्य होता है। परन्तु भारतीय मनुष्य ने इसका उपयोग उस काल में नहीं किया। इस धातु के बने जो थोड़े हथियार जबलपुर में मिले हैं विद्वानों की राय में वे या तो प्रयोगार्थ ;म्गचमतपउमदजंसद्ध प्रस्तुत किये गये या विदेशी हैं। कटोरे और अन्य पात्र-पदार्थ जो दक्षिण भारत के कब्रगाहों में मिले हैं केवल श्रीमानों के घरेलू इस्तेमाल के लिए हैं। उनसे यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि वे उस युग के हैं जब हरबे-हथियार साधारण रूप से काँसे के बनने लगे थे। अध्ययन हेतु धातुकाल को चार भागों में विभाजित किया जा सकता है।
धातु काल को कार भागो मे बांटा गया है -
1. ताम्राश्म युग 2. ताम्र युग 3.कांस्य युग 4. लौहयुग
|
|