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राजपूत राज्य एवं लोधी वंश
दिल्ली सल्तनत की बढ़ती हुई दुर्बलता और तैमूर द्वारा दिल्ली पर आक्रमण के दौरान तुगलक सुल्तान की अपनी राजधानी छोड़ कर भाग खड़े होने की घटना में कई प्रान्तीय प्रशासकों और स्वायत्ता-प्राप्त रियासतों को अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर देने के लिए उत्प्रेरित किया। दक्षिणी राज्यों के अतिरिक्त पूर्व में बंगाल और पश्चिम में सिन्ध व मुल्तान ने दिल्ली से अपना संबंध विच्छेद करने की पहल की। शीघ्र ही गुजरात, मालवा तथा जौनपुर (पूर्वी उत्तर प्रदेश) के शासकों ने अपनी-अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दी। अजमेर से मुस्लिम प्रशासक को खदेड़ दिये जाने पर राजपूताना की कई रियासतों ने अपने को स्वतन्त्र घोषित कर दिया।
धीरे-धीरे इन क्षेत्रों के राज्यों में एक विशिष्ट प्रकार का शक्ति संतुलन बन गया। पश्चिम में गुजरात, मालवा और मेवाड़ एक दूसरे की शक्ति और प्रसार को रोकने वाले सिद्ध हुए। बंगाल के शक्ति-विकास को उड़ीसा के गजपति शासकों ने रोके रखा। जौनपुर की भी इस कार्य में भूमिका रही। पन्द्रहवीं शताब्दी के मध्य से दिल्ली में लोदियों की उभरती शक्ति, गंगा-यमुना की घाटी पर प्रभुत्व के लिए जौनपुर से लम्बे संघर्ष का कारण बनी। पन्द्रहवीं शताब्दी के अंत में जौनपुर के लोदी साम्राज्य द्वारा विलयन के पश्चात् स्थिति में परिवर्तन होना प्रारंभ हुआ। लोदियों ने पूर्वी राजस्थान और मालवा में अपनी शक्ति का प्रसार प्रारंभ किया। इसी समय आन्तरिक कारणों से मालवा का विघटन शुरू हो गया। इसके परिणामस्वरूप गुजरात, मेवाड़ और लोदियों के मध्य की प्रतिद्वन्दिता और भी तीव्र हो गई। ये तीनों ही शक्तियाँ मालवा पर अपने अधिकार के लिए संघर्षरत हो गईं। ऐसा लगा कि इस संघर्ष में विजयी पक्ष ही उत्तर भारत में प्रभुत्व बना सकेगा। अंतः मालवा पर अधिकार उत्तर भारत में संघर्ष का मूल मुद्दा बन गया। संभवतः इस बढ़े हुए संघर्ष के कारण ही राणा सांगा ने, बाबर को लोदियों की शक्ति को रोकने के लिए आमंत्रित किया। उनका विचार था कि लोदियों की शक्ति नष्ट हो जाने पर इस क्षेत्र में मेवाड़ सर्वाधिक शक्तिशाली हो जायेगा। पूर्वी भारत - बंगाल, असम और उड़ीसाजैसा कि हम पहले ही देख चुके हैं कि बंगाल बराबर दिल्ली सल्तनत के नियंत्रण से मुक्त रहा। इसके कई कारण थे जैसे केन्द्र से दूरी, जलवायु व संचार व्यवस्था, जो मुख्यरूप से जल मार्ग पर आधारित थी व जिसका तुर्कों को विशेष अनुभव नहीं था। मुहम्मद तुगलक द्वारा अन्य क्षेत्रों में विद्रोहियों से संघर्ष में व्यस्त रहने पर बंगाल 1338 में स्वतन्त्र हो गया। चार वर्ष बाद ही एक सरदार इल्यास खान ने लखनौती और सोनारगाँव पर अधिकार कर लिया और सुल्तान शमसुद्दीन इल्यास खान के नाम से गद्दी पर बैठा। उसने पश्चिम में तिरहुत से चंपारन और गोरखपुर तक और अंततः बनारस तक अपने राज्य का विस्तार कर लिया। इससे फिरोज तुगलक उनके विरुद्ध अभियान छेड़ने पर विवश हो गया। इल्यास द्वारा विजित चम्पारन और गोरखपुर से होते हुए फ़िरोज तुगलक ने बंगाल की राजधानी पांडुआ पर अधिकार कर लिया और इल्यास को इकदला के मजबूत किले में छिपने पर मजबूर कर दिया। दो महीने के घेरे के पश्चात् फिरोज ने पलायन का ढोंग करके इल्यास को किले से बाहर आने का लालच दिया। बंगाली फौजों की हार हुई, किन्तु इल्यास एक बार फिर इकदला के किले में जा छिपा। अंत में दोनों में मित्रता की सन्धि हो गई, जिसके अंतर्गत बिहार की कोसी नदी को दोनों राज्यों की सीमा मान लिया गया। यद्यपि इल्यास और फिरोज के बीच उपहारों का आदान-प्रदान होता रहा, इल्यास फिरोज के अधीन नहीं था। दिल्ली के साथ मित्रता के संबंधों के कारण इल्यास को कामरूप (आधुनिक असम) पर अपने प्रभाव को दृढ़ करने का अवसर मिला।इल्यास शाह एक लोकप्रिय शासक था। उसकी बहुत-सी उपलब्धियाँ हैं। जब फ़िरोज पांडुआ में था, जिसका उद्देश्य नगरवासियों को अपने पक्ष में करना था, परन्तु उसका प्रयत्न विफल हो गया तो उसने मलिकों, धर्मशास्त्रियों व अन्य योग्य व मन्द लोगों को मुक्त हस्त से भू-अनुदान प्रदान किये। जिसका उद्देश्य नगरवासियों को अपने पक्ष में करना था, परन्तु उसका यह प्रयत्न विफल हो गया। इस असफलता का कारण संभवतः इल्यास की लोकप्रियता ही थी। फिरोज ने इल्यास की मृत्यु के बाद और उसके पुत्र सिकन्दर के गद्दी पर बैठने पर बंगाल पर दुबारा आक्रमण किया। सिकन्दर ने अपने पिता का तरीका अपनाया और इकदला के किले तक पीछे हट गया। फिरोज एक बार इसे छीनने में असफल रहा। इसके पश्चात् 1538 तक लगभग 200 वर्षों तक बंगाल से किसी ने छेड़छाड़ नहीं की जब तक दिल्ली पर मुगलों का पूर्ण अधिकार नहीं हो गया। इस दौरान शेरशाह ने 1538 में बंगाल पर अपना कब्जा जमाया। वंशों जल्दी-जल्दी बदलने से वहाँ के जन-जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा था। इल्यास शाह के वंश में सबसे प्रसिद्ध सुल्तान ग्यासुद्दीन आजम शाह (1389-1409) हुआ है। वह अपनी न्याय-प्रियता के लिए प्रसिद्ध था। कहा जाता है कि एक बार अनजाने में एक विधवा का पुत्र उसके हाथों से मारा गया। विधवा ने काजी से शिकायत की। सुल्तान को जब अदालत में बुलाया गया तो उसने चुपचाप अपना अपराध स्वीकार कर लिया और काजी द्वारा लगाया गया जुर्माना भर दिया। मुकदमे के अंत में सुल्तान ने काजी को कहा कि यदि तुम अपना कर्तव्य पालन नहीं करते, तो मैं तुम्हारा सिर कलम करवा देता। आजम शाह का अपने समय के प्रसिद्ध विद्वानों के साथ संपर्क था। इनमें से प्रसिद्ध फारसी कवि हाफिज शीराजी भी था। उसने चीनियों के साथ फिर से संबंध स्थापित किए। चीनी सम्राट ने उसके राजदूत का हार्दिक स्वागत किया और 1409 में अपने दूत के हाथों सुल्तान और उसकी बेगम के लिए उपहार भेजते हुए बुद्ध भिक्षुओं को चीन भेजने की प्रार्थना की। आजम शाह ने इस प्रार्थना को स्वीकार कर लिया। इससे यह स्पष्ट होता है कि बंगाल से बौद्ध धर्म पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ था। चीन के साथ फिर से संपर्क स्थापित होने से बंगाल के समुद्री व्यापार में वृद्धि हुई। चटगाँव, चीन के साथ व्यापार के लिए और चीनी माल अन्य देशों को भेजने के लिए एक प्रमुख बंदरगाह बन गया। इस काल में कुछ समय के लिए राजा गणेश के वंश का शासन भी स्थापित हुआ। लेकिन उसके पुत्रों ने मुसलमानों के रूप में ही शासन करना अच्छा समझा। बंगाल के सुल्तानों ने अपनी राजधानियों पांडुआ और गौड़ में भव्य इमारतें बनवायीं। उनकी वास्तुशैली की अपनी विशिष्टाएँ थीं। जो दिल्ली में विकसित भवन-निर्माण शैली से भिन्न थी। इसमें पत्थर और ईंट दोनों का इस्तेमाल किया गया। सुल्तानों ने बंगाली भाषा को भी प्रोत्साहन दिया। ‘श्रीकृषि विजय’ के रचयिता प्रसिद्ध कवि मालधर बसु को सुल्तानों ने वृत्ति प्रदान की और उसे गुणराजा खान की उपाधि दी गई। उसके पुत्र को ‘सत्यराजा खान’ की उपाधि दी गई। किन्तु बंगाली भाषा के विकास का सबसे महत्वपूर्ण काल अलाउद्दीन हुसैन का शासन काल (1493-1519) था। कई प्रसिद्ध बंगाली लेखक उसी के शासन काल में हुए। अलाउद्दीन हुसैन के प्रबुद्ध शासन के अन्तर्गत एक शानदार युग प्रारंभ हुआ। सुल्तान ने कानून और व्यवस्था को फिर से स्थापित किया और हिन्दुओं को ऊँचे पद देकर एक उदार नीति को अपनाया। उसका वजीर एक विद्वान हिन्दू था। उसका मुख्य चिकित्सक, मुख्य अंगरक्षक और टकसाल के मुख्य अधिकारी भी हिन्दू थे। दो विद्वान भाई रूप और सनातन, जो पवित्र वैष्णव माने जाते थे, उसके प्रमुख अधिकारी थे। उनमें से एक उसका निजी सचिव था। कहा जाता है कि सुल्तान प्रसिद्ध वैष्णव संत-चैतन्य का भी बहुत आदर करता था। मुहम्मद बिन वख्तियार खलजी के समय से ही बंगाल के मुस्लिम प्रशासक आधुनिक असम में ब्रहमपुत्र की घाटी को अपने अधिकार में करने का प्रयत्न करते रहे थे, लेकिन उन्हें इस क्षेत्र में अनेक भयंकर पराजयों का सामना करना पड़ा था। जिसका कारण यह था कि यह क्षेत्र उनके लिए सर्वथा आज्ञात था। बंगाल के स्वतन्त्र सुल्तानों ने भी अपने पूर्वजों के सामान ही इस क्षेत्र पर अपना अधिकार स्थापित करने का प्रयास किया। उस समय उत्तरी बंगाल और असम में दो ऐसे राज्य थे, जो इसका विरोध करते आये थे। इनमें से कामता (तत्कालीन लेखकों के अनुसार कामरूप) पश्चिम में था और दूसरा अहोम राज्य के पूर्व में था। अहोम मंगोल-प्रजाति के थे और उत्तरी वर्मा से आये थे। तेरहवीं शताब्दी में वे वहाँ एक शक्तिशाली राज्य स्थापित करने में सफल हुए थे और धीरे-धीरे उनका आचार-व्यवहार हिन्दुओं के समान हो गया। ‘असम’ नाम इन्हीं से निकला है। इल्यास शाह ने कामता पर आक्रमण किया और ऐसा अनुमान है कि यह गोहाटी तक पहुँचने में सफल हो गया। किन्तु वह इस क्षेत्र पर अधिकार नहीं बनाये रख सका और अन्ततः करातोया नदी को बंगाल की उत्तर पूर्वी सीमा मान लिया गया। इल्यास शाह के कुछ उत्तराधिकारियों के छापामार आक्रमणों से भी स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया। कामता के शासक धीरे-धीरे करातोया नदी के पूर्वी तट के बहुत से हारे हुए क्षेत्र वापस लेने में सफल हुए। अहोमों के विरुद्ध भी उन्होंने युद्ध किया। किन्तु अपने दोनों पड़ोसियों से बैर करके उन्होंने अपने भाग्य के दरवाजे बन्द कर लिए। अहोमों की सहायता लेकर अलाउद्दीन हुसैन शाह के एक आक्रमण से ही कामतापुर नगर (आधुनिक कूच-बिहार) नष्ट हो गया और सारा राज्य बंगाल में मिला लिया गया। सुल्तान ने अपने एक पुत्र को उस प्रदेश का हाकिम बना दिया और अफगानों की एक बस्ती वहाँ बसा दी गई। बाद में उसने अहोम राज्य पर एक बार आक्रमण किया, किन्तु उसे पीछे हटने पर विवश होना पड़ा। इस युद्ध में उसे भारी आर्थिक क्षति पहुँची। यह आक्रमण संभवतः अलाउद्दीन हुसैन के पुत्र नसरत शाह ने किया था। पूर्वी ब्रह्मपुत्र घाटी उस समय सुंहुगमुंग के शासन में थी। उसे सर्वश्रेष्ठ अहोम शासक माना जाता है। उसने अपना नाम बदल कर स्वर्ण नारायण रख लिया था। यह अहोमों द्वारा हिन्दू जीवन-पद्धति अपनाने का एक प्रमाण है। उसने न केवल मुस्लिम आक्रमणकारियों को पीछे खदेड़ा बल्कि अपने राज्य को चारों दिशाओं में प्रसारित किया। वैष्णव धर्मसुधारक शंकर देव इसी काल के थे। उन्होंने इस क्षेत्र में वैष्णव धर्म के प्रचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। बंगाल के सुल्तानों को उड़ीसा से भी युद्ध करना पड़ा। बंगाल के सल्तनत काल में उड़ीसा के गंग शासकों ने राधा (दक्षिण बंगाल) पर आक्रमण किए थे। उन्होने लखनौती को जीतने का भी प्रयत्न किया। परन्तु इन आक्रमणों को विफल कर दिया गया। इल्यास शाह ने अपने शासन के शुरू में ही जाजनगर (उड़ीसा) पर आक्रमण कर दिया। कहा जाता है कि सब बाधाओं को पार करते हुए वह चिल्का झील तक जा पहुँचा और कई हाथियों सहित बहुत सा माल लूट लाया। दो वर्ष पश्चात् 1360 में बंगाल पर चढ़ाई के बाद लौटते हुए फिरोज तुगलक ने भी उड़ीसा पर आक्रमण किया था। उसने वहाँ की राजधानी पर अधिकार कर लिया, बहुत लोगों की हत्या कर दी और प्रसिद्ध जगन्नाथ मंदिर को भी भ्रष्ट कर दिया। इन दो आक्रमणों के कारण शाही वंश की इज्जत समाप्त हो गई। कालान्तर में नये वंश का उदय हुआ, जो गजपति वंश के नाम से जाना जाता है। गणपति काल उड़ीसा के इतिहास में एक शानदार युग के सूत्रपात का प्रतीक है। गजपति शासक महान भवन-निर्माण और योद्वा थे। उन्होंने अपनी सीमाओं को दक्षिण में कर्नाटक की ओर बढ़ाया। जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि इससे विजयनगर साम्राज्य, रेड्डियों और बहमनी साम्राज्य से उनका संघर्ष हुआ। गजपति शासकों की दक्षिण में विस्तार की नीति का एक कारण संभवतः यह भी था कि वे समझते थे कि उड़ीसा बंगाल की सीमा से बंगाल के सुल्तानों को भगाना संभव नहीं है, क्योंकि वे बहुत शक्तिशाली थे। लेकिन उड़ीसा के शासक अपनी दक्षिण विजयों को भी अधिक समय तक सुरक्षित नहीं रख सके क्योंकि विजयनगर और बहमनियों की शक्ति और सामर्थ्य भी कम नहीं थी। उस काल में उड़ीसा और बंगाल के मध्य की सीमा सरस्वती नदी थी, जिसमें गंगा का अधिकांश जल बहता था। मिदनापुर जिले का एक बड़ा अंश और हुगली जिले का एक हिस्सा उड़ीसा की सीमा में था। इस बात के कुछ साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि उड़ीसा के शासकों ने भागीरथी तक अधिकार करना चाहा था। लेकिन उन्हें हटने पर विवश होना पड़ा। अलाउद्दीन हुसैन शाह जैसे बंगाल के कुछ सुल्तानों ने भी उड़ीसा में पुरी और कटक तक आक्रमण किया। सीमा पर भी छिटपुट झड़पे होती रहती थीं। लेकिन बंगाल के सुल्तान उड़ीसा की सेनाओं को सीमा से न तो उखाड़ सके ओर न ही सरस्वती नदी के पार अपना अधिकार जमा सके। एक ही समय में एक-दूसरे से दूर स्थित बंगाल और कर्नाटक में सफलतापूर्वक युद्धों का संचालन उड़ीसा के शासकों की शक्ति का प्रतीक है। पश्चिमी भारत - गुजरात, मालवा और मेवाड़हस्तशिल्प-कौशल उन्नत बन्दरगाहों और उर्वरा भूमि के कारण गुजरात दिल्ली सल्तनत के समृद्धतम प्रातों में से एक था। फिरोज तुगलक के काल में गुजरात का हाकिम बहुत ही सज्जन व्यक्ति था। उसके विषय में फरिश्ता ने लिखा है कि ‘‘वह हिन्दू धर्म को प्रोत्साहन देता था और मूर्तिकला को दबाने की बजाय बढ़ावा देता था’’ उसके बाद जफर खान गुजरात का हाकिम बना। उसके पिता, इस्लाम स्वीकार करने से पहले साधारण राजपूत थे और उसने अपनी बहन का विवाह फिरोज तुगलक से किया था। दिल्ली पर तैमूर के आक्रमण के बाद गुजरात और मालवा एक तरह से स्वतन्त्र हो गए थे व दिल्ली सल्तनत के साथ उनका संबंध नाम मात्र का रह गया था। किन्तु पूरी स्वतन्त्रता की घोषणा का अवसर जफरशाह की 1807 से पहले न मिल सका। वह मुजफ्फर शाह के नाम से गद्दी पर बैठा।गुजरात राज्य का वास्तविक संस्थापक, वस्तुतः मुजफ्फरशाह का पोता अहमद शाह प्रथम (1411-43) था। उसने अपने लम्बे शासन-काल में अमीरों को काबू किया, प्रशासन को स्थिरता दी, अपने राज्य का विस्तार किया और उसे मजबूत किया। वह अपनी राजधानी पाटन से हटा कर नये नगर अहमदाबाद में ले आया। इस नगर की आधार शिला 1415 में रखी गई थी। वह बहुत बड़ा भवन निर्माता था और उसने नगर को अनेक भव्य महलों, बाजारों, मस्जिदों और मदरसों से सजाया। उसने गुजरात के जैनियों की उच्च स्थापत्य-परम्परा का लाभ उठाते हुए दिल्ली के स्थापत्य से एकदम का भिन्न शैली का विकास किया। इस शैली की कुछ विशेषताएँ हैं - पतले मीनार, पत्थर पर उत्कृष्ट नक्काशी और अलंकृत कोष्ठक। उस काल की स्थापत्य कला के सुन्दर नमूने-अहमदाबाद की जामामस्जिद और तीन दरवाजा आज भी सुरक्षित हैं। अहमदनगर ने सौराष्ट्र और गुजरात-राजस्थान की सीमा पर स्थित राजपूत रियासतों को भी अपने अधिकार में करने का प्रयत्न किया। सौराष्ट्र में उसने गिरनार के मजबूत किले पर कब्जा कर लिया, लेकिन इस शर्त पर राजा को लौटा दिया कि वह उसे कर देता रहेगा। इसके पश्चात् उसने प्रसिद्ध तीर्थ स्थान सिद्धपुर पर आक्रमण किया और अनेक सुन्दर मन्दिरों को मिट्टी में मिला दिया। उसने गुजरात के हिन्दुओं पर जजिया कर लगा दिया। जो पहले कभी नहीं हुआ था। इन घटनाओं के कारण अनेक मध्ययुगीन इतिहासकारों ने अहमदशाह को काफिरों के दुश्मन के रूप में स्वागत किया है, जब कि अनेक आधुनिक इतिहासकारों ने उसे धर्मान्ध कहा है। परन्तु इस सम्बन्ध में कोई निश्चय मत स्थापित करना दुष्कर है। एक ओर अहमदशाह ने धर्मान्ध होकर मन्दिरों को तोड़ने का हुक्म दिया और दूसरी ओर वह प्रशासन में हिन्दुओं को सम्मिलित करने में भी नहीं हिचका। बनिया (वैश्य) समाज के सम्बद्ध माणिक चन्द और मोती चन्द उसके मंत्री थे। वह इतना न्यायप्रिय था कि खून के अपराध में उसने अपने दामाद को चौराहे पर फाँसी लगवा दी। उसने जहाँ हिन्दू राजाओं से युद्ध किए, वहीं उस काल के मुसलमान शासकों, विशेषत मालवा के शासकों से भी लड़ता रहा। उसने ईदार के शक्तिशाली किले को जीता तथा झालावाड़, बूँदी और डुंगरपुर की राजपूत रियासतों को भी अपने अधिकार में ले लिया। गुजरात और मालवा प्रारंभ से ही एक-दूसरे के कट्टर शत्रु थे और हर अवसर पर एक-दूसरे का विरोध ही करते थे। मुजफ्फर शाह ने मालवा के सुल्तान होशंग शाह को हरा कर कैद कर दिया। लेकिन मालवा पर अधिकार रख पाना संभव न देखकर उसने कुछ वर्षों बाद होशंग शाह को छोड़ दिया और उसे फिर से मालवा का शासक बना दिया। पर इससे दोनों के बीच खाई भरी नहीं बल्कि मालवा अपने को गुजरात की शक्ति से और भी अधिक असुरक्षित समझने लगा। मालवा के शासक हमेशा गुजरात की शक्ति को कम करने का अवसर ढूँढ़ते रहते थे और इसके लिए वे गुजरात के विरोधी गुटों को, चाहे विद्रोही सरदार हो या हिन्दू राजा, सहायता देते रहते थे। गुजरात ने मालवा की गद्दी पर अपना आदमी बिठवा कर इस प्रवृत्ति पर रोक लगाने का प्रयत्न किया लेकिन इस शत्रुता ने दोनों राज्यों को कमजोर कर दिया। परिणामतः ये दोनों ही उत्तर भारत की राजनीति में कोई बड़ी भूमिका नहीं बना सके। महमूद बेगड़ाअहमदशाह के उत्तराधिकारियों ने भी प्रसार और शक्ति बढ़ाने की नीति जारी रखी। गुजरात का सबसे प्रसिद्ध सुल्तान महमूद बेगड़ा था। उसने 50 से भी अधिक वर्षों तक (1459-1511) गुजरात पर शासन किया। उसे बेगड़ा इसलिए कहा जाता था कि उसने दो सबसे मजबूत किलों-सौराष्ट्र का गिरनार (जिसे अब जूनागढ़ कहा जाता है) और दक्षिण गुजरात का चम्पानेर को जीता था। गिरनार के राजा लगातार कर देता रहा था। लेकिन बेगड़ा ने सौराष्ट्र को अपने अधिकार में लेने की नीति के अन्तर्गत उसको अपने राज्य में विलय करना चाहा। सौराष्ट्र समृद्ध प्रदेश था, उसकी भूमि की कई पट्टियाँ उपजाऊ थीं और उसमें उन्नत बन्दरगाह थे। किन्तु दुर्भाग्य से सौराष्ट्र प्रदेश में लुटेरे और समुद्री डाकू भी बहुत थे जो व्यापारियों और जहाजों पर घात लगाये रहते थे। गिरनार का किला सौराष्ट्र पर अधिकार बनाये रखने और सिन्ध के विरुद्ध अभियान के लिए बहुत उपयुक्त था।महमूद बेगड़ा ने गिरनार को भारी फौज लेकर घेर लिया। यद्यपि गिरनार के राजा के पास किले में बहुत कम बंदूकें थीं, फिर भी उसने वीरता से मुकाबला किया, लेकिन हार गया। कहा जाता है कि इस दुर्गम किले पर बेगड़ा की जीत राजद्रोह के कारण हुई। राजा के कामदार (मंत्री दूत) की पत्नी का बलपूर्वक अपहरण कर लिया गया था। वह अपने स्वामी की हार के षड़यंत्र में सम्मिलित थी। किले पर बेगड़ा का अधिकार हो जाने के बाद राजा ने इस्लाम स्वीकार कर लिया और उसे सुल्तान की सेना में शामिल कर लिया गया। सुल्तान ने गिरनार की पहाड़ी के नीचे मुस्तफाबाद नाम का नया शहर बसाया। उसने वहाँ कई बड़ी-बड़ी इमारतें बनवाईं और अपने सरदारों को भी उसने वहाँ इमारतें बनवाने को कहा। इस प्रकार वह गुजरात की दूसरी राजधानी बन गया। अपने शासन के बाद के सालों में महमूद बेगड़ा ने द्वारका को फतह किया। इसका प्रमुख कारण समुद्री डाकू थे, जो उस बन्दरगाह से मक्का जाने वाले हज यात्रियों को लूट लेते थे। लेकिन इस अभियान से वहाँ के कई प्रसिद्ध हिन्दू मन्दिरों को भी गिरा दिया गया। खान देश और मालवा को अपने अधिकार में करने की सुल्तान की योजना में चम्पानेर के किले का सामरिक महत्व था। वहाँ का शासक हालाँकि गुजरात के अधीन था, लेकिन मालवा से उसके निकट के संबंध थे। चम्पानेर का पतन 1454 में हुआ। राजा और उसके साथियों ने कहीं से सहयता न मिलती देखकर जौहर किया और अन्तिम आदमी जीवित रहने तक लड़ते रहे। महमूद ने चम्पानेर के निकट मुहम्मदाबाद नाम का नया नगर बसाया। उसने वहाँ कई सुन्दर बाग लगाये और उसे अपना मुख्य निवास बनाया। चम्पानेर में अब खण्डर ही शेष हैं, परन्तु वहाँ की जामा मस्जिद अब भी ध्यान आकृष्ट करती है। इसके आंकन की छत के निर्माण में जैन वस्तुकला के कई पद्धतियों को अपनाया गया है। इस काल में बनी अनेक इमारतों पर पत्थर की खुदाई इतनी महीन है, कि उसकी तुलना स्वर्णकारों के काम से ही की जा सकती है। महमूद बेगड़ा को पुर्तगालियों से भी संघर्ष करना पड़ा। वे पश्चिम एशिया के देशों के साथ गुजरात के व्यापार में हस्तक्षेप कर रहे थे। पुर्तगालियों की नौशक्ति को कम करने के लिए उसने मिश्र के सुल्तान का साथ दिया, लेकिन उसमें उसे कोई सफलता नहीं मिली। महमूद बेगड़ा के लम्बे और शान्तिपूर्ण काल में व्यापार में उन्नति हुई। उसने यात्रियों की सुविधा के लिए अनेक कारवाँ-सरायों और यात्री सरायों का निर्माण करवाया। उसके राज्य में व्यापारी संतुष्ट थे, क्योंकि सड़कें यातायात के लिए सुरक्षित थी। महमूद बेगड़ा को औपचारिक शिक्षा नहीं मिली थी लेकिन विद्वानों की संगति में उसने बहुत ज्ञान अर्जित किया। उसके शासनकाल में अनेक अरबी-ग्रन्थों का फारसी में अनुवाद हुआ। उसका दरबारी कवि उदयराज था, जो संस्कृत का कवि था। महमूद बेगड़ा का व्यक्तित्व आकर्षक था। उसकी दाढ़ी कमर तक पहुँचती थी और मूँछें इतनी लंबी थी कि वह उन्हें सिर के ऊपर बाँधता था। उस काल के यात्री बरबोसा के अनुसार महमूद को बचपन से ही किसी जहर का नियमित रूप से सेवन कराया गया था। अतः उसके हाथ पर यदि कोई मक्खी बैठ जाती थी, तो वह फूल कर तुरन्त मर जाती थी। महमूद पेटू के रूप में भी प्रसिद्ध था। कहा जाता है कि नाश्ते में एक कटोरा शहद, एक कटोरा मक्खन और सौ से डेढ़-सौ तक केले खाता था। वह दिन भर में 10 से 15 किलो भोजन खाता था। यह भी कहा जाता है कि रात के समय उसके तकिए के दोनों ओर गोश्त के समोसों से भरी तश्तरियाँ रख दी जाती थी, ताकि भूख लगने पर वह तुरन्त खा सके। महमूद बेगड़ा के समय में गुजरात राज्य अपनी उन्नति के शिखर पर पहुँच गया और देश के सर्वाधिक शक्तिशाली और सुशासित राज्यों में से एक बन गया। बाद में भी यह इतना शक्तिशाली रहा कि मुगल शहंशाह हुमायूँ के लिए एक खतरा बन गया। मालवा और मेवाड़मालवा का राज्य नर्मदा और ताप्ती नदियों के बीच पठार पर स्थित था। गुजरात और उत्तर भारत और गुजरात और दक्षिण भारत के बीच मुख्य भागों में पर इसका नियन्त्रण था। जब तक मालवा शक्तिशाली रहा वह गुजरात, मेवाड़, बहमनी और दिल्ली के लोदी सुल्तानों की महत्वाकांक्षाओं पर अंकुश का काम करता रहा। मालवा की भौगोलिक और राजनीतिक स्थिति ऐसी थी कि इस क्षेत्र पर किसी शक्तिशाली राज्य का अधिकार हो जाने पर वस्तुतः सम्पूर्ण उत्तरी भारत पर आसानी से प्रभुत्व स्थापित किया जा सकता था।पन्द्रहवीं शताब्दी में मालवा अपनी उन्नति के चरम शिखर पर रहा। राजधानी धार से मांडू ले जाई गई। मांडू बहुत अधिक सुरक्षित स्थान था और प्राकृतिक सौन्दर्य भी वहाँ भरपूर था। मालवा के शासकों ने वहाँ बहुत सी इमारतें बनवाई, जिनके खण्डर अब भी भव्य हैं। मांडू की स्थापत्य कला गुजरात की स्थापत्य कला से भिन्न थी। इसमें स्थूलता अधिक है। भारी आधारशिला की योजना द्वारा इसे और भी स्थूल बनाने का प्रयास किया जाता था। अनेक रंगों और चमकीली ईंटों के प्रयोग से इमारतों में विविधता पैदा की जाती थी। इन इमारतों में जामा मस्जिद, हिंडोला महल और जहाज महल सबसे प्रसिद्ध थी। मालवा शुरु से ही आन्तरिक विद्रोहों का केन्द्र रहा था। गद्दी के उत्तराधिकार के लिए अनेक प्रतिद्वन्दियों में संघर्ष होता रहता था और उन संघर्षों के साथ विभिन्न सरदारों और दलों में शक्ति प्राप्त करने के लिए संघर्ष भी जुड़ जाता था। गुजरात और मेवाड़ के पड़ोसी राज्य हमेशा इस दलबंदी का लाभ उठाने के अवसर की तलाश करते रहते थे। मालवा के प्रारंभिक शासकों में से एक हुशंग शाह ने सहिष्णुता की उदार नीति अपनाई। उसने अनेक राजपूतों को मालवा में बसने के लिए प्रोत्साहित किया। उसने मेवाड़ के राणा मोकल के दो बड़े भाईयों को मालवा में जागीरें दीं। इसी काल में निर्मित ललितपुर मन्दिर के शिलालेखों से इस बात की जानकारी मिलती है कि मन्दिरों के निर्माण पर कोई पाबंदी नहीं थी। हुशंग शाह ने जैनियों को सहायता प्रदान की जो राज्य के मुख्य व्यापारी और साहूकार थे। सफल व्यापारी नरदेव सोनी उसका खजांची और सलाहकार था। दुर्भाग्य से मालवा के सभी शासक इतने सहिष्णु और उदार नहीं थे। महमूद खलजी (1436-69) ने, जिसे मालवा के सुल्तानों में सर्वाधिक शक्तिशाली माना जाता है, राणा कुम्भा और अन्य पड़ोसी हिन्दू राजाओं से लड़ाइयों के दौरान अनेक मन्दिरों को नष्ट करवा दिया। यद्यपि उसके इस कार्य को न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता, फिर भी यह कहना होगा कि यह सब लड़ाइयों के दौरान किया गया था और इसलिए इसे मन्दिरों को नष्ट करने के किसी विशिष्ट नीति का हिस्सा नहीं माना जा सकता। महमूद खलजी चपल और महत्वाकांक्षी शासक था। उसने लगभग सभी पड़ोसी राज्यों गुजरात, गोंडवाना और उड़ीसा, बहमनी सुल्तान और यहाँ तक की दिल्ली सल्तनत से भी युद्ध किया। फिर भी उसकी अधिकांश शक्ति दक्षिणी राजपूताना पर अधिकार और मेवाड़ को दबाने के प्रयत्न में ही खर्च हो गई। 15वीं शताब्दी में मेवाड़ का उत्थान उत्तर भारत की राजनीति में एक महत्वपूर्ण घटक सिद्ध हुआ। अलाउद्दीन खलजी द्वारा रणथम्भौर की विजय से राजपूताना में चौहानों की शक्ति समाप्त हो गई। उसके अवशेषों से अनेक नई रियासतों का उदय हुआ। मारवाड़ रियासत, जिसकी राजधानी जोधपुर 1465 में निर्मित थी, उसमें से एक थी। अन्य महत्वपूर्ण रियासत मुस्लिम रियासत नागौर थी। अजमेर पर जो शक्तिशाली मुस्लिम हाकिमों का केन्द्र रहा था, अलग-अलग समय पर अलग-अलग लोगों का अधिकार रहा। उभरती हुई राजपूत रियासतों के बीच, अजमेर संघर्ष का कारण बना। पूर्वी राजपूताना पर प्रभुत्व को लेकर भी संघर्ष था क्योंकि दिल्ली के शासकों की इस क्षेत्र में गहरी दिलचस्पी थी। मेवाड़ के प्रारंभिक इतिहस की ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है। यद्यपि इस राज्य का उदय आठवीं शताब्दी से ही हो गया था, किन्तु इसे शक्तिशाली बनाने वाला व्यक्ति राणा कुम्भा (1433-68) ही था। अपने आतंरिक प्रतिद्वन्द्वियों पर सावधानी से विजय प्राप्त करके अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के पश्चात् कुम्भा ने अपना ध्यान गुजरात की सीमा से लगे बूंदी, कोटा और डुंगरपुर को जीतने की ओर लगाया, चूँकि उससे पहले कोटा मालवा का करद था और डुंगरपुर गुजरात का इसलिए उसकी गतिविधियों के कारण उन दोनों राज्यों से भी उसकी शत्रुता हो गई। इस शत्रुता के अन्य कारण भी थे। नागौर के खान ने भी अपने ऊपर कुम्भा के आक्रमण के समय गुजरात के सुल्तान से सहायता की प्रार्थना की थी। राणा ने महमूद खलजी के एक विरोधी को अपने दरबार में शरण दी थी और उसे मालवा की गद्दी पर बैठालने का प्रयास भी किया था। बदला लेने के लिए महमूद खलजी ने भी राजा के कई विरोधियों को शरण देकर उन्हें सक्रिय सहायता दी थी। इनमें से राजा का भाई मोकल भी था। राणा कुम्भा को अपने पूरे शासन काल के दौरान गुजरात और मालवा के साथ संघर्ष करना पड़ा। मारवाड़ के राठौड़ों से भी अधिकांशतः संघर्ष की स्थिति बनी रही। मारवाड़ मेवाड़ के अधीन था। लेकिन जल्दी ही राव जोधा के नेतृत्व में सफल संघर्ष के बाद वह स्वतन्त्र हो गया था। यद्यपि राणा कुम्भा पर चारों ओर से दबाव था, लेकिन वह मेवाड़ में अपनी स्थिति बनाये रखने में सफल रहा। गुजरात की फौजों ने कुम्भल गढ़ पर दो बार घेरा डाला। महमूद खलजी अजमेर तक पहुँचने में सफल हुआ और उसने वहाँ अपना प्रतिनिधि नियुक्त कर दिया। राणा भी इन आक्रमणों को विफल करने और रणथम्भौर जैसे दूर-दराज स्थित कुछ क्षेत्रों के अतिरिक्त पहले से जीते अधिकांश क्षेत्रों को अपने अधिकार में बनाये रखने में सफल रहा। विपरीत परिस्थितियाँ होते हुए भी राणा द्वारा दो बड़ी शक्तियों को रोके रखना कुछ कम उपलब्धि नहीं थी। कुम्भा विद्वानों का आदर करता था। वह स्वयं भी विद्वान था। उसने कई पुस्तकें लिखीं, जिनमें से कुछ अब भी उपलब्ध हैं। उसके महल और चित्तौड़ में बनवाया गया विजय स्तम्भ के खण्डर (कीर्ति स्तम्भ) इस बात के प्रमाण हैं कि वह उत्साही भवन निर्माता भी था। उसने सिंचाई के लिए अनेक झीलें और तालाब खुदवाये। उसके शासनकाल में बने कुछ मन्दिर इस बात के साक्षी हैं कि इस समय भी पत्थर काटने और मूर्ति कला का स्तर ऊँचा था। कुम्भा के पुत्र ऊदा ने गद्दी हथियान के लिए उसकी हत्या कर दी। यद्यपि ऊदा को भी शीघ्र ही अपदस्थ कर दिया गया, लेकिन उसने अपने पीछे गलत परम्परा छोड़ी। राणा कुम्भा का पोता राणा सांगा अपने भाईयों के साथ लंबे दलगत संघर्ष के बाद 1508 में मेवाड़ की गद्दी पर बैठा। कुम्भा की हत्या और सांगा के उदय के मध्य की सबसे महत्वपूर्ण घटना मालवा का तेजी से वहाँ के शासक महमूद द्वितीय का पूर्वी मालवा के शक्तिशाली राजपूत सरदार मेदिनी राय के साथ झगड़ा हो गया था। मेदिनी राय ने ही मालवा की गद्दी पर अधिकार के लिए उसकी सहायता की थी। मालवा के शासक ने गुजरात से सहायता की प्रार्थना की, जबकि मेदिनी राय राणा सांगा के दरबार में पहुँचा। राणा सांगा ने 1517 की लड़ाई में महमूद द्वितीय को हरा दिया और बंदी बनाकर उसे चित्तौड़ ले आया। लेकिन छः महीने के बाद ही उसके एक पुत्र को बंधक के रूप में रखकर उसे मुक्त कर दिया। चंदेरी सहित पूर्वी मालवा पर राणा सांगा का प्रभुत्व मान लिया गया। मालवा की घटनाओं ने दिल्ली के लोदी सुल्तानों को चिंतित कर दिया। वे बहुत सर्तकता से स्थिति का अध्ययन कर रहे थे। इब्राहिम लोदी ने 1518 में मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया। लेकिन घटोली की लड़ाई में उसकी बुरी तरह पराजय हुई। इब्राहिम लोदी अपनी आंतरिक स्थिति को मजबूत करने के उद्देश्य से वापिस लौट गया। इसी बीच बाबर भी भारत के दरवाजे खटखटा रहा था। इस प्रकार 1525 के आसपास उत्तर भारत की राजनीतिक स्थिति में तेजी से परिवर्तन हो रहा था और इस क्षेत्र में प्रभुत्व के लिए एक निर्णायक संघर्ष अवश्यंभावी हो गया था। उत्तर-पश्चिमी तथा उत्तर भारत - शर्की, लोदी सुल्तान और कश्मीरजैसा कि हम देख चुके हैं कि तैमूर के आक्रमण के बाद, सुल्तान महमूद तुगलक दिल्ली से भाग निकला और उसने पहले गुजरात और फिर मालवा में शरण ली। जब तक उसने लौटने का निर्णय लिया, दिल्ली के तख्त की प्रतिष्ठा गिर चुकी थी। दिल्ली के आसपास ही कई मलिकों और जमीदारों ने स्वयं को स्वतन्त्र घोषित कर दिया था। मजाक में कहा जाता था, ‘‘विश्व के स्वामी का राज्य दिल्ली से पालम तक है।’’गंगा की घाटी में सबसे पहले अपनी स्वतन्त्रता घोषित करने वालों में से एक मलिक सरवर था। वह फिरोज शाह तुगलक के काल के प्रमुख अमीरों में से एक था। मलिक सरवर कुछ समय तक वजीर रहा था और फिर उसे मलिक-उस शर्क (पूर्व का स्वामी) की उपाधि देकर पूर्वी क्षेत्रों का शासक बना दिया गया था। उसकी उपाधि के कारण ही उसके उत्तराधिकारी शर्की कहलाये। शर्की सुल्तानों ने जौनपुर (पूर्वी उत्तर प्रदेश स्थित) को अपनी राजधानी बनाया और नगर को अनेक भव्य महलों, मस्जिदों और मकबरों से सुन्दर बनाया। इनमें से कुछ मस्जिदें और मकबरे ही अवशिष्ट हैं। इन इमारतों की निर्माण शैली से यह स्पष्ट हो जाता है कि शर्की सुल्तानों की वास्तु शैली दिल्ली सल्तनत की अनुकृति का भाग नहीं है, इस शैली की अपनी विशिष्टताएँ हैं, जैस भव्य दरवाजे तथा विशाल मेहराबों का निर्माण किया। उन्होंने विशाल दरवाजों और मेहाराबों वाली अपनी शैली का निर्माण भी किया। शर्की सुल्तान विद्या और संस्कृति के बड़े संरक्षक थे। जौनपुर कवि, विद्वान और संतों का केन्द्र बन गया था जिसके कारण नगर की ख्याति बढ़ी, वह धीरे-धीरे जौनपुर पूर्व का ‘शीराज’ माना जाने लगा। हिन्दी के प्रसिद्ध कवि और पद्ममावत के रचयिता मलिक मुहम्मद जायसी जौनपुर के ही निवासी थे। शर्की सल्तनत का अस्तित्व एक शताब्दी से भी कम समय तक रहा। अपनी उन्नति के काल में इस सल्तनत की सीमा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ से उत्तरी बिहार के दरभंगा तक और उत्तर में नेपाल की सीमा से दक्षिण में बुन्देलखण्ड तक थी। शर्की सुल्तानों ने दिल्ली को भी जीतने का प्रयास किया, किन्तु इसमें वे सफल नहीं हुए। पन्द्रहवी शताब्दी के मध्य में दिल्ली में लोदियों की सत्ता स्थापित हो जाने के पश्चात् शर्कियों की शक्ति का प्रसार रुक गया। अपनी सारी शक्ति दिल्ली जीतने की तीव्र, लेकिन असफल अभियानों में व्यर्थ कर दी। अन्ततः दिल्ली के सुल्तान बहलोल लोदी ने जौनपुर को जीत लिया और शर्की सल्तनत को दिल्ली सल्तनत में मिला लिया। शर्की शासक कुछ समय तक निर्वासित अवस्था के रूप में चुनार में रहा और अपने राज्य को फिर से प्राप्त करने के कई प्रयत्नों में असफल होकर निराशा की स्थिति में मर गये। दिल्ली सल्तनत के पतन के पश्चात् शर्की सुल्तानों ने एक बड़े भूखण्ड पर कानून और व्यवस्था को बनाये रखा था। उन्होंने बंगाल के सुल्तानों के पूर्वी उत्तर प्रदेश पर आधिपत्य के प्रयत्नों को सफल नहीं होने दिया। इसमें भी अधिक उन्होंने एक सांस्कृतिक परम्परा कायम की, जो उनका राज्य समाप्त होने के बाद भी काफी समय तक जीवित रही। तैमूर के आक्रमण के पश्चात् दिल्ली में सैयद वंश के रूप में एक नये वंश का राज्य स्थापित हुआ। कई अफगान सरदारों ने पंजाब में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली इनमें सबसे महत्वपूर्ण था, बहलोल लोदी जो सरहिंद के इक्ता का अधिकारी था। बहलोल लोधी ने खोखरों की बढ़ती शक्ति को रोका। खोखर एक युद्ध प्रिय जाति थी और सैन्धव की पहाड़ियों में रहती थी। बहलोल ने शीघ्र ही सारे पंजाब पर अधिकार जमा लिया। मालवा के सम्भावित आक्रमण को रोकने के लिए उसे दिल्ली आमंत्रित किया गया और वह बाद में भी दिल्ली रुका रहा। जल्दी ही उसकी सेना ने दिल्ली पर अधिकार कर लिया। जब दिल्ली का सुल्तान 1415 में एक कबीलाई के रूप में मर गया, तो बहलोल औपचारिक रूप से दिल्ली के तख्त पर बैठा। इस प्रकार सैयद वंश का अंत हुआ। पन्द्रहवी शताब्दी के मध्य से ही गंगाघाटी के उत्तरी भागों और पंजाब पर लोदियों का अधिकार था। दिल्ली के पूर्ववर्ती सुल्तान तुर्क थे, लेकिन लोदी शासक अफगान थे। यद्यपि दिल्ली सल्तनत की सेना में अनेक अफगान थे, लेकिन अफगानी सरदारों को कभी भी महत्वपूर्ण पद नहीं दिए गए थे। यही कारण था कि बख्तियार खलजी को अपने भाग्य का निर्माण बिहार और बंगाल में करना पड़ा। उत्तरी भारत में अफगानों के बढ़ते महत्व का अंदाजा मालवा में अफगान शासक के उदय से लग रहा था। दक्षिण में भी बहमनी सल्तनत में उनके पास महत्वपूर्ण पद थे। बहलोल लोदी की अधिकांश शक्ति शर्की शासकों से लड़ने में ही लगी रही। अपनी स्थिति कमजोर देख कर बहलोल ने रोह के अफगानों को आमंत्रित किया। उसका विचार था कि ऐसा करने से वे अपनी गरीबी के कलंक से छूट जायेंगे और अपनी सर्वोपरिता स्थापित कर सकूँगा। अफ़गानी इतिहासकार अब्बास सरवानी लिखता है कि ‘‘इन फरमानों को पा कर रोह के अफगान सुल्तान बहलोल की खिदमत में हाजिर होने के लिए टिडिड्यों की तरह आ गए।’’ हो सकता है कि इस बात को बढ़ा-चढ़ा कर कहा गया हो। लेकिन यह सत्य है कि अफगानों के आगमन से बहलोल न केवल शर्कियों को हराने में सफल हुआ और बल्कि भारत में मुस्लिम समाज की संरचना में भी अन्तर आया। उत्तर और दक्षिण दोनों ओर अफगान बहुसंख्यक और महत्वपूर्ण हो गये। सबसे महत्वपूर्ण लोदी सुल्तान ‘‘सिकन्दर लोदी’’ (1489-1517) था। वह गुजरात के महमूद बेगड़ा और मेवाड़ के राणा सांगा का समकालीन था। उसने दिल्ली को इन दोनों राज्यों से भविष्य में होने वाले संघर्षों के लिये समर्थ व शक्तिशाली बना दिया। उसने उन अफगान सरदारों के दबाने की कोशिश भी की जो कबीलाई स्वतन्त्रता के आदी थे और सुल्तान को अपने बराबर समझते थे। सिकन्दर ने सब सरदारों को अपने सामने खड़े रहने का हुक्म दिया ताकि उनके ऊपर अपनी महत्ता प्रदर्शित कर सके। जब शाही फरमान भेजा जाता था तो सब सरदारों को शहर से बाहर आदर के साथ उसका स्वागत करना पड़ता था। जिनके पास जागीरें थीं, उन्हें नियमित रूप से उनका लेखा देना होता था और हिसाब में गड़बड़ करने वाले और भ्रष्टाचारियों को कड़ी सजाएँ दी जाती थीं। लेकिन सिकन्दर लोदी को इन सरदारों को काबू में रखने में अधिक सफलता प्राप्त नहीं हुई। अपनी मृत्यु के समय बहलोल लोदी ने अपने पुत्रों और रिश्तेदारों में राज्य बाँट दिया गया था। यद्यपि सिकन्दर एक बड़े संघर्ष के बाद उसे फिर से एकीकृत करने में सफल हुआ, लेकिन सुल्तान के पुत्रों में राज्य के बँटवारे का विचार अफगानों के दिमाग में बना रहा। सिकन्दर लोदी अपने राज्य को श्रेष्ठ प्रशासनिक व्यवस्था प्रदान करने में सफल हुआ। उसने न्याय पर बहुत बल दिया। राज्य के सभी प्रमुख मार्गों को डाकुओं और लुटेरों से सुरक्षित किया। इस काल में रोजमर्रा के इस्तेमाल में आने वाली चीजें बहुत ही सस्ती थी। सुल्तान ने काश्तकारी के क्षेत्र में गहरी दिलचस्पी दिखाई। उसने अनाज पर से चुँगी माफ कर दी, जिसे ‘गज्ज-ए-सिकन्दरी’’ कहा जाता था। यह पैमाना मुगलों के काल तक चलता रहा। उसके समय में बनाई गई भू-राजस्व की विधि शेरशाह की विधि का आधार बनी। सिकन्दर लोदी को पुरातन पंथी और यहाँ तक कि धर्मान्ध शासक माना जाता है। उसने मुसलमानों के लिए ‘‘शरा’’ (मुस्लिम-विधान) के विरुद्ध कोई भी कार्य करने पर कड़ी पाबंदी लगा दी, जैसे कि पीरों की दरगाहों पर स्त्रियाँ नहीं जा सकती थीं या उनकी याद में जुलूस नहीं निकले जा सकते थे। उसने हिन्दुओं पर जजिया कर फिर से लगा दिया और एक ब्राह्मण को इसलिए फाँसी दे दी क्योंकि उसका कहना था कि हिन्दू और मुस्लिम धर्म-ग्रन्थ समान रूप से पवित्र हैं। उसने अपने अभियानों के दौरान कुछ सुविख्यात मन्दिरों को भी गिरवा दिया। नगर कोट का मन्दिर इसका उदाहरण हैं। सिकन्दर लोदी विद्वानों और दार्शनिकों तथा साहित्यकारों को बड़े-बड़े अनुदान देता था। इसलिए उसके दरबार में अरब और ईरान सहित विभिन्न जातियों और देशों के सुसंस्कृत विद्वान पहुँचे। सुल्तान के प्रयत्नों से कई संस्कृत ग्रन्थ फारसी में अनुदित हुए। संगीत में भी उसकी रुचि थी और उसने संगीत पर कई दुर्लभ संस्कृत-ग्रन्थों का फारसी में अनुवाद करवाया। उसके शासनकाल में बहुत से हिन्दुओं ने फारसी सीखी और उन्हें कई प्रशासकीय पदों पर रख गया। इस प्रकार हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच सांस्कृतिक सामन्जस्य की प्रक्रिया उसके शासनकाल में बदस्तूर चलती रही। सिकन्दर, लोदी ने धौलपुर और ग्वालियर को जीतकर अपने राज्य का प्रसार किया। अपने इन अभियानों के दौरान ही सिकन्दर लोदी ने आगरा शहर की नींव डाली। (1506) में इन स्थान का चुनाव उसने गहन सर्वेक्षण व सोच-विचार के बाद किया था। इस शहर का निर्माण वस्तुतः पूर्वी राजस्थान के क्षेत्रों तथा व्यापारिक मार्गों पर नियन्त्रण स्थापित करने के उद्देश्य से किया गया था। कालान्तर में आगरा एक बड़े शहर के रूप में विकसित हुआ और लोदियों की दूसरी राजधानी बना। पूर्वी राजस्थान और मालवा में लोदियों की बढ़ती रुचि का आभास इस तथ्य से होता है कि सिकन्दर लोदी ने नागौर के खान को अपने संरक्षण में ले लिया और इस बात का प्रयत्न किया कि रणथम्भौर मालवा के स्थान पर दिल्ली की अधीनता स्वीकार कर ले। उसके उत्तराधिकारी इब्राहिम लोदी ने तो मालवा के विरुद्ध चढ़ाई भी कर दी, लेकिन, जैसा कि हम पहले ही बता चुके हैं कि उसे पीछे हटने पर विविश होना पड़ा। मालवा में राणा की बढ़ती शक्ति और उसका आगरा और बयाना की ओर प्रसार मेवाड़ और लोदियों के बीच संघर्ष की भूमिका बन गया। यह बताना कठिन है कि उसी समय यदि बाबर हस्तक्षेप न करता तो इस संघर्ष का क्या परिणाम होता। पन्द्रहवीं शताब्दी के उत्तर भारत का इतिहास कश्मीर के जिक्र के बिना अपूर्ण रहेगा। कश्मीर की सुन्दर घाटी काफी समय तक बाहरी व्यक्तियों के लिए निषिद्ध रही थी। अल्बेरूनी के अनुसार किसी को भी कश्मीर में तब तक प्रवेश नहीं करने दिया जाता था जब तक कि उसका परिचय वहाँ किसी सामंत से नहीं होता था। इस काल में कश्मीर शैव मत का केन्द्र माना जाता था। लेकिन चौदहवीं शताब्दी के मध्य में हिन्दू शासन की समाप्ति के साथ ही यह स्थिति भी समाप्त हो गई। मंगोल सरदार दलूजा का 1320 में कश्मीर पर भयंकर आक्रमण इसकी भूमिका थी। कहा जाता है कि दलूचा ने पुरुषों के कत्लेआम का हुक्म जारी कर दिया था जबकि स्त्रियों और बच्चों को गुलाम बना कर मध्य एशिया के व्यापारियों को बेच दिया गया। शहर और गाँव नष्ट करके जला दिये गये। कश्मीर का असहाय शासन इसके विरुद्ध कुछ न कर सका और परिणामतः जनता की सहानुभूति और सहायता उसे फिर न मिल सकी। मंगोल आक्रमण के सौ साल बाद जैन-उल-आबेदीन कश्मीर की गद्दी पर बैठा। उसे कश्मीर का श्रेष्ठतम मुस्लिम शासक माना जाता है। इस काल में कश्मीरी समाज में काफी परिवर्तन आ गया था। मध्य एशिया से मुस्लिम पीर और शरणार्थी बड़ी संख्या में कश्मीर आते रहे। बरामूला का मार्ग इसके लिए आसान मार्ग था। कुछ मुस्लिम सन्तों की शिक्षा के कारण और कुछ बल प्रयोग से कश्मीर समाज के निम्न वर्ग ने इस्लाम अंगीकार कर लिया था। इस प्रक्रिया को पूर्ण करने के लिए सिकन्दर शाह (1389-1413) के शासन काल में ब्राह्मणों को उत्पीड़ित करने का जोरदार अभियान छेड़ा गया। सुल्तान ने फरमान जारी किया कि सब ब्राह्मण और हिन्दू विद्वान या तो इस्लाम स्वीकार कर लें या घाटी छोड़ कर चले जाएँ। उनके मन्दिर नष्ट कर दिए गए और सोने-चाँदी की मूर्तियाँ जलाकर सिक्कों में ढाल दी गई। कहा जाता है कि यह आज्ञा सुल्तान के मन्त्री सुहा-भट्ट के संकेत से प्रसारित की गई थी, जो मुसलमान बन गया था और अपने पहले के धर्म के अनुयायियों को परेशान करने के लिए कटिबद्ध था। जैन-अल-आबेदिन (1420-70) के गद्दी पर बैठने के साथ ही उपरोक्त स्थिति में परिवर्तन आया। उसने इस प्रकार की सब आज्ञाएँ रद्द कर दी। उसने प्रयत्न करके उन सब गैर-मुस्लिमों को कश्मीर वापस बुलाया जो वहाँ से भाग गए थे। पुनः हिन्दू बनने के इच्छुक या अपनी जान बचाने के लिए जिन्होंने मुसलमान होने का ढांग किया था, उन्हें अपनी-अपनी इच्छानुसार आचरण करने की स्वतन्त्रता प्रदान की। उसने हिन्दुओं को उनके पुस्तकालय और हकूक भी लौटा दिए जो उससे पूर्व उनके पास थे। एक सौ साल बाद अबुल फजल ने इस बात का हवाला दिया कि कश्मीर में डेढ़ सौ भव्य मन्दिर थे। इस बात की काफी सम्भावना है कि सभी मन्दिरों का जीर्णोद्धार जैन-उल-आबेदीन के काल ही में हुआ था। जैन-उल-अबेदीन ने अन्य क्षेत्रों में भी सहिष्णुता की उदार नीति अपनाई। उसने जजिया हटा दिया। गो वध निषिद्ध कर दिया, हिन्दुओं की भावनाओं का आदर करते हुए सती प्रथा पर से प्रतिबन्ध हटा लिया। उसके प्रशासन में अनेक हिन्दूओं को ऊँचे पद प्राप्त थे। श्रीय भट्ट उसका न्याय मन्त्री और दरबारी चिकित्सक था। उसकी पहली दो रानियाँ हिन्दू थी। ये दोनों जम्मू के राजा की कन्याएँ थीं। उसके चार पुत्र उन्हीं से थे। उसने उन दोनों की मृत्यु के पश्चात् ही तीसरा विवाह किया। सुल्तान स्वयं एक विद्वान व्यक्ति था और काव्य रचना भी करता था। वह फारसी, कश्मीरी, संस्कृत और तिब्बती भाषाएँ भली-भाँति जानता था। वह संस्कृत और फारसी विद्वानों को संरक्षण देता था और उसके संकेत पर ‘महाभारत’ जैसे अनेक संस्कृत-ग्रन्थों तथा कल्हण कृत कश्मीर का इतिहास (राजतरंगिनी) का फ़ारसी में अनुवाद हुआ। वह संगीत प्रेमी था। ग्वालियर के राजा ने उसके संगीत प्रेम के विषय में सुनकर उसे दो दुर्लभ संस्कृत संगीत ग्रन्थ भेजे थे। सुल्तान ने कश्मीर की आर्थिक उन्नति पर भी ध्यान दिया। उसने दो आदमियों को कागज बनाने तथा जिल्दसाजी की कला सीखने के लिए समरकंद भेजा। उसने कश्मीर में कई कलाओं को प्रोत्साहन दिया, जैसे पत्थर तराशना और उस पर पालिश करना, बोतले बनाना, स्वर्ण-पत्र बनाना इत्यादि। संभवतः उसी ने तिब्बत से शाल बनाने की कला का आयात किया, जिसके लिए कश्मीर आज इतना प्रसिद्ध है। दस्ती बन्दूक बनाने और आतिशबाजी बनाने की कला का भी वहाँ विकास हुआ। सुल्तान ने काफी संख्या में बाँध और पुल बनवा कर कृषि को विकसित करने में योगदान दिया। वह उत्साही निर्माता था। वूलर झील स्थित जैना लंका उसके काल की आभियान्त्रिकी उन्नति का उत्कृष्ट नमूना है। यह सब झील में एक कृत्रिम टापू के रूप में है - यहीं उसने अपना महल और मस्जिद बनवाई। जैन-उल-आबेदीन को कश्मीरी अभी भी बड़शाह (महान सुल्तान) के नाम से पुकारते हैं। यद्यपि वह महान योद्धा नहीं था, फिर भी उसने लद्दाख पर मंगोल आक्रमण को विफल किया था। उसने बालटिस्तान क्षेत्र को (जिसे तिब्बत-ए-खुर्द कहा जाता है) विजित किया तथा जम्मू और राजौरी पर अपना अधिकार बनाये रखा। इस प्रकार उसने कश्मीर राज्य को एकता के सूत्र में पिरोया। जैन-उल-आबेदीन का यश दूर-दूर तक फैल गया था। उसने भारत के अन्य बड़े शासकों तथा एशिया के बड़े शासकों से संपर्क बनाए रखा। | |||||||||
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