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उत्तरवैदिक काल : वर्ण-व्यवस्था और राज्य का प्रारंभ
उत्तर वैदिक काल में आर्यजनों का विस्तारउत्तर वैदिक काल का इतिहास मुख्यतः उन वैदिक ग्रन्थों पर आधारित है जिनकी रचना ऋग्वैदिक काल के बाद हुई। वैदिक सूक्तों या मन्त्रों के संग्रह को संहिता कहते हैं। ऋग्वेद-संहिता सबसे पुराना वैदिक ग्रन्थ है। इसी के आधार पर हमने आरम्भिक वैदिक युग का वर्णन किया है। गाने के लिए ऋग्वैदिक सूक्तों को चुनकर धुन में बाँधा गया है और इस पुनर्विन्यस्त संकलन का नाम सामवेदसंहिता पड़ा। ऋग्वेदोत्तर काल में सामवेद के अतिरिक्त और दो संकलन तैयार किए गए। वे हैं यजुर्वेदसंहिता और अथर्ववेदसंहिता। यजुर्वेद में केवल ऋचाएँ ही नहीं, उन्हें गाते समय किए जाने वाले अनुष्ठान भी दिए गए हैं। इन अनुष्ठान से उस सामाजिक और राजनैतिक परिस्थिति का परिचय मिलता है जिस परिस्थिति में इन अनुष्ठानों का उद्भव हुआ। अथर्ववेद में विपत्तियों और व्याधियों के निवारण के लिए तन्त्र-मन्त्र संगृहित हैं। इसमें आए तथ्यों से आर्येतर लोगों के विश्वासों और रूढियों का पता लगता है। वैदिक संहिताओं के बाद एक विशेष प्रकार के कई ग्रन्थ लिखे गए जिन्हें ब्राह्मण कहते हैं। इनमें वैदिक अनुष्ठान की विधियाँ संगृहित हैं और उन अनुष्ठानों की सामाजिक एवं धार्मिक व्याख्या भी की गई है। ये सभी उत्तरकालीन वैदिक ग्रन्थ लगभग 1000-600 ई. पू. में उत्तरी गंगा मैदान में रचे गए। उत्खनन और अनुसन्धान के फलस्वरूप, इसी काल और इसी क्षेत्र के लगभग 700 ई. पू. स्थल प्रकाश में आए हैं, जहाँ सबसे पहले बस्तियाँ हुई थीं। इन्हें चित्रित धूसर मृद्भांड (पी. जी. डब्ल्यू) स्थल कहते हैं, क्योंकि यहाँ के निवासी मिट्टी के चित्रित और भूरे रंग के कटोरों और थालियों का प्रयोग करते थे। वे लोहे के हथियारों का भी प्रयोग करते थे। उत्तरकालीन वैदिक ग्रन्थ और चित्रित धूसर मृद्भांड लौह अवस्था के पुरातत्व, इन दोनों के संयुक्त साक्ष्य के आधार पर हमें यह आभास मिलता है कि ईसापूर्व प्रथम सहस्त्राब्दी के पूर्वार्द्ध में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में और पंजाब, हरियाणा तथा राजस्थान के संलग्न क्षेत्रों में बसने वाले लोगों का जीवन कैसा था।उक्त ग्रन्थों से प्रकट होता है कि पंजाब से आर्यजन गंगा-यमुना दोआब के अन्तर्गत संपूर्ण पश्चिमी उत्तर प्रदेश में फैल गए थे। दो प्रमुख कबीले भारत और पुरू एक होकर कुरू नाम से विदित हुए। आरम्भ में वे लोग उक्त दोआब के ठीक छोर पर सरस्वती और दृषद्वती नदियों के प्रदेश में बसे। शीघ्र ही कुरूओं ने दिल्ली और दोआब के ऊपरी भाग पर अधिकार कर लिया, जो कुरूक्षेत्र नाम से प्रसिद्ध हुआ। धीरे-धीरे वे पंचालों से भी मिल गए जो दोआब के मध्य भाग पर अधिकार किए हुए थे। इस प्रकार कुरू-पंचालों की सत्ता दिल्ली पर और दोआब के ऊपरी भाग और मध्य भागों पर फैल गई। तब उन्होंने हस्तिनापुर को अपनी राजधानी बनाया जो मेरठ जिले में पड़ता है। कुरू-कुल का इतिहास भारत-युद्ध को लेकर मशहूर है जिसपर महाभारत नाम का विख्यात महाकाव्य है। यह भारत युद्ध माना जाता है कि 950 ई. पू. के आस-पास कौरवों और पांडवों के बीच हुआ था, हालांकि ये दोनों कुरूकुल के ही थे। इस युद्ध के फलस्वरूप वस्तुतः सारे कुरूवंशियों का नाश हो गया। हस्तिनापुर में किए गए उत्खननों से, जिनकी तिथि 900 ई. पू. से 500 ई. पू. की अवधि आँकी जा सकती है, की बस्तियों का और नगर जीवन के धुंधले आरम्भ का पता चलता है। किन्तु महाभारत में हस्तिनापुर का जो वर्णन है उससे इसका कोई भी मेल नहीं है, क्योंकि इस महाकाव्य की रचना बहुत बाद में ईसा की चौथी सदी के आसपास हुई है, जब भौतिक जीवन में बहुत उन्नति हो चुकी थी। उत्तर वैदिक काल में लोग पकाई हुई ईंट का प्रयोग शायद ही जानते थे। हस्तिनपुर की खुदाई में जो कच्ची संरचनाएँ मिली है वे न भव्य ही कही जा सकती हैं, न टिकाऊ ही। प्राचीन कथाओं के अनुसार हम जानते हैं कि हस्तिनापुर बाढ़ में बह गया और कुरूवंश में जो जीवित रहे वे इलाहाबाद के पास कौशाम्बी जाकर बस गए। आज के बरेली, बदायूँ और फर्रूखाबाद जिलों में फैला पंचाल राज्य अपने दार्शनिक राजाओं और तत्वज्ञानी ब्राह्मणों को लेकर विख्यात था। उत्तर वैदिक काल का अन्त होते-होते 600 ई. पू. के आसपास वैदिक जन दोआब से पूरब की ओर पूर्वी उत्तर प्रदेश के कोसल और उत्तरी बिहार के विदेह में फैले । यद्यपि कोसल राम की कथा से जुड़ा है, फिर भी वैदिक साहित्य में इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता है । इन वैदिक लोगों को पूर्वी उत्तर प्रदेश और उत्तरी बिहार में ऐसे लोगों का सामना करना पड़ा जो ताँबे के औजारों और काले और लाल मृद्भांडों का प्रयोग करते थे। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इनका सामना सम्भवतः उन लोगों से हुआ जो ताँबे के औजारों और गेरूवे या लाल रंग के मृद्भांडों का प्रयोग करते थे। उन्हें सम्भवतः ऐसे लोगों की भी वस्तियाँ जहाँ-तहाँ मिलीं जो काले और लाल मृद्भांडों का प्रयोग करते थे। कहा जाता है कि कुछ स्थानों पर उनका मुकाबला उत्तर हड़प्पाई संस्कृति को अपनाने वाले लोगों से भी हुआ, परन्तु लगता है कि ये लोग मिश्रित संस्कृति वाले थे, जिस संस्कृति को शुद्ध हड़प्पाई नहीं कह सकते हैं। उत्तर वैदिक लोगों के शत्रु चाहे जो भी रहे हों उनका किसी भी बड़े और संलग्न क्षेत्र पर जमाव नहीं था और उत्तरी गंगा मैदान में उनकी संख्या भी बहुत अधिक नहीं थी। विस्तार के दूसरे दौर में वैदिक लोग इसलिए सफल हुए कि उनके पास लोहे के हथियार और अश्वचालित रथ थे। चित्रित धूसर मृदभांड-लौहावस्था संस्कृति और उत्तर वैदिक अर्थव्यवस्थालगभग 1000 ई. पू. से पाकिस्तान के गन्धार क्षेत्र में लोहे का प्रयोग होने लगा। मृतकों के साथ कब्रों में गाढ़े गए लोहे के औजार भारी मात्रा में खुदाई से निकले हैं। ऐसे औजार बलूचिस्तान में भी मिले हैं। लगभग इसी काल में पूर्वी पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश राजस्थान में भी लोहे का प्रयोग पाया गया है। खुदाई से ज्ञात होता है कि तीर के नोक, बरछे के फाल आदि लौहास्त्रों का प्रयोग लगभग 800 ई. पू. से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आम तौर से होने लगा था। लेहे के इन हथियारों से वैदिक लोगों ने ऊपरी देआब में सामने आए अपने बचे-खुचे शत्रुओं को परास्त कर दिया होगा। ऊपरी गंगा मैदानों के जंगलों को साफ करने में लोहे की कुल्हाड़ी से काम लिया गया होगा, हालाँकि वर्षा केवल 35 सेन्टीमीटर से 65 सेन्टीमीटर तक होने के कारण ये जंगल ज्यादा घने नहीं रहे होंगे। वैदिक काल के अन्तिम दौर में लोहे का ज्ञान पूर्वी उत्तर प्रदेश और विदेह में फैल गया था। इन प्रदेशों में जो सबसे पुराने लौहास्त्र पाए गए हैं वे ईसापूर्व सातवीं सदी के हैं और उत्तर वैदिक ग्रन्थों में इस धातु को श्याम या कृष्ण अयस् कहा गया है।यद्यपि लोहे के कृषि औजार बहुत ही कम पाए गए हैं, तथापि इसमें सन्देह नहीं कि उत्तर वैदिक काल के लोगों की मुख्य जीविका खेती हो चली थी। वैदिकग्रन्थों में छह, आठ, बारह और चौबीस तक बैल में जोते जाने की चर्चा है। इसमें कुछ अत्युक्ति हो सकती है। जुताई लकड़ी के फाल वाले हल से होती थी, जिसमें ऊपरी गंगा मैदानों की हल्की मिट्टी में सम्भवतः काम लिया जा सकता था। यज्ञों में पशु बलि के प्रचलन के कारण बैल पर्याप्त संख्या में उपलब्ध नहीं रहे होंगे। इसलिए खेती आरम्भिक अवस्था में थी, किन्तु इसके व्यापक प्रचलन में संदेह नहीं है। शतपथब्राम्हण में हल सम्बन्धी अनुष्ठान का लम्बा वर्णन आया है। कहा गया है कि सीता के पिता और विदेह के राजा जनक ने हल चलाया था। उन दिनों राजा और राजकुमार भी शारीरिक श्रम करने में हिचकिचाते नहीं थे। कृष्ण का भाई बलराम हलधर कहलाता था क्योंकि हल उसका हथियार था। उत्तर वैदिक काल में हल चलाना उच्च वर्णां के लिए वर्जित हो गया। वैदिक काल के लोग जौ तो उपजाते ही रहे, पर इस काल में चावल और गेहूँ उनकी मुख्य फसलें हो गईं। बाद में चलकर गेहूँ पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुख्य खाद्य हो गया। वैदिक लोगों को चावल से पश्चिम सबसे पहले दोआब में हुआ। वैदिक ग्रन्थों में इसका नाम व्रीहि है और इसका अवशेष जो हस्तिनापुर में मिला है वह ईसापूर्व आठवीं सदी का है। अनुष्ठानों में चावल के प्रयोग का विधान है, पर गेहूँ के प्रयोग का कदाचित् ही। उत्तर वैदिक काल के लोग कई प्रकार के तेलहन भी पैदा करते थे। उत्तर वैदिक काल में भी बहुत प्रकार की कलाओं और शिल्पों का उदय हुआ। हमें लुहारों और धातुकारों के बारे में जानकारी मिलती है, अवश्य ही वे लोग 1000 ई. पू. के आसपास से कुछ न कुछ लोहे का काम करते रहे होंगे। 1000 ई. पू. से पूर्व काल के ताँबे के बहुत सारे औजार जो पश्चिमी उत्तर प्रदेश और बिहार में मिले हैं उनसे प्रकट होता है कि वैदिक और वैदिकेत्तर दोनों समाजों में ताम्रशिल्पी थे। वैदिक काल के लोग सम्भवतः राजस्थान की खेत्री की ताँबे की खानों का उपयोग करते थे। जो भी हो, वैदिक काल के लोगों ने जिन धातुओं का प्रयोग किया उनमें ताँबा पहला रहा होगा। ताँबे की वस्तुएँ चित्रित धूसर मृदभांड स्थलों में पाई गईं हैं। इन वस्तुओं का उपयोग मुख्यतः लड़ाई और शिकार तथा आभूषण के रूप में भी किया जाता था। बुनाई केवल स्त्रियाँ करती थीं, किन्तु यह काम बड़े पैमाने पर होता था। चमड़े, मिट्टी और लकड़ी के शिल्पों में भारी प्रगति हुई। उत्तर वैदिक काल के लोग चार प्रकार के मृदभांडों से परिचित थे - काला और लाल मृदभांड, काली पोत वाले मृदभांड, चित्रित धूसर मृदभांड और लाल मृदभांड। इनमें अन्तिम प्रकार का मृदभांड उनके बीच सबसे अधिक प्रचलित था और लगभग समूचे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पाया गया है। लेकिन चित्रित धूसर मृदभांड उनके सर्वोपरि वैशिष्ट्य सूचक हैं। इनमें कटोरे और थालियाँ मिली हैं जिनका व्यवहार शायद उदीयमान उच्च वर्णों के लोग धार्मिक अनुष्ठानों में या भोजन में या दोनों काम में करते थे। चित्रित धूसर मृदभांड स्तरों में जो काँच की निधियाँ और चूडियाँ मिली हैं उनका उपयोग प्रतिष्ठावर्धक वस्तुओं के रूप में इने-गिने लोग ही करते होंगे। कुल मिलाकर वैदिक ग्रन्थ और उत्खनन दोनों से शिल्प वस्तुओं के विशेषीकृत उत्पादन का संकेत मिलता है। उत्तर वैदिक ग्रन्थों में स्वर्णकारों या आभूषण निर्माताओं का भी उल्लेख है, जो सम्भवतः समाज के सम्पन्न वर्ग की आवश्यकता की पूर्ति करते होंगे। खेती और विविध शिल्पों की बदौलत अब उत्तर वैदिक काल के लोग स्थायी जीवन अपनाने में समर्थ हो गये। उत्खननों और अनुसन्धानों से हमें कुछ आभास मिलता है कि उत्तर वैदिक काल की बस्तियाँ कैसी थीं। चित्रित धूसर मृदभांड स्थल न केवल कुरूपंचाल क्षेत्र अर्थात् पश्चिमी उत्तर प्रदेश और दिल्ली में ही व्यापक रूप से फैले पाए गए हैं बल्कि मद्र क्षेत्र अर्थात् पंजाब और हरियाणा के संलग्न भागों में और मत्स्य क्षेत्र अर्थात राजस्थान के संलग्न भागों में भी मिले हैं। इन स्थलों की संख्या कुल मिलाकर 700 के करीब हो सकती है जो अधिकतर ऊपरी गंगा घाटी में पड़ते हैं। इनमें इने-गिने स्थलों का ही उत्खनन हो पाया है, जैसे हस्तिनापुर, अतरंजी खेड़ा, जोखेड़ा और नोह। चूँकि बस्ती के भौतिक अवशेषों का जमाव एक मीटर तक है, इसलिए मालूम पड़ता है कि ये बस्तियाँ एक से तीन सदियों तक टिकी रही होगी। अधिकतर स्थल पूर्णतः नए वास के थे, जहाँ ठीक पहले कोई नही बसे थे। लोग कच्ची ईंटों के घरों में या खम्भों पर टिके नरकुल और मिट्टी के घरों में रहते थे। संरचनाएँ तो निम्न कोटि की हैं फिर भी स्थलों में पाए गए चूल्हों और अनाजों (धान) से प्रकट होता है कि चित्रित धूसर मृदभांड् काल के लोग, जो और कोई नहीं उत्तर वैदिक लोग ही हैं, कृषिजीवी और स्थिरवासी थे। लेकिन चूँकि किसान लोग काठ के फाल वाले हल से खेती करते थे इसलिए वे इतना अन्न नहीं उपजा सकते थे कि खेती से भिन्न व्यवसायों में लगे लोगों की भी आवश्यकता पूरी कर सकें। अतः किसान लोग नगरों के उदय में हाथ नहीं बँटा सके। उत्तर वैदिक ग्रन्थों में नगर शब्द आया तो है पर उत्तर वैदिक काल के अन्तिम दौर में आकर हम नगरों के आरम्भ का मन्द आभास ही पाते हैं। हस्तिनापुर और कौशाम्बी (इलाहाबाद के पास) तो वैदिककाल के अन्त के महज गर्भावस्था वाले नगर थे। इन्हें आद्य नगरीय स्थल (प्रोटो-अर्बन साइट) ही कहा जा सकता है। वैदिक ग्रन्थों में समुद्र और समुद्र यात्रा की भी चर्चा है। इससे किसी न किसी तरह के वाणिज्य का संकेत मिलता है, जिसे नई-नई कलाओं और शिल्पों के उदय से बल मिला होगा। कुल मिलाकर उत्तर वैदिक अवस्था में लोगों के भौतिक जीवन में भारी उन्नति हुई। पशुचारी और यायावरी जीवन-प्रणाली अतीत की वस्तु हो गई, खेती जीविका का मुख्य साधन हो गई और जीवन स्थायी तथा खूंटे में बँधा जैसा हो गया। विविध शिल्पों और कलाओं से समन्वित हो अब वैदिक लोग उत्तरी गंगा मैदानों में स्थिर रूप से बस गए। मैदानों में बसने वाले किसान अपने निर्वाह के लिए तो काफी अनाज पैदा कर ही लेते थे, अपनी उपज का कुछ हिस्सा अपने मुखियों, राजाओं और पुरोहितों के निर्वाह के लिए भी बचा लेते थे। राजनीतिक संगठनउत्तर वैदिक काल में जनता की सभा-समितियों के दिन लद गए और उनकी जगह पर राजकीय प्रभुत्व आ जमे। विदथ का नामोनिशान नहीं रहा। सभा और समिति अपनी जगह जीती तो रहीं, पर उनका रंग-ढंग बदल गया। उनमें राजाओं और सभ्यों (अमीरों) का बोल बाला हो गया। अब सभा में स्त्रियों का प्रवेश निषिद्ध हो गया और सम्यों तथा ब्राह्मणों का प्राबल्य हो गया।राज्यों की आकार-वृद्धि से मुखिया या राजा अधिकाधिक शक्तिशाली होता गया। सत्ता धीरे-धीरे प्रजाश्रित से प्रदेशाश्रित होती गई। राजा कबीलों पर शासन करते थे, पर उनके प्रमुख कबीले उनके राज्य के प्रदेश से अभिन्न समझे जाने लगे, भले ही उस प्रदेश के भीतर उनके अपने कबीलों से भिन्न लोग भी बसते हों। आरम्भ में हर प्रदेश वहाँ आकर सबसे पहले बसने वाले कबीले के नाम से प्रसिद्ध हुआ और बाद में चलकर वह नाम उस प्रदेश का हो गया। उदाहरणार्थ, पहले पंचाल एक जन या कबीले का नाम था जो बाद में एक प्रदेश विशेष का नाम हो गया। राष्ट्र शब्द, जिसका अर्थ प्रदेश या राज्य क्षेत्र होता है, पहले पहल इसी समय से मिलने लगा है। उत्तर वैदिक ग्रन्थों में संकेत मिलता है कि मुखिया या राजा का निर्वाचन होता था। जो शरीरिक और अन्य गुणों से सर्वश्रेष्ठ समझा जाता था वही राजा चुना जाता था। वह अपने सामान्य कुलजनों या प्रजाजनों से, जो विश् कहलाते थे, स्वेच्छा से दी गई भेंट प्राप्त करता था, जो बलि अर्थात चढ़ावा कहलाती थी। परन्तु राजा ने भेंट प्राप्त करने के इस अधिकार को और अपने पद की अन्य सुविधाओं को हमेशा कामय रखने के उद्देश्य से राजा के पद को आनुवांशिक (बपौती) बना लिया, इस प्रकार राजा का पद सामान्यतः उसके ज्येष्ठ पुत्र को मिलने लगा। लेकिन उत्तराधिकारी का यह क्रम हमेशा निर्विघ्न रूप से नहीं चला। महाभारत में कहा गया है कि युधिष्ठिर के छोटे भाई दुर्योधन ने उनके राज्य का अपहरण कर लिया। राज्य के खातिर पाँडवों और कौरवों के कुल का ही विनाश हो गया। इस युद्ध से स्पष्ट हो जाता है कि सत्ता के आगे स्वजन कुछ नहीं हैं। कर्मकांड के विधानों से राजा और भी प्रभावशाली बना दिया गया। राजा राजसूय यज्ञ करता था, जिससे यह समझा जाता था कि उसे दिव्य शक्ति मिल गई। वह अश्वमेघ यज्ञ करता था, जिससे समझा जाता था कि राजा का इस यज्ञ में छोड़ा गया घोड़ा जिन-जिन क्षेत्रों से बेरोक गुजरा उन सारे क्षेत्रों पर उस राजा का एकछत्र राज्य हो गया। वह वाजपेय यज्ञ (रथदौड़) भी करता था, जिसमें राजा का रथ अन्य सभी बन्धुओं के रथों से आगे निकलता था। इन सारे अनुष्ठानों से प्रजा के चित्त पर राजा की बढ़ती हुई शक्ति और महिमा की गहरी छाप पड़ती थी। इस काल में कर और नज़राना (ट्रिब्यूट) का संग्रह प्रचलित हो गया प्रतीत होता है। इसके संग्रह और संचय के लिए एक अधिकारी रहता था जो संग्रहीतृ कहलाता था। रामायण और महाभारत से ज्ञात होता है कि बड़े-बड़े यज्ञों के अवसर पर राजा भारी मात्रा में दान और उपहार बाँटता था और हर वर्ग के लोगों को उत्कृष्ट भोजन कराता था। राजा अपने कर्तव्य के सम्पादन में पुरोहित, सेनापति, पटरानी और कई अन्य उच्च कोटि के अधिकारियों की सहायता लेता था। निम्न स्तर में, प्रशासन का आभार सम्भवतः ग्राम-सभाओं पर रहता था, जिन पर प्रमुख कुलों के प्रधानों का नियन्त्रण रहता था। ये सभाएँ स्थानीय वाद-विवादों का फैसला भी करती थीं। लेकिन उत्तर वैदिक काल में भी राजा कोई स्थायी सेना नहीं रखता था। युद्ध के समय कबीले के जवानों के दल भर्ती कर लिए जाते थे और कर्मकांड के एक अनुष्ठान के अनुसार, युद्ध में विजय पाने की कामना से राजा को एक ही थाली में अपनी प्रजाओं (विश्) के साथ खाना पड़ा था। सामाजिक संगठनउत्तर वैदिक काल का समाज चार वर्णों में विभक्त था - ब्राहाण, राजन्य या क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। यज्ञ का अनुष्ठान अत्यधिक बढ़ गया था, जिससे ब्राह्मणों की शक्ति में अपार वृद्धि हुई। आरम्भ में छह प्रकार के पुरोहितों में केवल एक ब्राह्मण होते थे किन्तु धीरे-धीरे ब्राह्मण अन्य द्विजों को दबाते गए और स्वयं उत्तम वर्ण बन गए। पुरोहित वर्ग की यह प्रमुखता एक विलक्षण बात है जो भारत से बाहर के आर्यों के समाज में नहीं पाई जाती है। लगता है कि ब्राह्मण वर्ण की स्थापना में आर्येतर तत्वों का हाथ रहा होगा। ब्राह्मण लोग अपने यजमानों के लिए और अपने लिए भी धार्मिक अनुष्ठान और यज्ञ करते थे और कृषि कार्यों से जुड़े पर्वों या त्यौहारों में यजमानों का प्रतिनिधित्व करते थे। वे युद्ध में राजा की जीत के लिए देवाराधना करते थे और उसके प्रतिफल में राजा से अभयदान की प्रतिश्रुति पाते थे। कभी-कभी ब्राह्मण अपनी श्रेष्ठता जताने के लिए राजन्यों से भिड़ जाते थे, जिनमें राजा के बान्धव भी होते थे और क्षत्रिय वर्ग के नेता भी। लेकिन निचले दो वर्गों से सामना होने की स्थिति में ऊपर के ये दोनों वर्ग तुरन्त आपसी झगड़ा भूल जाते। उत्तर वैदिक काल के अन्त से इस बात पर बल दिया जाता रहा है कि ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बीच परस्पर सहयोग रहना चाहिए ताकि समाज के शेष भाग पर उन दोनों का प्रभुत्व बना रहे। वैश्य राजाओं के परिजन होते हुए भी जनसामान्य की कोटि में स्थापित हुए और उन्हें उत्पादन सम्बन्धी काम सौंपा गया, जैसे कृषि, पशुपालन आदि। उनमें कुछ लोग पंसारी या शिल्पी का काम भी करते थे। वैदिक काल का अन्त होते-होते वे व्यापार को अपनाने लगे। लगता है, उत्तर वैदिक काल में केवल वैश्य ही राजस्व चुकाते थे। ब्राहाण और क्षत्रिय दोनों वैश्यों से वसूल राजस्व पर ही जीते थे। आम कबायली लोगों को वश में लाकर उन्हें करदाता बनाने में प्रायः लम्बी प्रक्रिया और अवधि लगी होगी। ऐसे कई अनुष्ठान ज्ञात हैं जो दुर्दम लोगों को (विश् या वैश्यों को) राजा के और उनके बन्धुओं (राजन्यों) के वश में लाने की कामना से किए जाते थे। यह अनुष्ठान उन्हीं पुरोहितों के द्वारा कराया जाता था जो स्वयं प्रजा या वैश्यों को खसोट कर मोटे हुए थे। ऊपर के तीन वर्णों की सामान्य विशेषता यह थी कि वे उपनयन संस्कार के अधिकारी थे अर्थात वे वैदिक मन्त्रों के साथ जनेऊ धारण का अनुष्ठान करा सकते थे। चौथा वर्ण उपनयन-संस्कार का अधिकारी नहीं था, और यहीं से शूद्रों को अपात्र या अधिकारहीन मानने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है।राजा, जो राजन्यों या क्षत्रियों का अगुआ था, अन्य तीन वर्णों पर अपना प्रभुत्व जमाए रहने की चेष्टा करता रहा। उत्तर वैदिक काल के अन्त भाग में लिखे गए एक वैदिक ग्रन्थ ऐतरेयब्राह्मण में राजा के लिए कहा गया है कि ब्राहाण जीविका चाहने वाला और दान देने वाला है, लेनिक राजा जब चाहे उसे हटा सकता है। वैश्य के बारे में कहा गया है कि राजस्व का देनदार है और राजा जब चाहे उसका दमन कर सकता है। सबसे निम्न स्थान शूद्रों को मिला है। वह अन्य तीन वर्णों का सेवक है, उन्हीं की इच्छा के अनुसार काम करने वाला है और वे जब चाहे उसे पीट सकते हैं। सामान्यतः उत्तर वैदिक कालीन ग्रन्थों में तीन उच्च वर्णों और शूद्रों के बीच विभाजक रेखा देखने को मिलती है। फिर भी राज्याभिषेक के अंगभूत ऐसे कई सार्वजनिक अनुष्ठान होते थे जिनमें शूद्र, शायद मूल आर्य जातीय कबीलों के बचे हुए सदस्यों की हैसियत से, भाग लेते थे। शिल्पियों में रथकार आदि जैसे कुछ वर्गों का स्थान ऊँचा था और उन्हें यज्ञोपवीत पहनने का अधिकार प्राप्त था। इस प्रकार दिखाई देता है कि उत्तर वैदिक काल में भी वर्णभेद अधिक प्रखर नहीं हुआ था। परिवार स्तर पर, हम देखते हैं कि पिता का अधिकार बढ़ता गया है। वह अपने पुत्र को उत्तराधिकार से वंचित कर सकता है। राजपरिवार में ज्येष्ठाधिकार का प्रचलन प्रबल होता गया। पूर्व पुरूषों की पूजा होने लगी। स्त्रियों का दर्जा सामान्यतः गिरा। यद्यपि कुछ महिलाओं ने शास्त्रार्थों में भाग लिया और कुछ रानियाँ पति के राज्याभिषेक अनुष्ठानों में साथ रही, पर सामान्यतः स्त्रियों का स्थान पुरूषों के नीचे और अधीनस्थ माना जाने लगा। उत्तर वैदिक काल में गोत्र-प्रथा स्थापित हुई। गोत्र शब्द का मूल अर्थ है गोष्ठ या वह स्थान जहाँ समूचे कुल का गोधन पाला जाता था, परन्तु बाद में इसका अर्थ एक ही मूल पुरूष से उत्पन्न लोगों का समुदाय हो गया। फिर गोत्र-बहिर्विवाह की प्रथा चल पड़ी। तदनुसार एक ही गोत्र या मूल पुरूष वाले लोगों के बीच आपस में विवाह निषिद्ध हो गया। वैदिक काल में आश्रम अर्थात् जीवन के चार प्रक्रम सुप्रतिष्ठित नहीं हुए थे। वैदिकोत्तर काल में ग्रन्थों में हमें चार आश्रम स्पष्ट दिखाई देते हैं - ब्रह्मचर्य या छात्रावस्था, गार्हस्थ्य या गृहस्थावस्था, वानप्रस्थ या वनवासावस्था और संन्यास या सांसरिक जीवन से विरत होकर रहने की अवस्था। उत्तर वैदिकग्रन्थों में आदि से केवल तीन आश्रमों का उल्लेख है। अन्तिम या चतुर्थ आश्रम उत्तर वैदिक काल में सुप्रतिष्ठित नहीं हुआ था, हालाँकि सन्यास अज्ञात नहीं था। वैदिकोत्तर काल में भी केवल गार्हस्थ्य आश्रम सभी वर्णों में सामान्यतः प्रचलित था। देवता, अनुष्ठान और दर्शनउत्तर वैदिक काल में उत्तरी दोआब ब्राह्मणों के प्रभाव में आर्य-संस्कृति का केन्द्र स्थल बन गया। लगात है सारा उत्तर वैदिक साहित्य कुरू-पंचालों के इसी प्रदेश में विकसित हुआ। यज्ञ इस संस्कृति का मूल था और यज्ञ के साथ-साथ अनेकानेक अनुष्ठान और मन्त्रविधियाँ प्रचलित हुईं।ऋग्वेद काल के देवताओं में दो सबसे बड़े देवता इन्द्र और अग्नि अब उतने प्रमुख नहीं रहे। इनकी जगह उत्तर वैदिक देव-मंडल में सृजन के देवता प्रजापति को सर्वोच्च स्थान मिला। ऋग्वैदिक काल के कुछ अन्य गौण देवता भी प्रमुख हुए। पशुओं के देवता रूद्र ने उत्तर वैदिक काल में महत्ता पाई। विष्णु को वे लोग अपना पालक और रक्षक मानने लगे जो लोग ऋग्वैदिक काल की अपनी अर्द्ध यायावरी जिन्दगी को छोड़ स्थायी रूप से बस गए थे। इसके अलावा, देवताओं के प्रतीक के रूप में कुछ वस्तुओं की भी पूजा प्रचलित हुई। उत्तर वैदिक काल में मूर्ति-पूजा के आरम्भ का कुछ आभास मिलने लगता है। चूंकि समाज ब्राह्मण, राजन्य, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णां में विभक्त हो गया था, इसलिए कुछ वर्णों के अपने देवता भी हो गए। पूषन्, जो पशुओं की रक्षा करने वाला माना जाता था, शूद्रों का देवता हो गया, हालाँकि ऋग्वेद-युग में पशुपालन सारी आर्य-जाति का मुख्य व्यवसाय था। देवताओं की आराधाना के जो भौतिक उद्देश्य पूर्व में थे वे ही इस काल में भी रहे। लेकिन आराधना की रीति में महान् अन्तर आया। स्तुतिपाठ पहले की तरह चलते रहे, लेकिन वे देवताओं को प्रसन्न करने की प्रमुख रीति नहीं रहें, प्रत्युत यज्ञ करना कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गया और यज्ञ के सार्वजनिक तथा घरेलू दोनों रूप प्रचलित हुए। सार्वजनिक यज्ञ राजा अपनी सारी प्रजा के साथ करता था और प्रजा में अकसर एक ही कबीले के लोग होते। निजी यज्ञ अलग-अलग व्यक्ति अपने-अपने घर में करते थे, क्योंकि इस काल में वैदिक लोग स्थायी निवासों में रहते थे और उनके नियमित कुटुम्ब होते थे। घर का प्रत्येक व्यक्ति अग्नि में आहुति देता था और ऐसा हरेक कर्म एक अनुष्ठान का यज्ञ का रूप धारण कर लेता था। यज्ञ में बड़े पैमाने पर पशुबलि दी जाती थी, जिससे खासतौर से पशुधन का हृास होता गया। अतिथि गोहन अर्थात गोहन्ता कहलाते थे क्योंकि उन्हें गोमांस खिलाया जाता था। यज्ञों में कर्म के साथ मन्त्र पढ़े जाते थे। यज्ञकर्ताओं को इन मन्त्रों का उच्चारण बड़ी सतर्कता से करना होता था। यज्ञ करने वाला यजमान कहलाता था और यज्ञ का फल बहुत कुछ इस पर निर्भर माना जाता था कि यज्ञ में मन्त्रों का उच्चारण कितनी शुद्धता से किया गया। वैदिक आर्यों में प्रचलित बहुत से अनुष्ठान भारत-यूरोपीय आर्यों के सामान्य अनुष्ठान हैं, लेकिन कुछ भारत-भूमि में विकसित प्रतीत होते हैं। इन सारे मन्त्रों और यज्ञों का सृजन, अंगीकरण और विस्तारण पुरोहितों ने किया, जो ब्राह्मण कहलाते थे। ब्राह्मण धार्मिक ज्ञान-विज्ञान पर अपना एकाधिकार समझते थे। उन्होंने बहुत सारे अनुष्ठानों को चलाया, जिनमें कुछ आर्येतर लोगों से भी लिए। इतने सारे अनुष्ठानों को चलाने और उनको विस्तृत बनाने का क्या कारण रहा होगा यह तो पता नहीं चलता, लेकिन इस सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि इसके पीछे धन-लोलुपता की भावना रही होगी। कहा गया है कि राजसूय यज्ञ कराने वाले पुरोहित को दक्षिणा में 240,000 गायें मिलती थीं। यज्ञ की दक्षिणा में सामान्यतः गायें तो दी ही जाती थीं, साथ-साथ सोना, कपड़ा और घोड़े भी दिए जाते थे। कभी-कभी पुरोहित दक्षिणा में राज्य का कुछ भाग भी माँग लेते थे। किन्तु यज्ञ की दक्षिणा में भूमि का दिया जाना उत्तर वैदिक काल में प्रचलित नहीं हुआ था। शतपथब्राह्मण में कहा गया है कि अश्वमेघ यज्ञ में पुरोहित को उत्तर, दक्षिण, पूरब और पश्चिम चारों दिशाएँ दे देनी हैं। यदि वास्तव में ऐसा हो, तो राजा के पास क्या बचा होगा ? अतः इसका यही अर्थ लगाया जा सकता है कि पुरोहित जहाँ तक सम्भव हो अधिक से अधिक भूमि हड़पना चाहते थे। परन्तु यथार्थ में भूमि अधिक मात्रा में ब्राह्मणों के हाथ नहीं गई होगी। एक जगह इस बात का भी उल्लेख है कि भूमि जब ब्राहाण को दी जाने लगी तो उसने ब्राह्मण के हाथ जाना अस्वीकार कर दिया। वैदिक काल के अन्तिम दौर में, पुरोहितों के प्रभुत्व के विरूद्ध तथा यज्ञ और कर्मकांडो के विरूद्ध प्रबल प्रतिक्रिया शुरू हुई। यह प्रतिक्रिया पंचालों और विदेह के राज्य में विशेष कर हुई, जहाँ 600 ई. पू. के आसपास उपनिषदों का संकलन हुआ था। इन दार्शनिक ग्रन्थों में कर्मकांड की निन्दा की गई और यथार्थ विश्वास एवं ज्ञान को महत्व दिया गया। उपनिषदों में कहा गया है कि अपनी आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए और ब्रह्म के साथ आत्मा का सम्बन्ध ठीक से जानना चाहिए। तत्कालीन शक्तिशाली राजाओं की तरह ब्रह्म को एक परम सत्ता के रूप में स्थापित किया गया। पंचाल और विदेह के कई क्षत्रिय राजाओं ने भी इस प्रकार के चिन्तन को अपनाया और ब्राहाण धर्म में सुधार लाने के लिए उपयुक्त वातावरण बनाया। उनके उपदेशों से स्थायित्व और अखंडता की भावना को बल मिला। आत्मा अपरिवर्ती, अविनाशी और अमर है इस बात पर बल देने से उस स्थायित्व की भावना को बल मिला जिसकी अत्याधिक आवश्यकता क्षत्रिय शासकों के अधीन उदीयमान राजसत्ता को थी। आत्मा और परमात्मा (ब्रह्म) के बीच सम्बन्ध की भावना से प्रजा में राजा के प्रति भक्ति जगी। उत्तर वैदिक काल में कई महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। प्रदेशाश्रित राज्यों की शुरूआत हुई। युद्ध केवल पशुओं को हथियाने के लिए ही नहीं, बल्कि राज्यक्षेत्र पर कब्जा करने के लिए भी होने लगे। कौरवों और पाँडवों के बीच हुआ प्रख्यात महाभारत-युद्ध इसी काल का माना जाता है। आरम्भिक वैदिक काल का पशुचारण-प्रधान समाज अब कृषि-प्रधान हो गया। पूर्व के कबायली पशुचारक अब किसान बन गए और बार-बार राजस्व या नजराना दे-देकर अपने राजा का भरण-पोषण करने में समर्थ हो गए। राजा कबायली किसानों के बूते पर समृद्ध होते गए और उन पुरोहितों को प्रचुर दान-दक्षिणा देते गए जो वैश्य वर्ग अर्थात् आम जनता के विरूद्ध हमेशा अपने दाता को पक्ष लेते थे। शूद्र इस काल में भी एक छोटा सेवक-वर्ग बना रहा। कबायली समाज टूट कर वर्णों में विभक्त नया समाज बन गया। किन्तु वर्णमूलक भेदभावों पर अत्यधिक बल नहीं दिया जा सका। ब्राहाणों के सहयोग के बावजूद राजन्य या क्षत्रिय राजतंत्र की स्थापना नहीं कर पाए थे। तब तक कोई राज्य कैसे चल सकता है जब तक कोई नियमित कर-प्रणाली न हो और वेतन भोगी सेना न हो और सेना भी करों के भरोसे ही रखी जा सकती थी। परन्तु खेती के मौजूदा तरीकों में तो पर्याप्त कर और राजस्व उगाहने की गुंजाइश ही नहीं थी। | |||||||||
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