सत्यमेव जयते gideonhistory.com
वैज्ञानिक एवं तकनीकी विकास
  विज्ञान, मानव-ज्ञान का वह क्षेत्र है जो प्रकृति के नियमों तथा सिद्धांतों का अध्ययन करता है। इसका उद्गम मानव-इतिहास के प्रारंभ से ही है। विज्ञान के साथ-साथ प्रौद्योगिकी का विकास हुआ तथा विभिन्न कार्यकलापों में मानव जाति को सहायता देने के लिए ज्ञान का प्रयोग किया गया। विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी की साथ-साथ प्रगति हुई और प्रत्येक पीढ़ी में हुई इनकी प्रगति, पिछली पीढ़ी के अनुभव और योगदान पर आधारित थी। विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी में प्रगति सामान्यतः लगातार हुई है परंतु मानव-इतिहास की कुछ अवधियों में प्रगति-दर में अधिक वृद्धि हुई है। बड़े ऐतिहासिक परिवर्तनों में विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। हालाँकि, विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी में प्रगति सदैव साथ-साथ नहीं हुई है। आधुनिक विज्ञान के नाम से समझे जाने वाले काल का प्रारंभ, आधुनिक युग में प्रारंभ होने वाले पुनर्जागरण की अवधि में हुआ।
   अठारहवीं शताब्दी के मध्य में प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में उल्लेखनीय विकास प्रारंभ हो गया था जिसके फलस्वरूप औद्योगिक क्रांति आई। पिछले लगभग सौ वर्षां में, विज्ञान और प्रौद्योगिकी इतने समीप आ गई हैं जितना पहले कभी नहीं थीं और इनमें तीव्र गति से प्रगति हुई है। औद्योगिक क्रांति के कुछ पहलुओं से आप पहले से ही परिचित हैं। इन दोनों के फलस्वरूप, विशाल सामाजिक परिवर्तन हुए हैं और गृह आधारित हस्तनिर्मित उत्पादों का स्थान, फैक्टरी आधारित मशीन निर्मित उत्पादों ने ले लिया है। जलमार्गों के लिए नहरों का निर्माण, ऊर्जा के विभिन्न स्रोतों का प्रयोग, ऊर्जा के एक रूप का दूसरे रूप में परिवर्तन, हथ, करघा जैसे वर्तमान औजारों तथा मशीनों में सुधार करने के लिए धातुओं और मिश्र धातुओं (अलोह तथा इस्पात) का प्रयोग आदि, औद्योगिक क्रांति के महत्वपूर्ण उदाहरण हैं।
   सर्वप्रथम औद्योगिक क्रांति का आरंभ इग्लैंड में अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हुआ था और यह क्रांति धीरे-धीरे अगले लगभग सौ वर्षों में पश्चिमी विश्व के कुछ अन्य देशों में भी फैल गई, जिससे इन देशों के सामाजिक और आर्थिक तंत्रों में आमूल परिवर्तन हो गए।

दूसरी औद्योगिक क्रांति

  औद्योगिक क्रांति में लगभग 1860 तक नियमित रूप से प्रगति होती रही। अगले सौ वर्षों में विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण सफलताएँ प्राप्त हुई हैं। विज्ञान और प्रौद्योगिकी के बढ़ते हुए प्रयोग से औद्योगिक-उत्पादन के सम्पूर्ण तंत्र में परिवर्तन हुए हैं जिनके परिमाण को देखते हुए, दूसरी औद्योगिक क्रांति का प्रारंभ कहा जा सकता है।
   दूसरी औद्योगिक क्रांति के लिए ‘‘पुंज उत्पादन’’ तथा ‘‘पुंज खपत’’ प्रमुख शब्द हैं। प्रौद्योगिक प्रगति और वैज्ञानिक प्रगति में घनिष्ट संबंध स्थापित हो गया। उद्योग में अधिकांश हस्तचालित युक्तियों स्थान वैद्युत और अब इलैक्ट्रॉनिकी और स्वचालित युक्तियों ने ले लिया है। उन्नीसवीं शताब्दी में उद्योगों ने मुख्य ऊर्जा स्रोतों के रूप में पवन तथा कोयले का प्रयोग किया है। तत्पश्चात्, विद्युत ऊर्जा, पैट्रोलियम, डीजल तथा प्राकृतिक गैस का प्रयोग किया गया। अब, जबकि ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों की खोज के अथक प्रयास किए जा रहे हैं तो दूसरी ओर ऊर्जा का अधिकाधिक दक्षता से प्रयोग किया जा रहा है। रासायनिक उद्योग अब बहुत महत्वपूर्ण हो गए हैं। बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए औद्योगिक संयंत्रों के आमाप अपेक्षाकृत बड़े हो गए हैं। विभिन्न उद्योगों के लिए मशीनों और मशीनी औजारों का उत्पादन, महत्वपूर्ण उद्योग के रूप में विकसित हुआ है।
   दूसरी औद्योगिक क्रांति के दौरान, खाद्य-उत्पादन में कई गुनी वृद्धि हुई है, जो नए कृषि उपयंत्रों और उर्वरक, कीटनाशी, पीड़कनाशी तथा कवकनाशी जैसे विभिन्न रसायन-समूहों के प्रयोग से ही संभव हुई है। भंडारण सुविधाओं में भी सुधार हुआ है जिससे उत्पादकों को लाभ पहुँचा है। उपभोक्ता भी लाभान्वित हुए हैं क्यांकि, अब उन्हें मूल्य में अधिक घट-बढ़ के बिना कृषि-उत्पाद सारे वर्ष प्राप्त हो जाते हैं। परिवहन में सुधार से खाद्यान्न की विशाल मात्रा तथा व्यक्तियों का आवागमन संभव और द्रुतगामी हो गया है। संचार के नए माध्यम, जो डाक प्रणाली के समावेश से प्रारंभ हुए थे, उनमें तार, टेलीफोन और बेतार के आ जाने से बहुत उन्नति हुई है। रडार और उपग्रह के आगमन से संचार तीव्रगामी हो गया है। उन्नत पोषण, स्वास्थ्य तथा स्वच्छता सुविधाओं के कारण, मानव जाति के स्वास्थ्य और जीवन काल में वृद्धि हुई है। कायचिकित्सक अब मानव शरीर के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त करने के कारण जटिल और अति आधुनिक मशीनों का प्रयोग करते हैं। बहुत सी समस्याओं का समाधान करना पड़ा और विभिन्न प्रकार के उपस्करों का आविष्कार किया गया और तब ही मनुष्य का चन्द्रमा पर उतरना और टहलना अथवा हृदय का प्रतिरोपण संभव हो सका।
   बीसवीं शताब्दी में सिलाई मशीन, रेफ्रीजरेटर, डीप फ्रीजर, खाना पकाने की गैस, अवन, स्टोव, वाशिंग मशीन, शुष्कन मशीन, डिशवासर, प्रेशर कुकर, मिक्सी तथा फर्श साफ करने वाली मशीनों जैसे विभिन्न घरेलू साधित्रों और गैजेटों के अविष्कार से मनुष्यों को नीरस कार्यो से मुक्ति मिलना संभव हो सका है और उसे अवकाश के अधिक क्षण मिल सके हैं। चलचित्र, रेडियो और दूरदर्शन के आगमन से मनोरंजन के नए साधन उपलब्ध हुए हैं। अखबारी कागज, कागज तथा मुद्रण-प्रौद्योगिकी के साथ-साथ फोटोग्राफी और ध्वनि इंजीनियरी के विकास से संचार के ऐसे नए क्षेत्र प्रशस्त हुए हैं जिनमें निरक्षरता को दूर करने की तथा शिक्षा के क्षेत्र को विस्तृत करने की क्षमता है।
   दूसरी औद्योगिक क्रांति के दौरान नई प्रकार की व्यवसायिक संस्थाएँ विकसित हुई हैं। उदाहरणार्थ प्रशिक्षित इंजीनियरों, प्रबंधकों, तकनीकीविदों, सेल्समेनों, सांख्यिकीविदों, ऑफिस-कर्मियों, विज्ञापनों, मैकेनिकों जैसे नए व्यवसायों और रेडियो, टी. वी., सिनेमा और विमान चालन जैसे नए उद्योगों के लिए बड़ी संख्या में नए रोजगार बीसवीं शताब्दी में विकसित हुए हैं। आज डॉक्टरों, नर्सों, अध्यापकों, मनोरंजनकर्ताओं, होटल तथा रेस्टोरेन्ट कर्मचारियों तथा अवकाश और यात्रा सुविधाएँ उपलब्ध कराने वालों की बड़ी संख्या में आवश्यकता है। आज संसार में कार्यरत वैज्ञानिकों की संख्या इतनी अधिक है, जितनी पहले कभी नहीं थी।

विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में सफलताएँ

  यदि हम 1860 से प्रारंभ होने वाली दूसरी औद्योगिक क्रांति पर दृष्टिपात करें तो पता चलता है कि इस क्रांति के साथ-साथ विज्ञान ने अनेक सफलताएँ प्राप्त की हैं और प्रौद्योगिकी का तीव्र विकास हुआ है। उदाहरणार्थ, आधुनिक वायुयान का प्रवेश बीसवीं शताब्दी के प्रथम पच्चीस वर्षों में हुआ था और अगले 40 वर्षां में ही बाह्य अंतरिक्ष में यात्रा करना संभव हो सका। इस अवधि में विज्ञान के क्षेत्र में ज्ञान के विस्फोटक विकास से संबंधित उल्लेखनीय बात, संकीर्ण विशेषता का विकास है। वैज्ञानिकों का भौतिकीविद्, रसायनज्ञ एवं जीवविज्ञानी के रूप में वर्गीकरण पर्याप्त नहीं है, अब इनका वर्गीकरण उनकी अपनी विशेषज्ञता के अनुसार किया जाता है यथा - न्यूक्लीय भौतिकीविद्, खगोल भौतिकीविद्, जीवरसायनज्ञ, शरीर क्रियाविज्ञानी, वर्गिकीविज्ञ तथा क्रिस्टल वैज्ञानिक इत्यादि। विशेषता में वृद्धि के साथ-साथ विज्ञान के पुराने उपखंडों का समापन हो गया है और जैवभौतिकी, आण्विक जैविकी, अंतरिक्ष विज्ञान जैसे बहुत से नए एकीकृत क्षेत्रों का उद्भव हुआ। ऊर्जा सरंक्षण के सिद्धांत के द्वारा उन्नीसवीं शताब्दी के अध्ययन के तीन स्पष्ट क्षेत्रों, यांत्रिकी वैद्युत चुंबकत्व और ऊष्मागतिकी का एकीकरण हुआ है। द्रव्य संरचना से संबंधित नए ज्ञान ने भौतिक, जैविक और भूविज्ञानों को एकीकृत कर दिया है।

जीवविज्ञानों में विकास

  उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक जीवविज्ञानों के क्षेत्र में प्रमुख निष्कर्ष निम्नलिखित थे जो बीसवीं शताब्दी की जैविकी की आधारशिला थे -
(1) सभी जीव, प्रोटोप्लाज्म नामक एक जटिल रासायनिक पदार्थ से निर्मित हैं।
(2) सभी जीव सूक्ष्म कोष्ठ जैसी कोशिकाओं और उनके उत्पादों से निर्मित हैं और सभी कोशिकाएँ पहले से उपस्थित कोशिकाओं से उत्पन्न होती हैं।
(3) सभी वर्तमान जीवित कोशिकाएँ अपेक्षाकृत सरल संगठन के साथ अपने पूर्वजों से जन्मी हैं।
(4) सभी जीव, निषेचित अंडे से विकास के दौरान एक क्रमबद्ध प्रक्रम से गुजरते हैं।
(5) इन प्रक्रमों के दौरान जीवन स्वतः परिलक्षित होता है जो भौतिकी और रसायन के नियमों के अनुरूप है।
(6) बीसवीं शताब्दी की जैविकी का सबसे प्रमुख योगदान, यह आविष्कार है कि सभी जीव आनुवंशिक दृष्टि से परस्पर संबद्ध हैं। जीनों, विभिन्नताओं, उत्परिवर्तन, (म्यूटेशन), विकास-क्रम, पारिस्थितिकी, प्राणि तथा मानव प्रकृति, कोशिका के संरचनात्मक विवरण, ऊतक-संवर्धन, कृत्रिम अनिषेकजनन, कृत्रिम वीर्यसेचन, पादप तथा प्राणि हॉर्मोन, वाइरस तथा जीवाणु की जैविकी, कोशिका शरीर विज्ञान तथा प्रकाश-संश्लेषण से संबंधित ज्ञान में महत्वपूर्ण प्रगति हुई है। आइए, इनमें से कुछ निष्कर्षों पर हम संक्षेप में चर्चा करें।

विकास तथा आनुवंशिकी

  मानव जाति के इतिहास में वर्ष 1860 सबसे उल्लेखनीय था। ठीक दो वर्ष पहले, चार्ल्स डारविन नामक एक प्रकृतिवादी ने प्राकृतिक वरण द्वारा, जैविक विकास की व्याख्या करने के लिए एक सिद्धांत प्रस्तुत किया। उसके सिद्धांत के अनुसार सभी जीव बड़ी संख्या में वंश वृद्धि करते हैं और कोई भी दो व्यक्ति बिल्कुल एक से नहीं हो सकते। इस प्रकार प्रत्येक पीढ़ी में अत्यधिक विभिन्नताएँ निर्मित होती हैं। चूँकि स्थान और खाद्य लगभग स्थिर रहता है अतः ये सन्तानें उत्तम जीवनयापन के लिए परस्पर प्रतिस्पर्धा करती हैं। डारविन ने इसे जीवन-संघर्ष कहा। सफल विभिन्नताएँ उत्तरजीवित रहती हैं जो जीवित रहकर पुनरूत्पादन (योग्यतम की उत्तरजीविता) करती हैं। डारविन के अनुसार प्रकृति, सफल विभिन्नताओं का वरण करती है जिन्हें आगे संचारित होने दिया जाता है (प्राकृतिक वरण)। विभिन्न स्रोतों से प्राप्त विशद प्रमाणों के आधार पर, डारविन ने प्रतिपादित किया कि सभी जीव, सरलतम रूपों से इसी प्रकार निर्मित हुए हैं और इन्हें वर्तमान विविधता तक पहुँचाने में लाखों वर्ष लगे हैं। विकास के इस प्रक्रम में मानव जाति सबसे बाद में आई।
   डारविन के सिद्धांत में मनुष्य के उद्गम को जैविक विकास के क्रमिक प्रक्रम का निष्कर्ष माना गया है। इसमें विशिष्ट सर्जन सिद्धांत की अवहेलना की गई है जो शताब्दियों तक लोकप्रिय रहा है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विकसित करने में इस सिद्धांत ने अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। जिन व्यक्तियों ने इस सिद्धांत को मनुष्यों पर लागू किया है उन्होंने इसे विकृत किया हैं। इन व्यक्तियों का यह मत था कि जीवन संघर्ष से तात्पर्य यह है कि युद्ध और शोषण, विश्व के प्राकृतिक क्रम के अभिन्न भाग हैं और योग्यतम की उत्तरजीविता यह सिद्ध करती है कि उच्च वर्ग ने समाज पर अपना प्रभुत्व जमा रखा है क्योंकि वे सर्वाधिक सक्षम हैं और इस वर्ग को शेष व्यक्तियों के ऊपर शासन करने का अधिकार हैं। प्रजातिवादियों ने भी डारविन सिद्धान्त के कुछ पहलुओं को विकृत किया है ताकि वे प्रजातीय श्रेष्ठता की धारणाओें का प्रचार कर सकें।
   बहुत समय तक मानव जाति, वांछित विभिन्नताओं को प्राप्त करने के लिए पादपों और प्राणियों का पोषण कर रही थी। डारविन ने मानव जाति की इस भूमिका की, प्रकृति की भूमिका के साथ तुलना कर, प्राकृतिक वरण की अपनी धारणा को आगे बढ़ाया अर्थात् विभिन्नताएँ किस प्रकार उत्पन्न होती हैं, विविध लक्षण किस प्रकार नियंत्रित किए जाते हैं और लक्षण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक कैसे अंतरित होते हैं।
   वर्ष 1900 में ह्यूगो दि ब्रीज, कोरेन्स तथा टैशमैक नामक तीन वैज्ञानिकों ने आनुवंशिकी के सिद्धांतों का स्वतंत्र रूप से आविष्कार किया जिनके आधार पर यह समझाया जा सकता है कि लक्षण, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक कैसे अंतरित होते हैं। वास्तव में, यह जॉन मेन्डल नामक एक आस्ट्रियाई भिक्षु के निष्कर्षों का पुनः आविष्कार था जिसने इन नियमों का 1867 में सतर्क प्रयोगों द्वारा सूत्रीकरण किया था। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इन निष्कर्षों का एक पत्रिका में प्रकाशन होने पर भी मेन्डल, वैज्ञानिकों का ध्यान इस ओर आकर्षित नहीं कर सका। यहाँ तक कि चार्ल्स डारविन का भी ध्यान इन निष्कर्षों पर नहीं गया जो लक्षणों का एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में अंतरण की संभव क्रियाविधि की तत्परता से खोज कर रहा था और वह भी विभिन्नता के कारण और आनुवंशिकता की क्रियाविधि की व्याख्या करने में असमर्थ रहा। लगभग उसी समय यह निर्देशित किया गया कि लगभग सभी बहुकोशिकीय जीव दो कोशिकाओं अर्थात् नर से प्राप्त शुक्राणु और मादा से प्राप्त अंडाणु के संयोग से जनित होते हैं।
   1900-1925 की अवधि के बीच आनुवंशिकी और कोशिका-विज्ञान के क्षेत्रों में बहुत तेजी से वृद्धि हुई। शीघ्र ही यह पता चला कि आनुवंशिकता का भौतिक आधार गुणसूत्र है और वैयक्तिक जीवों के विकास में उनकी प्रमुख भूमिका है। मूलतः मटर-पादपों पर किए गए प्रयोगों पर आधारित मेन्डल का सिद्धांत, सभी जीवों पर समान रूप से लागू पाया गया। गुणसूत्रों में कुछ ऐसे विविक्त पिंड देखे गए जो किसी विशेष लक्षण को नियंत्रित करने के लिए उत्तरदायी हैं। इन पिंडों को जीन की संज्ञा दी गई। जीनों के अभिनिर्धारण के बाद बहुत से जीवों के गुणसूत्र चित्र बनाए गए।
   मेन्डल सिद्धांत के एक सहआविष्कारकर्ता दि ब्रीज ने यह बताया कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में परिवर्तन अचानक हो सकते हैं। उसने इसे उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) कहा। 1927 में म्यूलर ने यह दर्शाया कि ऐक्स किरणों द्वारा कृत्रिम रूप से उत्परिवर्तन प्रेरित करना संभव है। इसके बाद शीघ्र ही, कई रासायनिक तथा भौतिक कारकों द्वारा उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) सम्पन्न किया गया। एक बार आनुवंशिकता के भौतिक आधार को समझ लेने के बाद उसके रासायनिक आधार को समझने के प्रयास किए गए। 1925 में ग्रिफिथ द्वारा किए गए प्रयोगों के प्रारंभिक परिणामों की 1952 में हर्श और चेज ने पुष्टि करते हुए कहा कि डी.एन.ए. अथवा डिऑक्सीराइबोन्यूक्लीक अम्ल, जीन का रसायनिक आधार है। राइबोन्यूक्लीक अम्ल नामक एक अन्य न्यूक्लीक अम्ल भी कोशिका में पाया जाता है।
   जैवरसायन-अध्ययन द्वारा पहले से ही ज्ञात था कि सभी जीव, असंख्य प्रकार के प्रोटीनों से निर्मित हैं। जीवित शरीर के अन्दर विभिन्न कार्य, एंजाइम द्वारा अत्प्रेरित होते हैं जो स्वयं भी प्रोटीन हैं। प्रत्येक एंजाइम प्रत्येक कार्य के लिए अतिविशिष्ट है और उस कार्य के लिए वह सभी जीवों में समान होता है। विभिन्न जीनों में ये सभी प्रोटीन, बीस ऐमीनो अम्ल के विभिन्न संयोगों से बनते हैं। एक बार यह ज्ञात होने पर कि लक्षण को नियंत्रित करने के लिए जीन उत्तरदायी हैं, तो प्रोटीन के संश्लेषण में जीवों की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है।
   वाटसन और क्रिक (1953) ने डी. एन. ए. आण्विक प्रतिरूप का सूत्रीकरण किया और उसके कार्य की सैद्धांतिक व्याख्या का आधार प्रस्तुत किया। शीघ्र ही वाटसन और क्रिक के निष्कर्षों की प्रयोगों द्वारा पुष्टि की गई। 1970 तक यह ज्ञात हो गया था कि डी. एन. ए. गुणसूत्र में स्थित है तथा यह किस प्रकार द्विगुणित होता है, किस प्रकार निर्देश ले जाता है (आनुवंशिक संहिता) और किस प्रकार कार्य करता है (जीन-क्रिया)।
   एक बार इसे समझ लेने के बाद डी. एन. ए. - आर. एन. ए. - प्रोटीन, जैविकी का प्रमुख हठ सिद्धांत बन गया और अब जटिल प्रौद्योगिक क्रियाओं द्वारा, जीवों की आनुवंशिक रचना को परिवर्तित करना संभव है। यह नया क्षेत्र, आनुवंशिक इंजीनियरी कहलाता है।

व्यवहारवादी विज्ञान

  बीसवीं शताब्दी में प्राणि व्यवहार का अध्ययन, एक प्रायोगिक विज्ञान हो गया और इस प्रकार यह प्राणियों के व्यवहार का मानव रूपी विवरण नहीं रह गया। जूलियन हक्सले, कोनरड लोरेन्ज, डेविड लैक, जे.के. यंग तथा कार्ल वॉन फ्रिश जैसे वैज्ञानिकों ने विभिन्न प्राणियों की व्यवहारात्मक क्रियाविधि का विश्लेषण किया। बीसवीं शताब्दी के मध्य तक प्रायोगिक मनोविज्ञान सुस्थापित हो चुका था। शिक्षण की क्रियाविधि को समझने के लिए बहुत से शोध कार्य किए गए। इस संबंध में पियागेट, ब्रूनर तथा स्किनर के निष्कर्ष, विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। प्रतिवर्ती क्रिया, प्रतिबंधित प्रतिवर्त, मेरू रज्जु और मानव मस्तिष्क की कार्य प्रणाली के अध्ययन द्वारा बहुत से रहस्यों पर प्रकाश डाला गया है। विद्युत सक्रियता का मापन और अभिलेखन संभव हो सका है। इसी प्रकार विद्युत हृदलेखी के द्वारा हृदय की क्रिया के सूक्ष्म विवरणों का संसूचन और अभिलेखन संभव हो सका है। शल्यकर्मी, शरीर क्रियात्मक तथा शारीरिक विधियों के साथ-साथ इलैक्ट्रॅानिकी तथा कम्प्यूटरों का प्रयोग कर, मस्तिष्क का अध्ययन किया जा रहा है।

कोशिका हार्मोन तथा सूक्ष्म जीव

  इलैक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी के अविष्कार के द्वारा, कोशिका के विभिन्न भागों के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त करना संभव हो सका है। कोशिका झिल्ली, केन्द्रकीय झिल्ली, कोशिका-द्रव्य तथा विभिन्न कोशिकांगों के बारे में नया ज्ञान प्राप्त हुआ है। द्रुत अपकेन्द्रित्र का प्रयोग कर, विभिन्न अंतराकोशिक कणों को पृथक करने में सहायता मिली है। विभिन्न सूक्ष्म शल्यकर्मी तथा ऊतक संवर्धन तकनीकों के अनुप्रयोग से विकास में कोशिकाओं की भूमिका को समझने में सहायता मिली है। रसायन-नियामकों के रूप में हार्मोन, उन्नीसवीं शताब्दी से ही ज्ञात थे। बीसवीं शताब्दी में यह देखा गया कि ये हार्मोन अकशेरूकी प्राणियों में भी पाये जाते हैं। हार्मोनों की विशिष्टता तथा प्रत्येक हार्मोन के विशिष्ट क्रिया-स्थलों के निर्धारण की क्रियाविधि के बारे में भी विस्तृत जानकारी थी। यह देखा गया कि तंत्र कोशिकाएँ विशिष्ट हार्मोनों का मोचन करती हैं। पादप-हार्मोनों के नवीन ज्ञान से उद्यान कृषि और पुष्प कृषि के क्षेत्र में बहुत से महत्वपूर्ण प्रयोग किए गए हैं।
   बीसवीं शताब्दी में सूक्ष्मजीवों का अध्ययन बहुत महत्वपूर्ण हो गया। इन सूक्ष्मजीवों के संवर्धन के लिए कृत्रिम रूप से तैयार, संवर्धन-माध्यमों का प्रयोग किया गया। चूँकि आनुवंशिकी-विदों और आण्विक जीवविज्ञानियों द्वारा अपने प्रयोगों में जीवाणुओं और वाइरसों का प्रयोग किया जाने लगा है, अतः सूक्ष्म जीवों के संवर्धन में अत्यधिक उन्नति हुई है।
   ऐल्कोहल, चीज़ इत्यादि के औद्यागिक उत्पादन में रोगाणुओं का प्रयोग सुविदित है। हाल ही में आनुवंशिक इंजीनियरी और सूक्ष्मजैविकी के संयुक्त अध्ययन से जैव प्रौद्योगिकी नामक नई प्रौद्योगिकी विकसित हुई है। अल्प अवधि में ऐसी असीम संभावनाओं का पता चला है जो दैनिक प्रयोग के जैविक उत्पादों के उत्पादन की वर्तमान तकनीक को बदल डालेंगी।

विविधता में एकता

  विभिन्न जीवों के जैव रासायनिक अध्ययनों से पता चला है कि विविधता के होते हुए भी सभी जीव एक प्रकार की एकता दर्शाते हैं। उदाहरणार्थ लगभग सभी जीवों में डी. एन. ए. एक आनुवंशिक द्रव्य है, सभी जीवों में विटामिनों का प्रयोग होता है तथा सभी जीवों में कोशिकीय श्वसन की क्रियाविधि समान है। प्रोटीनों की प्रकृति और संरचना के बारे में विस्तृत ज्ञान प्राप्त है। प्रोटीन-अणुओं तथा प्रोटीनों की रासायनिक प्रकृति के बारे में ज्ञान के द्वारा हमें एंजाइम-अभिक्रिया तथा प्रतिजनी-प्रतिपिंड अभिक्रियाओं जैसी परिघटनाओं को समझने में सहायता मिली है। प्रतिजनी प्रतिपिंड अभिक्रियाओं के फलस्वरूप ही मानव जाति में अंग प्रतिरोपण के क्षेत्र में उपलब्धि संभव हुई है।

जीवन का स्रोत

  बीसवीं शताब्दी में जैविकी का सबसे विस्मयकारी विकास, जीवन के स्रोत की खोज है। अन्य ग्रहों में जीवन की खोज के लिए, खगोल भौतिकी की तकनीकों का प्रयोग किया गया है। अंतरिक्ष विज्ञान के अंतर्गत, अंतरिक्ष जीव विज्ञान नामक घटक भी आता है। लाखों वर्ष पूर्व पृथ्वी की स्थिति का अनुकरण करने वाले प्रायोगिक डिजाइन स्थापित किए गए हैं तथा प्रोटीन के निर्माण, घटकों एमीनो अम्ल और पालिपेप्पटाइडों का कृत्रिम रूप से संश्लेषण भी संभव हो सका है। अब कोशिका के बाहर डी. एन. ए. का संश्लेषण संभव है। इस प्रकार संश्लेषित डी. एन. ए. जब किसी जीवाणु में प्रविष्ट कराया जाता है तो यह स्वतः व्यक्त कर सकता है। आज किसी भी जीन का किसी भी आदाता में अंतरण और उसे क्रियात्मक बनाना, सिद्धान्त रूप से संभव है।

भौतिक विज्ञानों में विकास

  भौतिक विज्ञानों के क्षेत्र में बीसवीं शताब्दी में हुई प्रमुख उपलब्धियों को तीन समूहों में बाँटा जा सकता है - द्रव्य की प्रकृति, पृथ्वी की प्रकृति तथा विश्व की प्रकृति।

द्रव्य की प्रकृति

  द्रव्य के विकास के नवीन सिद्धांत के अंतर्गत परमाणु न्यूक्लिएस के प्रतिरूप का विकास, क्वांटम-यांत्रिकी का विकास तथा न्यूक्लीय स्थायित्व, कृत्रिम रेडियो ऐक्टिवता और विखंडन को भली-भाँति समझने के लिए न्यूक्लीय भौतिकी का विकास सम्मिलित है। निम्नतापिकी, ठोसा-वस्था भौतिकी तथा नए मूल कणों के अध्ययन भी इसी समूह के अंतर्गत आते हैं।
   न्यूक्लीय प्रतिरूप का ज्ञान तथा न्यूक्लीय भौतिकी एवं क्वांटम यांत्रिकी से प्राप्त निष्कर्ष इलैक्ट्रॉनिक उद्योग की तीव्र वृद्धि में सहायक हुए हैं, जिन्होंने संचार उद्योग में क्रांति उत्पन्न कर दी है। इस ज्ञान से वैमानिकी को भी लाभ पहुँचा है। निम्नताप-अध्ययन (चरम शीत ताप के प्रभाव) से यह पता चला है कि अत्यधिक ठंडे ताप पर कुछ धातु अतिचालकता प्रदर्शित करते हैं अर्थात् वे विद्युतधारा के प्रति प्रतिरोध से मुक्त हैं और उनका चुंबकीय व्यवहार असाधारण है।

पृथ्वी की प्रकृति

  पृथ्वी की प्रकृति, उसके पृष्ठ, उसकी आयु, उसका आंतरिक भाग और उसके वायुमंडल का ज्ञान, दूसरी औद्योगिक क्रांति की सबसे बड़ी उपलब्धि है। वर्ष 1957-58 में अंतर्राष्ट्रीय भूभौतिक वर्ष का मनाया जाना एक अग्रणी सहकर्मी प्रयास था जिसमें विभिन्न सिद्धांतों, राजनैतिक तथा आर्थिक प्रणाली वाले राष्ट्रों ने भाग लिया। इसके फलस्वरूप मौसम विज्ञान की नई शाखा का जन्म हुआ।

विश्व की प्रकृति

  आज हमें विश्व की प्रकृति के बारे में बहुत कुछ ज्ञात है। सशक्त दूरबीनों तथा उन्नत स्पैक्ट्रमदर्शी तकनीकों के द्वारा हमें विश्व की प्रकृति को समझने में बहुत सहायता मिली है।
   अब हमें ज्ञात है (इसका श्रेय प्रोफेसर एम. एन. साहा के आविष्कार को है) कि नक्षत्र भी पृथ्वी पर दिखाई देने वाले हाइड्रोजन, नाइट्रोजन तथा हीलियम जैसे तत्वों से निर्मित हैं। आज हमें विश्व की प्रसारात्मक प्रकृति, नक्षत्रों के जन्म और मृत्यु, पृथ्वी से नक्षत्रों तथा परस्पर नक्षत्रों के मध्य दूरी और सौर तंत्र तथा शेष नक्षत्रों के मध्य संबंध आदि का ज्ञान है। वैज्ञानिक अब ऐसे अवसर की खोज में हैं जब वे नक्षत्रों को पृथ्वी के गुरूत्वीय बल के बाह्य स्थित, किसी केन्द्र से देख सकेंगे। कृत्रिम उपग्रहों के द्वारा अंतरिक्ष अनुसंधान में हुए विकास से स्वप्न साकार हो गया है और इन उपग्रहों की सहायता से, जो मध्यवर्ती केन्द्र का कार्य करते हैं, अध्ययन किए गए हैं।

परमाणु की कहानी

  मेन्डेलीफ ने देखा कि प्रकृति में पाए जाने वाले तत्व, अपने परमाणु भार के क्रम में व्यवस्थित किए जा सकते हैं। उसने प्रत्येक तत्व को वर्धमान परमाणु भार के क्रम में व्यवस्थित कर, 92 तत्वों की एक आवर्त सारणी तैयार की। उसने यह भी अनुमान लगाया कि प्रकृति में पाए जाने वाले कुछ तत्वों का अभी तक आविष्कार नहीं हुआ है। कुछ ही समय बाद मेन्डेलीफ की भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई।
   1895 में रून्टगोन ने एक्स किरणों का आविष्कार किया जिनके द्वारा सामान्यतः अदृश्य बहुत सी वस्तुओं को देखा जा सका। बाद में इनका उपयोग मानव शरीर, विभिन्न द्रव्यों की संरचना तथा अणुओं के विन्यास के परीक्षण में किया गया। 1897 में जे. जे. टामसन ने परमाणु में इलैक्ट्रॉन की उपस्थिति की खोज की और परमाणु की अविभाज्यता की विचारधारा को चुनौती दी। 1900 में आइन्स्टाइन ने अपने आपेक्षिकता सिद्धांत के आधार पर विभिन्न खगोलीय पिंडों की गति और परमाणु में इलैक्ट्रॉनों की गति के मध्य सादृश्य स्थापित किया और ब्रह्माण्ड की क्रमबद्धता की व्याख्या की। आइन्सटाइन का यह आविष्कार कि द्रव्य और परस्पर परिवर्तनीय हैं, एक वास्तविक सफलता थी क्योंकि इससे परमाणु में स्थित ऊर्जा के विपुल स्रोत के आविष्कार का मार्ग प्रशस्त हुआ। 1911 में रदरफर्ड ने एक ऐसे परमाणु-प्रतिरूप को प्रस्तुत किया जिसके केन्द्र में न्यूक्लिएस और उसके चारों और इलैक्ट्रॉन परिक्रमा करते हैं। 1913 में नील बोर ने रदरफर्ड के प्रतिरूप को मैक्सप्लांक के विचारों के साथ संयुक्त कर, परमाणु का एक नया प्रतिरूप प्रस्तुत किया। तब ही से क्वांटम-भौतिकी का अध्ययन प्रारंभ हुआ। बाद में, नील बोर का प्रतिरूप भी ठीक नहीं पाया गया और एक नया प्रतिरूप स्वीकार किया गया।
   1932 में चैडविक ने परमाणु के न्यूक्लिएस में दो प्रकार के कणों की उपस्थिति का पता लगाया, इनमें एक विद्युत - धनात्मक प्रोटॉन और दूसरा विद्युत - उदासीन न्यूट्रॉन था। 1934 में एनरिको फर्मो ने एक परमाणु के न्यूट्रॅान को दूसरे परमाणु के न्यूक्लिएस पर बमबारी कर उसे परिवर्तित किया। इस प्रकार मानव निर्मित पहला तत्व, प्लूटोनियम प्राप्त हुआ। इसके बाद कई नए तत्वों और अनेक समस्थानिकों का उत्पादन हुआ। 1934 में लियो स्लिर्ड ने श्रंखल-अभिक्रिया की धारणा को प्रस्तुत किया और 1938 में एनरिको फर्मी, पोषित श्रंखल-अभिक्रिया को सफलतापूर्वक सम्पन्न करने में समर्थ हो सका। 1939 में हंस बीथी ने हाइड्रोजन परमाणु का हीलियम परमाणु में रूपांतरण का प्रयोगात्मक निदर्शन किया। इन सभी निष्कर्षों से यह सिद्ध हुआ कि परमाणु वास्तविक, विभाज्य तथा उत्परिवर्तनीय हैं और इस प्रकार मानव जाति को ऊर्जा के अथाह स्रोत की संभावना का पता चला।
   परमाणु की कहानी उस समय तक अधूरी रहेगी जब तक कि अनुवर्ती नए आविष्कारों का उल्लेख न किया जाए। 1939 में अर्थात् नए आविष्कारों के थोड़े समय बाद, दूसरा विश्व युद्ध छिड़ गया। सभी बड़ी शक्तियों ने अपने वैज्ञानिकों और प्रौद्योगिकीविदों को नए परमाणु अस्त्रों को विकसित करने के लिए अभिप्रेरित किया। ब्रिटिश और अमरीका के तथा कई अन्य देशों के वैज्ञानिकों तथा प्रौद्योगिकीविदों के संयुक्त प्रयासों के फलस्वरूप संयुक्त राष्ट्र अमरीका में परमाणु बम का सफल परीक्षण हुआ। इन परमाणु बमों का प्रयोग जापान के हीरोशिमा और नागासाकी नगरों पर किया गया। इस प्रकार दूसरे विश्व युद्ध का अंत तो हुआ परंतु विज्ञान को बदनामी मिली।
   जो वैज्ञानिक परमाणु के अध्ययन में कार्यरत थे अब उन्होंने समाज पर अपने अनुसंधानों के परिणामों के बारे में गंभीर चिन्ता प्रकट की है। आइन्स्टाइन के नेतृत्व में उन्होंने परमाणुओं के अध्ययन के गंभीर जोखिमों के बारे में चेतावनी दी है। उन्होंने परमाणु-अनुसंधान पर कठोर नियंत्रण की सिफारिश की है। श्रंखल-अभिक्रिया के आविष्कारक, लियो स्लिर्ड ने न्यूक्लीय विज्ञान का अध्ययन त्याग कर जैविकी का अध्ययन प्रारंभ कर दिया है। उसने न्यूक्लीय अस्त्रों की अत्यधिक वृद्धि के विरोध में विश्व जनमत तैयार किया और शान्ति स्थापित करने के लिए संघर्ष किया।

मूल विज्ञानों, प्रौद्योगिकी तथा विकास के मध्य संबंध

  मूल विज्ञानों में जिन सफलताओं के कारण दूसरी औद्योगिक क्रांति में तीव्र प्रगति हुई, वे निम्नलिखित हैं -
- आनुवंशिकी के सिद्धान्तों की जानकारी,
- आनुवंशिकी के भौतिक और रासायनिक आधार,
- परमाणु की प्रकृति की जानकारी,
- द्रव्यमान और ऊर्जा की परस्पर परिवर्तनशीलता,
- उपपरमाण्विक कणों तथा समस्थानिकों की खोज,
- विभिन्न भौतिक तथा रासायनिक अभिकर्मकों द्वारा उत्परिवर्तन,
- अर्धचालक तथा अतिचालक,
- जीन का आण्विक आधार,
- नए द्रव्यों का कृत्रिम उत्पादन,
- ऐंटीबायोटिक्स।
   मूल विज्ञानों के क्षेत्र में ये सभी विकास तथा अनुवर्ती निष्कर्ष नई प्रकार की प्रौद्योगिकी के कारण संभव हो सके। सूक्ष्मस्तर पर विवरणों को देखने के लिए कला विपर्यास, व्यतिकरण तथा इलैक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी जैसे उपस्करों का प्रयोग किया गया। इलैक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी के द्वारा 100,000 से 200,000 गुना आवर्धन प्राप्त होता है। दूर स्थित ग्रहों, नक्षत्रों तथा अन्य खगोलपिंडों के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए सशक्त दूरबीनों तथा स्पैक्ट्रमदर्शियों का विकास किया गया। निष्कर्षण, पृथ्क्करण, विश्लेषण, मिश्रण तथा विभिन्न पदार्थों के अंतरण के लिए परिष्कृत उपस्कर का प्रयोग करते हुए नई तकनीकें विकसित हुईं। इलैक्ट्रॉनिकी तथा लेसर के आगमन से मशीन तथा स्वचालित यंत्रो के अंदर मशीनों के समावेश का अवसर प्राप्त हुआ।
   आनुवंशिकी के नियमों की जानकारी न होने के कारण बहुत समय तक मनुष्य उन्नत जातियों को प्राप्त करने के लिए पादपों तथा प्राणियों का वरणात्मक पोषण कर रहा था। आनुवंशिकी के आगमन से प्राणि तथा पादप पोषण में बहुत उन्नति हुई।
   स्वतः या कृत्रिम रूप से होने वाले अधिकांश उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) जीवों के लिए हानिकर पाए गए। मानव प्रयोग के लिए पादपों तथा प्राणियों की नई उपजातियों को प्राप्त करने के लिए कुछ उत्परिवर्तित रूपों का वरणात्मक चयन किया गया। इसके विपरीत विकिरण तथा इससे उत्पन्न उत्परिवर्तन का स्वास्थ्य पर पड़ने वाले कुप्रभावों ने जीवों के सांतत्य को आशंकित कर दिया है। एक्स किरणों के अत्यधिक प्रयोग, रसायन-उद्योगों, न्यूक्लीय रिएक्टरों, समस्थानिकों के प्रयोग तथा न्यूक्लीय विस्फोटों से ऐसे विकिरण प्राप्त होते हैं।
   जापान में अतिचालक अनुसंधान के क्षेत्र में आधुनिक प्रगति से नए प्रकार के द्रव्यों की संभावनाओं का मार्ग प्रशस्त हुआ है। आशा की जाती है कि इन द्रव्यों की चुंबकी, शक्ति प्रेषण, परिवहन तथा इलैक्ट्रॉनिकी में महत्वपूर्ण भूमिका होगी। ठोसावस्था भौतिकी के अध्ययन के फलस्वरूप, ट्रांजिस्टरों तथा एकीकृत परिपथों का आविष्कार हुआ जिससे वाल्व आधारित संचार प्रौद्योगिकी का पूर्णतः बहिष्कार हो गया है।
   अंतर्राष्ट्रीय भूभौतिकी वर्ष के दौरान प्राप्त निष्कर्षों से पैट्रोलियम उद्योग, हीरों के व्यावसायिक संश्लेषण तथा रेडियोएक्टिव क्षय को भली प्रकार समझने में सहायता मिली है। भूकम्प विज्ञान भी अद्यतन हुआ है। आज नई संचार-प्रौद्योगिकी और उपग्रहों के माध्यम से चक्रवातों, तूफानों, बाढ़ों तथा अन्य दैवीय विपत्तियों का यथार्थ पूर्वानुमान करना संभव है।
   दूसरी औद्योगिक क्रांति के दौरान हुए विभिन्न विकासों से, मानव-जनसंख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। पृथ्वी पर कोई भी ऐसा पर्यावरण नहीं है जहाँ मानव न पहुँच सका हो, चाहे वह हिम आच्छादित ध्रुवीय क्षेत्र हो, उष्णतम रेगिस्तान हो, उच्चतम पर्वत हो, गहरा समुद्र हो, सघन वन हो अथवा विशाल घास स्थल हो। प्रौद्योगिकी के प्रयोग द्वारा आज मानव जाति ने भू-पृष्ठ के लगभग प्रत्येक भाग को रहने योग्य बना दिया है। गाँवों से नगरों तथा पृथ्वी के सभी क्षेत्रों की ओर मनुष्यों का अत्यधिक अभिगमन हुआ है।
   ध्यान देने योग्य बात यह है कि जो कुछ भी विकास हुआ है उस सबसे सदैव मानव-कल्याण नहीं हुआ है। अति जनसंख्या तथा उत्पादों के अधिक उपभोग से पर्यावरण विकृति जैसी समस्याएँ सामने आई हैं और विभिन्न प्रकार के तनाव उत्पन्न हुए हैं। हालाँकि पिछले कुछ वर्षों से समस्त विश्व में इन समस्याओं और इनके समाधान के लिए अधिकाधिक चिन्ता प्रकट की जा रही है। ‘‘विश्व के बारे में सोचिए और स्थानिक कर्म कीजिए’’ एक सर्वमान्य आदर्श वाक्य बन गया है।
   अनुवर्ती पृष्ठों में खाद्यान्न, स्वास्थ्य परिवहन तथा संचार जैसे विकासशील क्षेत्रों पर चर्चा की जाएगी ताकि दूसरी औद्योगिक क्रांति के दौरान हुए परिवर्तनों पर प्रकाश डाला जा सके।

खाद्यान्न

  विज्ञान आधारित प्रौद्योगिकी के प्रयोग से खाद्यान्न उत्पादन, खाद्यान्न वितरण और खाद्यान्न उपभोग के क्षेत्रों में आश्चर्यजनक सुधार हुआ है। सभी प्रमुख फसलों, सब्जियों और फलों के उत्पादन में वृद्धि हुई है। उत्तम उपजाति के चयन, उन्नत सिंचाई विधियों, परिष्कृत उपयंत्रों तथा उर्वरक और खाद के रूप में विशिष्ट पोषकों के प्रयोग द्वारा ही यह संभव हो सका है। विभिन्न कीटनाशियों और पीड़कनाशियों का प्रयोग कर खाद्यान्न की खेती तथा भंडारण में होने वाली हानि को पर्याप्त कम किया जा सका हैं। प्राणि-स्रोत से प्राप्त खाद्य उत्पादन में भी इसी प्रकार वृद्धि हुई है। कुक्कुट पालन और पशुविज्ञान में हुई प्रगति तथा मत्स्य-पालन और प्रग्रहण में उन्नत तकनीकों के प्रयोग से ही यह उत्पादन-वृद्धि संभव हुई है। बहुत सी नई खाद्य वस्तुओं का आगमन हुआ है और खाद्य उत्पादन में वृद्धि के लगातार प्रयास किए जा रहे हैं। कोशिका, ऊतक तथा भ्रूण-संवर्धन तकनीकों का अनुप्रयोग, पादप तथा प्राणियों के कृत्रिम पोषण जैसे कार्यों के द्वारा खाद्य उत्पादन में वृद्धि हुई है।
   परिवहन में हुए सुधार से खेतों या उत्पादन स्थल से खाद्यान्नों को दूर-दूर स्थानों तक पहुँचाना संभव हो सका है। इससे उत्पादकों के लिए अच्छे बाजार सुलभ हुए हैं और उनकी आय में वृद्धि हुई है। शीतगृह (कोल्ड स्टोरेज), प्रशीतित ट्रकों और वैगनों के आविष्कार से खराब होने वाली खाद्य सामग्री को दूर-दूर तक पहुँचाना संभव हो सका है।
   खाद्यान्नों को नष्ट होने से बचाने के लिए किए गए उपायों से अधिकतम खाद्य उपभोज्यता प्राप्त हो सकी है। एक बार यह अनुमान लगाया गया था कि खेत में उत्पन्न खाद्यान्न का 30 प्रतिशत भाग हम तक आते-आते नष्ट हो जाया करता है जबकि हमारी कमी को पूरा करने के लिए यह आवश्यकता से अधिक है।
   विभिन्न कृन्तक-नियंत्रण विधियों, अच्छी पैकिंग तथा उन्नत पाक-तकनीकों के प्रयोग से भोजन की उपभोज्यता में सुधार हुआ है। पोषण नामक विज्ञान की नई शाखा ने भोजन उपभोज्यता को अधिक वैज्ञानिक बना दिया है। रेफ्रीजरेटर तथा डीप फ्रीज जैसे गैजेटों के आविष्कार से बहुत सी खाद्य सामग्री को खराब होने से बचाया जा सका है। इन सभी विकासों के फलस्वरूप विश्व के प्रत्येक भाग से भुखमरी को दूर किया जा सका है।

स्वास्थ्य

  स्वास्थ्य स्तर में सुधार से जनसंख्या में वृद्धि हुई है। मानव जाति की जीवन-अवधि में वृद्धि हुई है क्योंकि बहुत सी बीमारियों को नियंत्रित किया जा सका है और उनके शारीरिक स्वास्थ्य में वृद्धि हुई है। सल्फा औषधियों, विशिष्ट मलेरिया रोधी औषधियों, वैक्सीन, हार्मोनों तथा ऐंटीबायोटिक्सों के आविष्कार से बहुत से रोगों को नियंत्रित करने में मनुष्य को सहायता मिली है। चेचक का उन्मूलन संभव हो सका है। कभी प्लेग के कारण लाखों व्यक्ति कालग्रस्त हो जाते थे अब यह बहुत कम पाई जाती है। तपेदिक, टाइफाइड (मियादी बुखार) तथा हैजा आदि बीमारियों का वैक्सीन व औषधियों द्वारा प्रभावी रूप से नियंत्रण किया जा चुका है। कैन्सर और एड्स जैसी कुछ नई घातक बीमारियाँ आज भी मानव जाति के लिए गंभीर चुनौती बनी हुई हैं और इन्हें नियंत्रित करने के उपाय किए जा रहे हैं। पर्यावरणी विकृति के कारण वायु और जल का प्रदूषण हुआ है। ये सब मानव जाति के सामान्य स्वास्थ्य को आशंकित कर रहे हैं। व्यक्तियों के स्वास्थ्य को सुधारने के लिए सभी देशों में अच्छा भोजन पर्यावरणी स्वच्छता में सुधार और समुचित चिकित्सा सुविधाएँ आयोजित की जा रही हैं। रोग की चिकित्सा के स्थान पर उसके निवारण पर अधिक बल दिया जा रहा है। वैयक्तिक स्वास्थ्य महत्वपूर्ण है परंतु सामुदायिक स्वास्थ्य अधिक महत्वपूर्ण है। अच्छे स्वास्थ्य के लिए स्वास्थ्यकर जीवनयापन आवश्यक है। इस प्रयोजन के लिए सभी देशों में स्कूल स्तर पर सुनियोजित स्वास्थ्य शिक्षा का समावेश किया गया है।

परिवहन

ऑटोमोबाइल

  जानवरों द्वारा खींचे जाने वाले वाहन, भाप-रेल इंजन, भाप शक्ति चालित मोटरकार तथा विभिन्न प्रकार के आंतरिक दहन इंजन उन्नीसवीं शताब्दी के प्रमुख परिवहन साधन थे। 1889 में वातिल प्ररूपी टायरों से चाल में वृद्धि संभव हो सकी है। पैट्रोल-डीजल चालित आंतरिक दहन इंजन के आविष्कार से ऑटोमोबाइल महत्वपूर्ण हो गए और यही नहीं कुछ देशों में तो परिवहन के प्रमुख साधन बन गए। यू. एस. ए. में हेनरी फोर्ड ने अपनी फैक्टरी में वाहित्र पट्टा तंत्र का प्रारंभ किया जिससे मोटरकार की उत्पादन-दर में वृद्धि हुई। अन्य देशों में भी इसी प्रकार की यंत्रावली अपनाई गई। बसों के माध्यम से सार्वजनिक परिवहन प्रणाली का विकास हुआ। मालवाहक के रूप में पिकअप गाड़ियों और विशाल परिवहन ट्रकों का प्रयोग किया जाने लगा जिन्होंने रेलगाड़ी के साथ कड़ा मुकाबला किया। गश्त लगाने तथा सुरक्षा कार्यों के लिए जीप तथा विभिन्न प्रकार के वाहन बनाए गए।
   ऑटोमोबाइलों के पदार्पण से सड़कों तथा महामार्गों का सुधार हुआ। सड़कों के किनारे खुदरा पैट्रोल-संभरण-केन्द्र, जहाँ वाहनों की सेवा व मरम्मत की सुविधाएँ उपलब्ध थीं, स्थापित किए गए ताकि वाहनों का निर्बाध चालन होता रहे। यातायात में वृद्धि होने पर यातायात-निगम बनाए गए तथा कुछ संकेत अपनाए गए जिन पर अंतर्राष्ट्रीय सहमति थी। भाषा के ज्ञान के बिना भी सभी चालक इन संकेतों को समझते हैं। ऑटोमोबाइलों में वृद्धि से दुर्घटनाओं तथा संकट में वृद्धि हुई। बड़े नगरों में यातायात रूकावटें तथा गाड़ी-स्थान में कमी एक गंभीर समस्या बन गई।

रेलगाड़ी

  यात्रियों तथा माल के वहन के लिए रेलगाड़ियाँ सबसे बड़ी वाहक हैं। भाप इंजनों के स्थान पर डीजल तथा विद्युत इंजनों का प्रयोग किया जाने लगा जिससे प्रदूषण-स्तर कम रखते हुए यात्री तथा माल वहन क्षमता में वृद्धि हुई। विकसित देशों में वायु तथा सड़क यातायात में वृद्धि से रेलगाड़ियों का महत्व कम हो गया, परंतु विकासशील देशों में रेलगाड़ियाँ आधुनिक परिवहन का अभी भी प्रमुख साधन हैं।

भाप नौक और परिभ्रामी यान (हाबर क्राफ्ट)

  भाप इंजन सज्जित यान से माल तथा यात्रियों के द्रुत आवागमन में सुविधा हुई है। संयुक्त भाप इंजन तथा भाप टर्बाइन के प्रयोग से नौकाओं की चाल में वृद्धि हुई है। तेल या डीजल इंजन तथा डीजल-विद्युत इंजन के आविष्कार से ऐसे विशाल तथा द्रुत समुद्रगामी यानों का आगमन हुआ जो अधिक भार ले जा सकें। हवाई यात्रा में वृद्धि से ऐसे यानों का प्रयोग मुख्यतः माल-वहन या तेल टैंकरों के रूप में किया जाने लगा। क्रीड़ा, मत्स्यन तथा गश्त लगाने के लिए हल्की मोटरबोटों का विकास किया गया। परिभ्रामी यान एक नया आविष्कार है, ये यान जलगामी भी हैं।

उड़न यान

  मनुष्य की शताब्दियों पुरानी उड़ने की इच्छा ने बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में व्यवहारिक रूप लिया और अगले 80 वर्षों में मनुष्य बाह्य अंतरिक्ष में प्रवेश कर चन्द्रमा की सतह पर टहलने लगा और उसने दीर्घ अवधि तक बाह्य अंतरिक्ष में वास किया। यह एक आश्चर्यजनक उपलब्धि थी जो भौतिक विज्ञानों में प्रगति तथा नए ईंधन तथा नई सामग्री के विकास के कारण संभव हो सकी। नोदक चालित पैट्रोल ईधन युक्त वायुयान, जेट नोदित हो गए। हल्की सामग्री का प्रयोग कर बड़े आमाप के यानों की रचना की गई। व्यवसायिक रूप से पहले अंतर्देशीय चालन, तत्पश्चात् अंतर्राष्ट्रीय चालन के लिए नागरिक परिवहन विकसित हुआ। प्रारंभ में इसका उद्देश्य केवल यात्रियों, डाक तथा खराब होने वाली सामग्री को ले जाना था। धीरे-धीरे इसके द्वारा भारी वस्तुओं का वहन भी प्रारंभ हो गया। आज यात्री यान (कान्कार्ड), ध्वनि की चाल से भी अधिक चाल से गमन कर सकता है। यात्रियों के वहन तथा सैन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के अतिरिक्त हैलीकॉप्टरों का प्रयोग, वनरक्षण में किया जाता है। कीटनाशी फुहारन, हवाई सर्वेक्षण, दूरस्थ क्षेत्रों के साथ सम्पर्क बनाए रखने में तथा दैवीय विपत्तियों से ग्रस्त व्यक्तियों को राहत पहुँचाने में हैलीकॉप्टरों का प्रयोग किया जाता है।
   वायु उड़ानों में वृद्धि होने के कारण अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्य, सुरक्षा तथा स्वास्थ्य संबंधी मानक विनियमों तथा प्रक्रियाओं का विकास किया गया। कई इलैक्टॅ्रानिकी प्रचालित परिष्कृत उपस्कर के समावेश से भूनियंत्रण तंत्र (उड़ान तथा अवतरण) में सुधार हुआ है।

ट्राम तथा मैट्रो

  यात्रियों के आवागमन को सुविधाजनक बनाने के लिए अंतर्नगरीय द्रुत परिवहन का प्रचालन हुआ। विश्व के बहुत से नगरों में अश्व कर्षित और बाद में विद्युत ट्रामों का प्रचालन हुआ। सड़क यातायात में भीड़ के कारण बहुत से नगरों में ट्रामों का प्रचलन बंद हो गया (लंदन में आखरी ट्राम 1952 में देखी गई तथा दिल्ली में ट्रामों ने 1950 के मध्य दशक में विदा ली)। बहुत से नगरों में उच्च चाल उपनगरी रेलगाड़ियाँ चलने लगी हैं। रज्जुपथ द्वारा यात्रियों को एक तल से उच्चतर तल तक उठाया जाने लगा है। भूमिगत द्रुतगामी रेलगाड़ी का निर्माण आर्श्चयजनक कौशल का उदाहरण है (लंदन 1863, ग्लासगो 1895, मास्को 1920 का दशक कलकत्ता 1980 का दशक)।

दोपहिया वाहन

  प्रमुख नगरों और महानगरों में यात्रियों तथा माल के वाहन के लिए अभी भी मंदगामी वाहनों का प्रयोग किया जाता है। प्राणी या मनुष्य द्वारा खींची जाने वाली गाड़ियाँ तथा रिक्शे इन्हीं के अंतर्गत आते हैं। साइकिल, जिसे पहला यांत्रिक वाहन माना गया है और जो गतिशीलता प्राप्त करने का प्रथम चरण और विश्व के अन-औद्योगिक भागों में निर्धनता या अलगाव से ग्रस्त व्यक्तियों के लिए आधुनिक युग का प्रतीक है, आज भी परिवहन का एक प्रमुख साधन है। बाद में, साइकिल में इंजन लगा दिया गया। सशक्त इंजन के प्रयोग से मोटर साइकिल का विकास हुआ। 1960 के दशक से स्कूटर के रूप में अपेक्षाकृत हल्का और सस्ता वाहन अधिक लोकप्रिय हो गया। सड़क यातायात के दबाव के कारण साइकिलों का प्रचलन कम हो गया परंतु तेल संकट के कारण साइकिल का महत्व पुनः बढ़ गया।
   सशक्त तिपहिया वाहन का संशोधित रूप टैम्पो है जो माल वहन के काम आता है। मोटर साइकिलों का प्रयोग गश्त लगाने तथा संदेश ले जाने के लिए किया जाता है। गोआ (संभवतः विश्व का यही एक ऐसा स्थान है) में मोटर साईकिल का प्रयोग, टैक्सी के रूप में यात्रियों को ले जाने के लिए किया जाता हैं।
   इन सभी विकासों से प्रत्येक देश के अंदर और समस्त विश्व में पर्यटन में प्रचुर वृद्धि हुई है जिसके परिणामस्वरूप पर्यटन एक प्रमुख नया उद्योग हो गया है।

अतंरिक्ष यात्रा

  1900 तक उड़ना एक स्वप्न था परंतु अगले 50 वर्षों में अतंरिक्ष युग ने वायु-युग का स्थान ले लिया है कल्पना वस्तुतः साकार हो गई है। सर्वप्रथम 4 अक्टूबर 1957 को सोवियत स्पूतनिक ने कक्षा में प्रवेश किया। कुछ ही सप्ताह बाद, अन्य स्पूतनिक ने एक कुत्ते के साथ अंतरिक्ष यात्रा की। आगामी वर्षां में कई उपग्रह वैज्ञानिक उपस्कर तथा अनुसंधान प्राणियों के साथ अतंरिक्ष यात्रा कर, भूमि पर वापस आ गए। असंख्य फोटो तथा टेलीविजन चित्र अंतरिक्ष से प्राप्त हुए तथा अंतरिक्ष के ताप, रेडियोएक्टिवता तथा अन्य विभिन्न अवस्थाओं के बारे में विस्तृत आंकड़ों का विश्लेषण किया गया। तत्पश्चात्, मनुष्य की अंतरिक्ष उड़ान का मार्ग प्रशस्त हुआ। 12 अप्रैल 1961 को अंतरिक्ष यात्री, यूरी गैगेरिन बाह्य अंतरिक्ष में जाकर वापस आने वाला प्रथम व्यक्ति था यह घटना तथा इसके बाद जो कुछ घटित हुआ वह वर्तमान इतिहास का एक भाग है। बाह्य अंतरिक्ष में कृत्रिम उपग्रह छोड़े गए और वे पृथ्वी के चारों ओर परिक्रमा लगाते रहे, मनुष्य ने चन्द्रमा की सतह पर भ्रमण किया, आकाश में तैरा और एक अंतरिक्ष यान का दूसरे अंतरिक्ष यान के साथ गठबंधन किया गया। कुछ व्यक्तियों ने सामूहिक यात्रा की तथा अंतरिक्ष यात्री अपेक्षाकृत दीर्घकाल तक अंतरिक्ष में रहे। उपग्रहों का प्रयोग रक्षा कार्यों तथा अन्य देशों की जासूसी करने के लिए भी किया गया। उपग्रह द्वारा संचार से विश्व समीप आ गया।

पाइप लाइन

परिवहन के बारे में चर्चा तब तक अधूरी रहेगी जब तक कि स्रोतों से परिष्करणशालाओं तथा वितरण-केन्द्रों तक पैट्रोलियम-उत्पादों और प्राकृतिक गैसों का वहन करने वाली सारे विश्व में बिछी पाइप लाइनों का उल्लेख न किया जाए। कहीं-कहीं पाइप लाइनों का प्रयोग ठोस चूर्णित कोयले, चूना-पत्थर, सीमेंट तथा भवन निर्माण सामग्री के परिवहन में भी किया जाता है। ये पाइप लाइनें लगभग सभी देशों में देखी जा सकती हैं परंतु ये विशेष रूप से यू. एस. ए., यू. एस. आर., खाड़ी देशों तथा भारत में उपलब्ध हैं।

संचार

संचार माध्यम के रूप में डाक सेवा, तार तथा टेलीफोन उन्नीसवीं शताब्दी में स्थापित किए गए थे। पुस्तकों, मैगजीनों, पत्रिकाओं तथा समाचार पत्रों के रूप में मुद्रित सामग्री उन्नीसवीं शताब्दी में उपलब्ध थी। टेलीफोन का आविष्कार उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में हुआ। मारकोनी ने 1896 में रेडियो टेलीग्राफी विकसित की जिसका आज भी प्रयोग होता है। बीसवीं शताब्दी में विकसित संचार-तंत्र का उद्देश्य, संचार का सबसे तीव्रगामी साधन सुनिश्चित करना तथा सूचना का भंडारण कर आवश्यकता पड़ने पर उसकी शीघ्र पुनः प्राप्ति था।
   इस दिशा में पहली सफलता 1906 में प्राप्त हुई जब ली डि फारेस्ट ने निर्वात नलिका का आविष्कार किया। यह नलिका टेलीफोन-आवेगों में वृद्धि तथा श्रव्यता को आवर्धित करने में सहायक हुई। बाद में, इसकी सहायता से टेलीविजन तथा रडार प्रतिबिम्ब प्राप्त हुए। धीरे-धीरे मूल वाल्वों में भी सुधार किया गया। बड़े आमाप के अल्पकालीन वाल्वों के स्थान पर छोटे आमाप के दीर्घकालीन वाल्वों का प्रयोग किया जाने लगा। सभी प्रकार के संचार में संप्रेषण शक्ति और गुणता में सुधार हुआ। 1927 में ऋणात्मक पुनर्निवेश नामक आविष्कार से संचार में विरूपण में कमी आई। विरूपण को कम करने के लिए बाद में कई अन्य युक्तियों का आविष्कार हुआ। रेडियो प्रसारण का प्रारंभ 1920 में हुआ जो लगभग एक साथ सारे विश्व में फैल गया। विश्व के समस्त देशों के मध्य रेडियो टेलीफोन संबंध स्थापित हुए। प्रेस संवाददाता समाचार के साथ रेडियो चित्र भेजने में समर्थ हुए।
   अगली सफलता 1948 में मिली जब ब्रिटेन तथा बारडीन ने ट्रांजिस्टर का आविष्कार किया। वाल्वों का स्थान, ट्रांजिस्टरों ने ले लिया जो वाल्वों की भाँति कार्य करते हैं परंतु कम स्थान घेरते हैं और इनसे ऊष्मा भी नहीं उत्पन्न होती। सिलिकन चित्र पर एकीकृत परिपथ के विकास से संचार और भी सुकर हो गया। सभी संचार-यंत्रावली सशक्त हो गई। रेडियो सेट के वहन में कठिनाई थी। अब रेडियो सेट का कार्य जेब में रखे जाने वाले ट्रांजिस्टरों ने किया। टेलीविजन का आगमन ब्रिटेन, यू. एस. ए. और जर्मनी में 1927 में हुआ और 1945 के बाद इनका सभी जगह विस्तार हो गया। बाद में, टेलीविजन पर रंगीन चित्र भी प्राप्त होने लगे। सूचना का भंडारण और पुनः प्राप्ति अब तक प्रिंट माध्यमों, रिकार्डों (डिस्कों, टेप, स्पूल, टाइप, कैसेट टेप, कम्पैक्ट डिस्क), फिल्मों तथा सूक्ष्म फिल्मों पर की जाती थी। अब तक कम्प्यूटरों का आविष्कार हो चुका था जो सूचना के भंडारण और पुनः प्राप्ति का सर्वात्तम साधन सिद्ध हुआ। एकीकृत परिपथ विकसित होने पर माइक्रो कम्प्यूटरों द्वारा सूचना के भंडारण और पुनः-प्राप्ति में और भी प्रगति हुई।
   मुद्रित सामग्री जैसे समाचार पत्रों ने संचार पद्धति में हुए विकासों का सर्वाधिक लाभ उठाया। समाचार प्रेषण तथा मुद्रण में टेलीफोन तथा रेडियो के साथ माइक्रो कम्प्यूटरों द्वारा आमूल परिवर्तन हुए। इलैक्ट्रॉनी डाक, फैक्स मशीन तथा डेस्क टॉप मुद्रण मशीन आदि कम्प्यूटर प्रौद्योगिकी के विस्तार के कुछ उदाहरण हैं।

युद्ध सामग्री का विकास

  आदि काल से ही मानव जाति, आखेट व अपनी सुरक्षा के लिए अस्त्र शस्त्रों का प्रयोग करती आई है। अश्म निर्मित शस्त्रों के स्थान पर धातुनिर्मित शस्त्रों के विकास तथा बारूद के प्रयोग का एक लम्बा इतिहास रहा है। युद्ध में द्रुत गति तथा भार वहन के लिए हाथियों, ऊँटों तथा घोड़ों का प्रयोग तथा संरक्षी कवचों का उपयोग बहुत दिनों से हो रहा है। प्रथम विश्व युद्ध, खाई युक्त युद्ध क्षेत्रों तथा काँटेदार तार युद्ध, घेराबंदी तक सीमित था और यह बंदूकों तथा तोपों से लड़ा गया था। दूसरे विश्व युद्ध का प्रारंभ एक पूर्ण युद्ध के रूप में हुआ जिसमें सभी उद्योगों को युद्ध की आवश्यकताओं के लिए अनुकूलित किया गया था। रेलगाड़ियों तथा सड़क परिवहन का प्रयोग सैनिकों के वहन के लिए किया गया था। वायुयानों को बमवर्षक और लड़ाकू विमानों के रूप में परिणत किया गया। नागरिक क्षेत्र, विशेषकर जहाँ उद्योग अवस्थित थे, युद्ध लक्ष्य हो गए। अविजेय प्रतीत होने वाले विभिन्न प्ररूपी टैंकों का प्रयोग किया गया। बंदूकों, राइफलों तथा गोलों में सुधार किया गया ताकि वे दूर स्थित लक्ष्यों पर भी मार कर सकें। दूर स्थित लक्ष्यों पर आक्रमण करने के लिए बमों के वहन के लिए रॉकेटों का प्रयोग किया गया। शत्रुपोतों को नष्ट करने के लिए पनडुब्बियों का प्रयोग किया गया। मूल स्थान से अग्रिम क्षेत्रों के मध्य संचार द्रुत हो गया और निगरानी अधिक परिशुद्ध हो गई। आक्रमणकारी यंत्रावली में ही नहीं अपितु सुरक्षात्मक यंत्रावली में भी संशोधन हुआ। रेडियो तथा टेलीविजन का प्रयोग प्रचार तथा समाचार प्रसारण में किया गया।
   परमाणु बमों के प्रयोग के उपरांत दूसरे विश्व युद्ध का अंत हुआ। शांति तो स्थापित हुई परंतु एक गंभीर आशंका व्याप्त हो गई। एक शीत युद्ध का प्रारंभ हुआ और विनाशकारी अस्त्र-शस्त्रों के भंडारण की एक होड़ लग गई। विखंडन बम अर्थात् परमाणु बम के बाद संलयन बम अर्थात् हाइड्रोजन बम का आविष्कार हुआ। न्यूक्लीय बमों का वहन करने वाली ऐसी सशक्त मिसाइल विकसित हुईं जो दूर स्थित लक्ष्यों को अल्पतम संभव समय में भेद सकें। पनडुब्बियाँ न्यूक्लीय चालित हो गईं और बमवर्षक और लड़ाकू विमानों का वहन करने वाले वायुयान-वाहकों का आविष्कार हुआ। रासायनिक शस्त्र (विषैली गैस) और जैविक शस्त्र (कीटाणु युद्ध) भी विकसित हुए। कोरिया वियतनाम, ईराक-ईरान, भारत-पाकिस्तान जैसे कई स्थानों पर स्थानीयकृत परंतु विनाशकारी युद्ध जिनमें न्यूक्लीय अस्त्रों के अतिरिक्त कई नए शस्त्रों का प्रयोग किया गया। मिसाइलों, रॉकेटों, टैंकों, वायुयान, हैलीकॉप्टरों, नापाम बम और विषैली गैसों जैसे नए शस्त्रों और युद्धों के साधनों की विश्व ने विस्मयकारी विनाश लीला देखी। बाह्य अतंरिक्ष की विजय ने अस्त्र-शस्त्र की होड़ के एक नए आयाम के द्वार खोल दिए हैं। रडार-जालक्रम, ऐंटीमिसाइल युक्तियों तथा सुरक्षा के लिए भूमिगत आश्रयों पर बहुत से राष्ट्रों ने विपुल धनराशि व्यय की है। यहाँ तक कि शांति के दौरान भी अधिकांश राष्ट्र युद्ध स्थिति में हैं। इसका परिणाम यह है कि वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी के विकास का एकल महत्वपूर्ण क्षेत्र, सुरक्षा उन्मुख है।

विज्ञान और प्रौद्योगिकी में एक अन्य क्रांति

  हाल ही के दशकों में विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी की वृद्धि दर और भी अधिक तीव्र हो गई है। उदाहरणार्थ, वायुयान ने 1931 में पूर्णता प्राप्त की। अगले 30 वर्षों में बाह्य अंतरिक्ष में पहुँचना संभव हो सका। प्लास्टिक और रेयॉन का आविष्कार दूसरे विश्व युद्ध के दौरान हुआ और अगले बीस वर्षों में इन्होंने धीरे-धीरे धातु और प्राकृतिक तंतुओं का स्थान ले लिया। दूसरे विश्व युद्ध में पेनिसिलीन एक चमत्कारिक औषधि के रूप में सामने आई और अगले बीस वर्षों में अनेक ऐंटीबायोटिक्स विकसित हुए। डी.एन.ए. की आण्विक संरचना का 1953 में आविष्कार हुआ और अगले बीस वर्षां के अंदर ही जीनों में हेरफेर संभव हो सका।
   जब सर्वप्रथम कम्प्यूटर का समावेश हुआ तो इसमें विद्युत प्रचालित नलिकाओं का प्रयोग किया जाता था और इसको संस्थापित करने के लिए सम्पूर्ण भवन की आवश्यकता होती थी। सिलिकन चिपों का प्रयोग करने पर यह मेज पर रखा अधिक सूचना भंडारण क्षमता वाला एक माइक्रो कम्प्यूटर प्रतीत होता है। उत्तम भंडारण क्षमता के लिए सिलिकन चिपों के स्थान पर प्रकाशिक तंतुओं तथा साइटोक्रोम C के प्रयोग के प्रयास जारी हैं।
   कृत्रिम संश्लेषण और पृथक्करण और विलगन की सूक्ष्मतर तकनीकों से रासायनिक उद्योग के क्षेत्र में नए युग का प्रारंभ हुआ और संसाधनों के रूप में कई अपरिष्कृत सामग्री की माँग में कमी आई है। आनुवंशिकी में नए निष्कर्षों को कृषि और कुक्कुट पालन में प्रयोग किया गया है और सभी देशों में खाद्य उत्पादन में वृद्धि हुई है।
   हम एक नई वैज्ञानिक तथा प्रौद्योगिक क्रांति से गुजर रहे हैं। विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी में अनुसंधान, आर्थिक विकास का एक अभिन्न अंग हो गया है। बीसवीं शताब्दी में वृद्धि के दौरान विज्ञान की प्रकृति में परिवर्तन आ गया है। व्यक्ति आधारित अवैयक्तिक विज्ञान ने अब संस्थागत, लागत प्रधान तथा सार्वजनिक कार्यकलाप का रूप ले लिया है। औद्योगीकरण के साथ-साथ विज्ञान ने मनुष्य का प्रत्येक कार्यकलाप और मानव जीवन के प्रत्येक पहलू को प्रभावित किया है।

सतत समस्याएँ

  आधुनिक विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी का सर्वप्रथम उद्गम, पश्चिम के कुछ देशों में हुआ तथा साथ ही साथ, समाज और अर्थव्यवस्था में हुए परिवर्तनों के कारण इन देशों ने विश्व के शेष भाग पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष, इस उपनिवेशी शासन के कारण देशों में अत्यधिक असमानताएँ हो गईं जो आज भी बनी हुईं हैं। विश्व के अधिकांश देशों में वैज्ञानिक तथा प्रौद्योगिक पिछड़ापन उनके कम विकसित रहने का प्रमुख कारण है। मानव इतिहास में पहली बार, विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी के द्वारा भुखमरी, कुपोषण, अभाव और मानव जीवन के लिए घातक बहुत सी बीमारियों का बहिष्कार संभव हो सका है। हालाँकि, विश्व की अधिकांश जनसंख्या के लिए ये सब समस्याएँ अभी भी बनी हुईं हैं। केवल कुछ ही देशों में विज्ञान आधारित औद्योगिक विकास से प्राप्त सम्पत्ति के असमान वितरण के कारण विश्व, विकसित और विकासशील देशों में बँट गया है। दोनों प्रकार के देशों में असमानताएँ न केवल जारी हैं अपितु उनमें वृद्धि हो रही है। यद्यपि, विज्ञान और प्रौद्योगिकी के प्रयोग द्वारा यदि इन असमानताओं को बिल्कुल दूर न किया जा सके परंतु इन्हें कम करना तो संभव है। राष्ट्रीय संसाधन का एक पर्याप्त भाग, सुरक्षा के नाम पर विनाशकारी युद्ध सामग्री तथा अस्त्रों के विकास पर व्यय किया जाता है। 1970 के दशक में लाखों व्यक्ति भूख से मरे तथा लाखों व्यक्ति कुपोषण के कारण धीरे-धीरे कालग्रस्त हुए। भारत में एक तिहाई बच्चे ऐसी बीमारियों के कारण कालग्रस्त होते हैं। जिनका निवारण संभव है।
   निर्धनता, बीमारी और पर्यावरणी प्रदूषण जैसी विश्व की बहुत सी समस्याएँ, केवल विज्ञान के द्वारा और सभी राष्ट्रों के सामूहिक प्रयास द्वारा हल की जा सकती हैं। सारे विश्व में इस बात का अधिकाधिक अहसास किया जा रहा है और विभिन्न समस्याओं को अंतर्राष्ट्रीय प्रयासों द्वारा हल करने की दिशा में सार्थक प्रयास किए गए हैं। विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय संगठनों, विशेषकर यूनेस्को और उसके कई विशिष्ट अभिकरणों जैसे डब्ल्यू. एच. ओ., यूनीसेफ, तथा एफ. ए. ओ. के इस दिशा में किए गए प्रयास, विशेष रूप से सराहनीय हैं।
   जहाँ एक ओर विज्ञान और प्रौद्योगिकी ने पहली बार विश्व को अभावों और गरीबी से छुटकारा दिलाया है वहाँ दूसरी ओर इसने पहली बार सम्पूर्ण मानव जाति को विनाश के कगार पर ला दिया है। जैसे-जैसे विश्व इक्कीसवीं शताब्दी के प्रारंभ की ओर बढ़ रहा है, वहाँ मानव जाति को दो विकल्पों अर्थात् न्यूक्लीय युद्ध तथा पर्यावरणी विकृति से उत्पन्न विनाश और एक विश्व के नागरिक के रूप मे सहअस्तित्व के द्वारा जीवन यापन में से किसी एक विकल्प को चुनना होगा।