| |||||||||
|
इतिहास में काल विभाजन
किसी देश, क्षेत्र अथवा सारी दुनिया के इतिहास को आम तौर पर विशेष कालों या कालखण्डों में विभाजित किया जाता है। यह विभाजन कुछ विशेष मापदण्डों के आधार पर किया जाता है। किसी देश पर शासन करने वाले राजवंश को आधार मानकर काल विभाजन करना परम्परागत इतिहास लेखन का सर्वस्वीकृत आधार रहा है। काल विभाजन के इसी अर्थ में भारतीय इतिहास को मौर्य काल, गुप्त काल तथा मुगल काल जैसे नाम दिए हैं और चीन के इतिहास को हान काल तथा मांचू काल तथा इंग्लैंड के इतिहास को ट्यूडर काल और स्टुअर्ट काल आदि कालों में बाँटा गया है। विभाजन की यह पद्धति आज भी प्रचलित है क्योंकि राजवंशों के आधार पर काल विभाजन से इतिहास के अध्ययन में काल-खडों की एक सुविधाजनक श्रंखला उपलब्ध होती है। इतिहास में काल विभाजन के कुछ दूसरे आधार भी हैं जैसे पुनर्जागरण और औद्योगिक क्रांति आदि नामों से भी काल विभाजन मिलते हैं। इस प्रकार का विभाजन कुछ देशों के इतिहास का मोटे तौर पर क्रमिक विकास बताते हैं। लेकिन इसमें विभाजन का आधार जीवन के सांस्कृतिक या आर्थिक क्षेत्र के कुछ पहलुओं का विकास होता है। विभाजन की इस प्रणाली में राजवंश या राजनीति को आधार नहीं बनाया जाता है। इस प्रकार के विभाजन में मोटे तौर पर समय का संकेत होता है लेकिन उसमें कोई निश्चित तारीख अथवा वर्ष नहीं होता जैसा कि राजवंशों के आधार पर किए गए काल विभाजन में हमें दिखाई पड़ता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि संस्कृति और अर्थव्यवस्था के विकास की कोई निश्चित तिथि नहीं रखी जा सकती है। इसी प्रकार इनके अंत के लिए भी कोई खास तारीख नहीं बताई जा सकती।
इसको भारतीय इतिहास के एक उदाहरण से समझा जा सकता है। किसी एक घटना अथवा तारीख से भारतीय राष्ट्रवाद के उदय का प्रारंभ नहीं माना जा सकता है। कभी-कभी शताब्दियों को काल विभाजन का आधार बनाया जाता है। जैसे हम इंग्लैंड के पंद्रहवीं, सोलहवीं तथा सत्रहवीं सदी का इतिहास पढ़ते हैं। इसी प्रकार के और भी उदाहरण हो सकते हैं। इतिहास में काल विभाजन की एक और महत्वपूर्ण पद्धति है, इसे अवधिमूलक काल विभाजन या केवल काल विभाजन भी कहा जाता है। समाज में विकास के विभिन्न चरणों को अलगाने के लिए इस पद्धति का उपयोग किया जाता है। इस तरह के काल विभाजन में हर काल न सिर्फ तिथियों का एक व्यापक सिलसिला होता है बल्कि वह एक अलग तरह की समाज व्यवस्था, अर्थव्यवस्था, राजनीतिक प्रणाली और संस्कृतिक स्वरूप को भी प्रदर्शित करता है। इसकी अपनी एक सुपरिभाषित विशेषता होती है जिसे अन्य, कालों से अलग किया जाक सकता है। अधिकांश देशों और समूचे विश्व के इतिहास का अत्यंत व्यापक और आमतौर पर स्वीकार किया जाने वाला यह विभाजन है, प्राचीन काल, मध्य काल और आधुनिक काल। तिथि क्रम (क्रोनॉलोजी) के लिहाज से इन कालों का समय अलग-अलग देशों में भिन्न-भिन्न है। इसलिए कि अलग-अलग समय में विभिन्न क्षेत्रों का समाज विकास की एक मंजिल से दूसरे मंजिल में पहुँचा है। उदाहरण के लिए हम देख सकते हैं कि पश्चिमी यूरोप के इतिहास में प्राचीन काल ईसवी सन् के आरंभ में शुरू होता है और मध्य काल की शुरूआत तब होती है, जब सामंतीय विशेषताओं वाली समाज व्यवस्था जन्म लेती है। इसी तरह कहा जा सकता है कि पश्चिमी यूरोप में पंद्रहवीं-सत्रहवीं सदी में सामंतवाद का अंत होता है और सामंतवाद के पतन के साथ ही आधुनिक काल की शुरूआत होती है और इस प्रकार एक नई समाज व्यवस्था अस्तित्व में आती है। इस नई समाज व्यवस्था को पूँजीवाद कहा जाता है। दूसरे देश अथवा क्षेत्र में जैसे एशिया और अफ्रीकी महाद्वीप में एक तरह की समाज व्यवस्था के अंत को सूचित करने वाले परिवर्तन तथा दूसरे प्रकार की समाज व्यवस्था का जन्म अलग-अलग समयों में हुआ है। इनकी परस्पर तुलना की जा सकती है। इसलिए प्राचीनकाल, मध्यकाल और आधुनिककाल आदि नामों से किया जाने वाला काल विभाजन अलग-अलग देशों अथवा क्षेत्रों में विभिन्न रूपों में पाया जाता है। यह बात भी याद रखने की है कि सभी देशों के इतिहास में प्राचीनकाल अथवा मध्यकाल की विशेषताएँ एक सी नहीं हैं। सामाजिक और अर्थिक जीवन के लक्षणों के तात्विक रूपों, संस्कृति और राजनीतिक प्रणाली में भी अंतर दिखाई देता है। यहाँ तक कि संस्कृति, राजनीतिक प्रणाली तथा सामाजिक और आर्थिक जीवन की आधारभूत विशेषताओं में भी अंतर होता है। इस दृष्टि से देखें तो मध्यकालीन चीन या मध्यकालीन भारत से कतई यह अर्थ नहीं निकलता कि इन देशों का समाज, अर्थव्यवस्था और राजनीतिक प्रणाली आदि ठीक उसी तरह की थीं जैसी मध्यकालीन यूरोप में थीं। बहरहाल, जब हम समूचे विश्व इतिहास का काल विभाजन करते हैं तो सुविधा के लिए विश्व के अनेक भागों में जो भिन्नताएँ हैं, उनको नजरंदाज कर देते हैं और समाज व्यवस्था और अर्थव्यवस्था के नए रूप को नए युग की शुरूआत का संकेत मानते हैं, चाहे वह विश्व के किसी एक ही भाग में क्यों न अस्तित्व में आई हो। इसको एक उदाहरण से हम समझ सकते हैं। पंद्रहवीं से सत्रहवीं सदी का समय पश्चिमी यूरोप में आधुनिक काल की शुरूआत माना जाता है। इसी काल को संपूर्ण विश्व इतिहास में भी आधुनिक काल की शुरूआत के रूप में देखा जाता है। ऐसा इसलिए किया जाता है कि जो नई प्रवृत्तियाँ पश्चिमी यूरोप में पहली बार प्रकट हुईं, इन्हीं सदियों के दौरान यही प्रवृत्तियाँ विश्व के दूसरे भागों में कुछ अन्य देशों और क्षेत्रों में पहली बार प्रमुख विशेषताओं का रूप धारण कर अस्तित्व में आई अथवा इन प्रवृत्तियों ने दूसरे देशों के इतिहास पर निर्णायक प्रभाव डाला। समकालीन इतिहासविदित है कि पंद्रहवीं और सत्रहवीं सदी के बीच का समय आमतौर पर विश्व इतिहास में आधुनिककाल के नाम से जाना जाता है। इसमें ‘‘आधुनिक‘‘ शब्द जिस कालखण्ड के लिए इस्तेमाल होता है, उनका आशय यह है कि इस अवधि में विकास की आरंभिक अवस्था (चौदहवीं-पंद्रहवीं सदी से शुरू करके) से लेकर आज तक की स्थितियों को समेटा गया है। यानी यह वह कालखण्ड है, जिसमें हम आज रह रहे हैं लेकिन दो-तीन दशक पहले तक इतिहासकार आमतौर पर उस काल के विषय में लिखने के प्रति उदासीन रहे हैं जिसमें वे अथवा उनके समकालीन इतिहास लेखक (जिनमें कुछ लोग कुछ दूसरों की अपेक्षा अधिक बूढ़े हैं) रह रहे हैं। दुनिया के बहुत से इतिहास, जो पाँचवे, छठे और यहाँ तक कि सातवें दशक में भी लिखे और पढ़ाए गए, 1945 तक आकर खत्म हो जाते थे (इसी वर्ष दूसरा विश्व युद्ध खत्म हुआ था) अथवा कुछ 1939 तक ही आकर रूक जाते थे (इस साल दूसरा विश्व यु़द्ध आरंभ हुआ था)। कुछ इतिहासकारों की कलम इससे भी पहले यानी 1912 या 1914 तक आकर रूक जाती थी (इन सालों में क्रमशः प्रथम विश्व युद्ध शुरू हुआ और समाप्त हुआ)। ऐसा करने के कुछ कारण तो काफी ठोस थे। इतिहासकार जिस काल में रह रहा है, इतिहास लिखने के लिए उस काल के बहुत से महत्वपूर्ण स्रोत इतिहासकार को उपलब्ध नहीं होते हैं। उदाहरण के लिए सरकार की गतिविधियों से संबंधित बहुत से महत्वपूर्ण सरकारी कागजात 50 साल बीतने के बाद ही इतिहासकारों को अध्ययन के लिए उपलब्ध हो पाते हैं (कुछ देशों में कागजात को गोपनीय रखने की अवधि 30 वर्ष है)। सरकारी गतिविधियों से जुड़े हुए और नीति बनाने में संलग्न बहुत से लोग, जैसे प्रधानमंत्री, मंत्री लोग अथवा उच्च अधिकारीगण डायरी, टिप्पणियाँ अथवा संस्मरण लिखा करते हैं। इन डायरियों और संस्मरणों को (जिन्हें सामान्यतः निजी कागजात कहा जाता है) लिखने वाले व्यक्तियों के जीवनकाल में नहीं प्रकाशित किया जाता है और जब इन्हें प्रकाशित किया भी जाता है अथवा सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराया जाता है तो इस बात का ध्यान रखा जाता है कि जिन अंशों के प्रकाश में आने से उन व्यक्तियों अथवा सरकार की छवि खराब होगी, तो उन अंशों को इतिहासकारों को उपलब्ध नहीं कराया जाता है। सरकारी अभिलेख और निजी दस्तावेज अक्सर संवेदनशील मामलों से संबद्ध होते हैं अथवा इनका संबंध जीवित व्यक्तियों से होता है। इनको सार्वजनिक बनाने से उस व्यक्ति या सरकार के लिए उलझन पैदा हो सकती है। विभिन्न देशों के नेताओं के आपसी विचार विर्मश को यदि सार्वजनिक कर दिया जाए तो ऐसा करने से उन नेताओं के अथवा उन नेताओं और दूसरे देशों के पारस्परिक संबंधों में कटुता उत्पन्न हो सकती है। कभी कभार सरकारें कुछ दस्तावेजों को सार्वजनिक बना देती हैं। ऐसा करने में उनका उद्देश्य यह साबित करना होता है कि उनकी नीतियाँ और उनके कार्य उनके अपने देश या समूचे विश्व के हित में थे और उन दूसरे दस्तावेजों को जारी नहीं किया जाता है जिनके जारी करने से विभिन्न नतीजे निकलते हों। सूचना के सभी प्रासंगिक स्त्रोतों की अनुपलब्धता की वजह से, अपने व्यवसाय के प्रति ईमानदार होने के कारण इतिहासकार हाल के वर्षों का इतिहास लिखने का जोखिम मोल नहीं लेगा।इस बात के कुछ और प्रबल कारण थे जिनके चलते कुछेक इतिहासकार उस युग का इतिहास लिखने के इच्छुक नहीं थे जिस युग में वे खुद जी रहे थे। इतिहास लेखन उसी हालत में वैध और उपयोगी बौद्धिक गतिविधि माना जाएगा, तब बिना किसी पक्षपात के इसे लिखा जाए। जो इतिहासकार वर्तमान के बारे में लिखता है, एक प्रकार से वह भी उसका भागीदार होता है और जिन घटनाओं और गतिविधियों के विषय में वह लिखता है, उनसे वह भावनात्मक स्तर पर जुड़ा भी होता है। इसलिए कहा गया है, उस इतिहासकार का लेखन पक्षपातरहित और वस्तु-परक नहीं हो सकता। समकालीन अथवा वर्तमान के विषय में लिखने के प्रति इतिहासकार की अनिच्छा के लिए जो पहला कारण बताया गया है, उसमें कोई दम नहीं है। समकालीन इतिहास के लिए तरह-तरह की सामग्री का अपार भण्डार उपलब्ध है। सामग्री की यह राशि इतनी बड़ी है कि कुछ सरकारी दस्तावेजों और निजी कागज-पत्रों के न होने से भी कोई बहुत अधिक फर्क नहीं पड़ेगा। वास्तविकता तो यह है कि इतिहास के विभिन्न पहलुओं के बारे में समकालीन इतिहास लेखन के लिए जितनी विश्वसनीय सामग्री विपुल मात्रा में आज हमें उपलब्ध है, अतीत में उतनी सामग्री कभी उपलब्ध नहीं थी। यह सामग्री इतिहासकार के लिए काफी महत्वपूर्ण है, उदाहरण के लिए सामाजिक और आर्थिक जीवन के विषय में सूचनाएँ, राजनीतिक संस्थाओं, विज्ञान और प्रौद्योगिकी और संस्कृति के विभिन्न पहलुओं से संबंधित सामग्री आज पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है। यह सामग्री किसी भी एक देश के बारे में नहीं, दुनिया के किसी भी भाग के बारे में उपलब्ध है। अतीत काल के संदर्भ में विचार करें तो और बातों को छोड़ भी दें, विश्व के अधिकांश भागों के ठीक-ठाक आंकड़े भी नाममात्र को नहीं मिल पाएँगे। यहाँ पक्षपात का प्रश्न अधिक प्रासंगिक है। यद्यपि हाल के वर्षों में भारतीय समाचार पत्रों के विषय में यह कहा जा सकता है कि अखबरों में प्रकाशित लोकप्रिय इतिहास लेखन (जिसमें कुछ ऐसे लोगों का लेखन भी शामिल है जो पेशे से इतिहासकार हैं) अठारहवीं सदी के बारे में, या कहें कि उससे भी ज्यादा प्राचीन भारत के बारे में पक्षपातपूर्ण तथा दुराग्रही दृष्टिकोण की झलक देता है। इसकी तुलना में हाल के बारे में लिखा गया इतिहास अनुमात की दृष्टि से कम पक्षपातपूर्ण है। लेकिन पक्षपात का खतरा वास्तविक है और इसको सिर्फ मानसिक संकीर्णता या मुख्यतः मानसिक संकीर्णता या विकृति मानकर छुट्टी नहीं पाई जा सकती। इतिहासकार का दृष्टिकोण उसके दार्शनिक नजरिए से भी प्रभावित हो सकता है या दुनिया की समस्याओं को देखने का उसका आम नजरिया भी उसकी इतिहास दृष्टि को प्रभावित कर सकता है। वैसे तो इतिहासकार के पेशे में मानसिक संकीर्णता के लिए कोई जगह नहीं होती, लेकिन यह बात ध्यान देने योग्य है कि कोई भी इतिहासकार ऐसा नहीं है जिसके पास कोई न कोई दार्शनिक दृष्टि न हो। इसलिए कि समकालीन समस्याओं और मुद्दों को देखने का उसके पास अपना एक दृष्टिकोण जरूर होता है, इससे तो कोई भी मुक्त नहीं हो सकता और इतिहासकार जिस समस्या का अध्ययन कर रहा है, उस अध्ययन में उसकी समझ को उसका दृष्टिकोण विरूपित न कर दे, इस संभावना से बचने के लिए उसे सतर्क रहने की जरूरत होती है। इतिहास के अध्ययन में दार्शनिक दृष्टि या आम नजरिया इतिहासकार की सहायता कर सकता है। पाठक को आलोचनात्मक दृष्टि से किसी ऐेतिहासिक रचना को पढ़ना चाहिए और यह जानने का प्रयास करना चाहिए चाहिए कि क्या इतिहासकार की दार्शनिक दृष्टि या उसके सामान्य दृष्टिकोण से ऐतिहासिक घटना अथवा ऐतिहासिक विकास के अध्ययन में कोई बाधा पहुँची है। समकालीन इतिहास के अध्ययन की सबसे गंभीर समस्या ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य की होती है। इसी बात को इतिहासकार ने इस प्रकार रखा है, ‘‘यह जानना कि अंत में क्या हुआ‘‘। किसी बीते हुए काल के विषय में (जैसे इंग्लैंड का गृह युद्ध अथवा प्लासी की लड़ाई) लिखने वाला इतिहासकार जानता है कि इनका अंत कैसे हुआ और इन घटनाओं के दूरगामी नतीजों की भी उसे जानकारी है। लेकिन कोई भी इतिहासकार उतने ही निश्चयपूर्वक नहीं लिख सकता कि शीत युद्ध का अंत किस प्रकार हुआ। इस आशंका से कि किसी इतिहासकार का दृष्टिकोण उसके ऐतिहासिक अध्ययन को विकृत न कर दे और इसलिए भी अभी इतना समय नहीं हुआ है कि पर्याप्त ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य बन सके, कुछ इतिहासकार सोचते थे कि उन्नीसवीं सदी का इतिहास लिखना भी अभी निरापद नहीं है। हाल के इतिहास से एक उदाहरण लेकर इस समस्या को समझा जा सकता है। 1928 में ‘एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका‘ के नए संस्करण के लिए एक विद्वान ने पूँजीवाद पर एक लेख लिखा। उस लेख में उन्होंने लिखा, ‘‘आज भी पूँजीवाद को बेरोजगारी के लिए दोषी ठहराया जाता है जिससे अन्यथा बचा जा सकता था। माना जाता है कि बेरोजगारी व्यापारिक गतिविधियों में बारी-बारी से होने वाले प्रचण्ड उतार-चढ़ाव से पैदा होती है। इस ‘उतार-चढ़ाव‘ को ‘तेजी‘ और ‘मंदी‘ भी कहा जाता है यह तो निश्चित है कि थोड़ा बहुत ‘उतार-चढ़ाव‘ ‘तेजी-मंदी‘ तो हर समय चलती रहती है, लेकिन शुरू में इसके उतार-चढ़ाव में जो वेग था, जो प्रचण्डता थी, वह अब बहुत कुछ थम चुकी है..।‘‘ 1929 में ‘एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका’ में यह लेख प्रकाशित हुआ और इसी साल उस भयानक महामंदी का दौर शुरू हुआ जिसकी चपेट में विश्व का हर हिस्सा आ गया। बहुत सारे पूँजीवादी देशों के लिए पश्चिमी में 1920 का दशक आर्थिक संवृद्धि और संपन्नता का काल था। जिस विद्वान ने यह लेख लिखा था, वैचारिक रूप से वह पूँजीवाद का समर्थक था लेकिन जिस समय उसका लेख प्रकाशित हुआ, उसी समय लेखक के विचारों का खोखलापन उजागर हो गया, उसका निष्कर्ष गलत साबित हो गया। इससे मिलते जुलते एक अन्य उदाहरण से यह दर्शाया जा सकता है कि हाल की घटनाएँ इसका प्रमाण हैं कि कुछ समाजवादी विचारधारा के विद्वानों का यह निष्कर्ष गलत साबित हुआ है कि विश्व की समाजवादी व्यवस्था सुदृढ़ होती जा रही है। उपरोक्त उदाहरणों से यह बात साफ हो जाती है कि समकालीन इतिहास का अधिकांश ‘सामयिक’ या ’निष्कर्षरहित’ है किंतु पूरा का पूरा इतिहास ऐसा नहीं है। जैसे उन्नीसवीं सदी या उसके पहले से यूरोपीय शक्तियों द्वारा रची गई साम्राज्यवादी व्यवस्था दूसरे विश्व युद्ध के बाद दो दशकों के दौरान ढक गई। यह वक्तव्य उसी प्रकार गलत साबित नहीं किया जा सकता जिस प्रकार यह कि नए-नए वैज्ञानिक आविष्कारों ने यह साबित कर दिया है कि पृथ्वी चपटी नहीं है। समकालीन विश्व में यूरोपीय साम्राज्यवाद के पतन का वर्णन काफी महत्वपूर्ण घटना है। समकालीन विश्व में अन्य कई महत्वपूर्ण घटनाएँ घटीं हैं जिनके बारे में हमारा ज्ञान ‘सामयिक‘ या ‘निष्कर्षहीन‘ से कुछ अधिक होगा लेकिन कुछ घटनाएँ ऐसी भी होंगी जिनके बारे में हमारा ज्ञान ‘निष्कर्षहीन‘ रहेगा। आज हम जिस दुनिया में रह रहे हैं, उसको और उसकी समस्याओं को समझने के लिए समकालीन इतिहास का ज्ञान जरूरी है, चाहे वह ‘सामयिक‘ ही क्यों न हो। लेकिन समकालीन इतिहास क्या है ? इस सवाल के उत्तर भिन्न-भिन्न हैं। इसका शाब्दिक अर्थ संभवतः यह हो सकता है कि इतिहास लेखक जब लिख रहा है, उस समय जो कुछ घट रहा है, वही समकालीन है अथवा उन घटनाओं का लेखा जोखा समकालीन इतिहास है जिन्हें इतिहासकार ने स्वयं भोगा है। लेकिन बहुत से इतिहासकारों का मानना है कि समकालीन इतिहास की भी उसी प्रकार एक विशेष अवधि अथवा विशेषताएँ हैं जिस प्रकार प्राचीन काल, मध्य काल और आधुनिक काल की होती हैं। कुछ इतिहासकार हाल के आधुनिक इतिहास को समकालीन इतिहास मानते हैं। 1960 के दशक के एक इतिहासकार का मानना है,..... हमारे युग की एक अत्यंत सुपरिभाषित विशेषता है कि समकालीन इतिहास को लेकर एक विशेष अर्थ में हम बात कर सकते हैं...... इसलिए यह महत्वपूर्ण अवधि 1945 से लेकर अब तक की है। इस अवधि को विशेष रूप से समकालीन इतिहास का क्षेत्र माना जा सकता है। 1917 से 1945 तक के समय को समकालीन इतिहास का प्रथम चरण मानते हुए एक अन्य इतिहासकार का विचार है कि ‘‘रूस में 1917 की महान समाजवादी अक्टूबर क्रांति से समकालीन इतिहास की शुरूआत होती है। मानव जीवन की भाग्य रेखा को बदलने के लिए शोषक वर्ग के प्रभुत्व को समाप्त कर और सामाजिक न्याय की स्थापना कर इस क्रांति ने सामाजिक परिवर्तन की गति को तेज किया...।‘‘ बहुत से पश्चिमी इतिहासकार 1914 से 1920 के समय को समकालीन इतिहास का क्षेत्र मानते हैं। यह विचार संभवतः इस दृष्टिकोण को व्यक्त करता है कि यूरोप का विकास ही विश्व के केंद्र में रहा है। 1965 में एक फ्रांसीसी इतिहासकार ने एक पुस्तक प्रकाशित की। पुस्तक का शीर्षक था, ‘‘मेजर कांट्रोवर्सीज ऑफ कनटेंपोरैरी हिस्ट्री‘‘ (समकालीन इतिहास के मुख्य विवाद)। उस पुस्तक में 65 विवादों का अध्ययन किया गया था जिसमें 1914 से 1945 तक के विवाद लिए गए थे। इसमें 11000 प्रकाशित पुस्तकों और व्यक्तिगत साक्षात्कारों का लेखक ने विश्लेषण किया था। इनमें से अधिकांश विवादों का संबंध यूरोपीय इतिहास की कुछ घटनाओं से था। कुछेक यूरोप और संयुक्त राज्य अमरीका की नीतियों की तुलना से संबंधित थीं और दो विवाद जापान से रूस और अमरीका के संबंधों के बारे में थे। बीसवीं सदी के इतिहास को समकालीन इतिहास का विशेष क्षेत्र मानकर विवेचन करने की प्रवृत्ति बड़ी है। यह प्रवृत्ति विश्व के सारे इतिहासकरों में दिखाई पड़ती है। बीसवीं सदी के इतिहास को इसलिए समकालीन इतिहास के रूप में नहीं देखा जाता कि ऐसा करने में तिथिक्रम के लिहाज से आसानी होती है अथवा यह काल अभी हाल में गुजरा हुआ आधुनिक काल है, बल्कि इसलिए कि इसका एक सुपरिभाषित स्वरूप है जो इतिहास में इसको एक भिन्न काल का स्वरूप प्रदान करता है, यहाँ तक कि आधुनिक इतिहास से भी इसका रूप भिन्न है। समकालीन इतिहास अथवा बीसवीं सदी के इतिहास को समकालीन विश्व इतिहास के रूप में देखने की प्रवृत्ति भी बढ़ रही है। इसकी वजह मानव जाति की जागृति है। उसमें विश्व समुदाय की चेतना का विकास हुआ है, इस बात की चेतना कि हर कोई अवश्यंभावी रूप से एक दूसरे से जुड़ा हुआ है। बीसवीं सदी के इतिहास के एक विशालकाय ग्रंथ के संपादक का कहना है कि बीसवीं सदी के पहले के समय के इतिहास के बारे में यूरोप के लोगों के लिए ऐसा अदूरदर्शितापूर्ण दृष्टिकोण अपनाना संभव था जिसमें उनका मानना था कि विश्व इतिहास में यूरोप की नेतृत्वकारी भूमिका थी। उसका मानना है कि ऐसा दृष्टिकोण, ‘‘अब एकदम असंगत है और बीसवीं सदी के इतिहासकार को पूरे विश्व को अपनी दृष्टि में रखना होगा, ऐसा इसके पहले के कालों में सच नहीं था‘‘ ज्योफ्रे बोरोक्लाफ ने अपनी पुस्तक, ‘ऐन इन्ट्रोडक्शन टु कनटेंपोरैरी हिस्ट्री‘ (समकालीन इतिहास का परिचय) में लिखा है, ‘‘समकालीन इतिहास के बारे में अनेक तथ्यों में से एक सुस्पष्ट तथ्य यह भी है कि यह विश्व इतिहास है और इसको रूपाकार देने वाली शक्तियों को तब तक नहीं समझा जा सकता जब तक हमारा परिप्रेक्ष्य विश्व स्तर का न हो जाए।‘‘ जिस काल को वे ‘समकालीन इतिहास‘ कहते हैं, वह ‘गुणवत्ता और अंतर्वस्तु‘ की दृष्टि से उस इतिहास से भिन्न है, जिसे हम आधुनिक काल के नाम से जानते हैं। उनके विचार से समकालीन इतिहास की अपनी अलग विशेषताएँ हैं, ‘‘जो इसको अपने पहले के काल से वैसे ही पृथक करतीं हैं जैसे ‘मध्य काल‘ के इतिहास से ‘आधुनिक काल‘ के इतिहास की विशेषताएँ।‘‘ इसके आरंभ की कोई निश्चित तिथि तो नहीं दी जा सकती लेकिन बोरोक्लाफ का मानना है कि समकालीन इतिहास की शुरूआत उस समय से मानी जा सकती है, जब से वे समस्याएँ साफ-साफ नजर आने लगीं जिनका सामना आज की दुनिया में हम यथार्थ रूप में कर रहे हैं। उनके विचार से यह समय उन्नीसवीं सदी का आखिरी दशक है। इस पुस्तक में हमने सामान्यतः बोरोक्लाफ के इसी दृष्टिकोण का अनुसरण किया है। समकालीन इतिहास की कुछ विशेषताएँउल्लिखित किया जा चुका है कि समकालीन इतिहास की मुख्त विशेषता है संपूर्ण विश्व का एकीकृत होना। समूची दुनिया कभी भी इसके पहले एकीकृत नहीं हुई थी जैसे आज हम देख रहे हैं। इसके बाद भी दुनिया को विभाजित करने वाली बहुत सी बातें हैं। जहाँ कुछ देश अत्यंत विकसित अर्थव्यवस्था वाले हैं, वहाँ कुछ ऐसे भी देश हैं जिनकी अर्थव्यवस्था बहुत ही पिछड़ी हुई है। विचारधारा और राजनीति के आधार पर भी दुनिया बँटी हुई है, जैसे पूँजीवाद व्यवस्था, समाजवादी व्यवस्था और इसी तरह के विभाजन के अन्य आधार भी हैं। समकालीन इतिहास के दौर का अधिकांश टकरावों और तकरारों का इतिहास है। इन बँटवारों और टकरावों के बाद भी ‘मानव जाति की आम समस्या सबकी चिंता का विषय बन गई है।‘सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन के हर पहलू और मानव गतिविधि के हर क्षेत्र में परिवर्तन समकालीन इतिहास की विशेषता है। 1940 और 1950 के दशक में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रह चुके विंस्टन चर्चिल ने अपनी एक पुस्तक में लिखा है कि जिन दिनों राजनीति की दुनिया में वे कदम रख रहे थे, उन दिनों एक बुर्जुआ नेता ने उनको सलाह देते हुए कहा था, ‘‘प्यारे विंस्टन, अपने लंबे जीवन के अनुभव के आधार पर मुझे इस बात का पक्का यकीन है कि कभी कुछ होता नहीं है।‘‘ इस सलाह पर टिप्पणी करते हुए चर्चिल कहते हैं, ‘‘तब से लेकर अब तक दुनिया में कुछ न कुछ होता ही आ रहा है।‘‘ चर्चिल ने इस सदी को ‘‘भयानक बीसवीं सदी‘‘ कहा है। अनेक दृष्टियों से समकालीन दुनिया सचमुच भयानक रही है और यह समकालीन दुनिया बीसवीं सदी ही है। इतने बड़े पैमाने पर किसी और सदी ने विध्वंस नहीं देखा और ऐसी भयानक यातना भी नहीं देखी ऐसी यातना जिससे प्रयास करने पर बचा जा सकता था। लेकिन इन भयानक बातों के अलावा भी बहुत सी बातें इस सदी में हुईं। इस काल ने विश्व स्तर पर साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद के दुर्ग को ढहते हुए देखा, यूरोप के प्रभुत्व का अंत देखा, आधुनिक युग के आरंभ से ही पूरी दुनिया पर यह प्रभुत्व कायम था। इस सदी ने उस दुनिया का उत्थान देखा जिसे आमतौर पर ‘तीसरी दुनिया‘ कहा जाता है। इसमें एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमरीका के लोग आते हैं। विश्व की गतिविधियों में इनका उदय प्रमुख शक्ति के रूप में हुआ। इसी काल ने संयुक्त राज्य अमरीका तथा सोवियत संघ को ‘विश्व शक्ति‘ अथवा ‘महाशक्ति‘ के रूप में उभरते हुए देखा है। इन दोनों देशों को इन्हीं विशेषणों के साथ अब आमतौर पर पुकारा जाता है। इस प्रकार पिछले सौ वर्षों में विश्व राजनीति की शक्ल ही पूरी तरह बदल गई। सारी दुनिया में राज्य के स्वरूप और उसके कार्यों में बदलाव आया है तथा नए-नए प्रकार के राज्यों का उदय हुआ है। विभिन्न स्वरूप वाले राज्यों में अंतर है। लेकिन इन अंतरों के बाद भी हर जगह राज्य की शक्ति में वृद्धि हुई है और भूतकाल के किसी भी राज्य की तुलना में आज राज्य को कई प्रकार की भूमिकाएँ निभानी पड़ती हैं। पहले की तुलना में कहीं ज्यादा आज अपने देश के राजनीतिक कार्यों में और इतिहास के निर्माण में आम जनता की बहुत अधिक सक्रिय भागीदारी हो गई है। यहाँ एक बात की याद दिलाना चाहता हूँ कि 1890 में दुनिया के लगभग हर हिस्से में सार्विक वयस्क मताधिकार के विषय में किसी को कुछ पता भी नहीं था अब विश्व के लगभग प्रत्येक हिस्से में यह राजनीतिक जीवन की आम बात हो गई है। अर्थव्यवस्था और समाज में पूरे विश्व स्तर पर काफी बड़े परिवर्तन हुए हैं। अठारहवीं सदी के अंतिम दशक में इंग्लैंड में शुरू हुई औद्योगिक क्रांति उन्नीसवीं सदी के अंत तक आते-आते यूरोप के कुछ देशों तथा उत्तरी अमरीका में पहुँच गई। बीसवीं सदी में उद्योगवाद विश्व स्तर की घटना बन चुकी है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी में हुई प्रगति इतनी दूरगामी और मूलगामी है कि अक्सर हम इसे क्रांतिकारी कह कर संबोधित करते हैं। उद्योग में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के सीधे प्रयोग से आर्थिक जीवन में परिवर्तन की गति और अधिक तेज हो गई है। लेकिन इस प्रक्रिया में वे देश काफी पीछे छूट गए हैं जिन्हें आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी का लाभ नहीं मिल पाया है। इसके साथ ही अर्थिक रूप से विकसित और दूसरे देशों के बीच की खाई गहरी हो गई है। दुनिया के लगभग सारे ही समाजों को जबर्दस्त रूपांतरण के रास्ते से गुजरना पड़ा है। मनुष्य की प्रत्याशाएँ बहुत अधिक बढ़ गई हैं। मानव प्रजाति की बहुत बड़ी संख्या (यदि प्रतिशत के आंकड़ों में गिनती करें तो) बहुत कुछ चाहती है और अब उसे इस बात का विश्वास भी है कि जो कुछ वह माँग रही है, वह सब उसे उपलब्ध कराया जा सकता है। उन्नीसवीं सदी के मध्य तक विचारधारा की चुनौतियाँ जबर्दस्त ताकत के साथ सामने आईं। इनका प्रतिनिधित्व उदीयमान समाजवादी विचारधारा कर रही थी। बीसवीं सदी में दुनिया के हर हिस्से में हजारों लाखों लोगों को इसने प्रभावित किया था। राजनीतिक और सामाजिक जीवन का, कला और साहित्य का और इनके साथ ही विचारों का अधिकाधिक लौकिकीकरण (धर्म से अलगाव) हुआ है, हालाँकि दुनिया के कुछ हिस्से अभी भी साम्प्रदायिक टकरावों और हिंसा के चंगुल से बाहर नहीं निकल सके हैं। समाज पर धर्म की पकड़ ढीली हुई है और मनुष्य के इहलौकिक जीवन की इच्छाओं को पूरी करने की माँग क्रमशः बढ़ती गई है। पूर्ववर्ती काल की किसी भी कला या साहित्य से समकालीन कला और साहित्य को अलग से पहचाना जा सकता है। बहुत से कलाकारों और साहित्यकारों ने कला और साहित्य की सभी परंपराओं के खिलाफ बगावत की, उन्होंने नए कला रूपों और नई तकनीकों के साथ प्रयोग किए और नए-नए अनुभवों को अभिव्यक्त किया और जिन देशों में राष्ट्रीय जागरण का दौर चला और जहाँ भी परंपराओं का सजग सचेत पुनरूत्थान अभिन्न अंग था, वहाँ जिस भी कला या साहित्य का जन्म हुआ वह कला और साहित्य स्पष्टतः नया था। वह अपने पूर्ववर्ती परंपरागत रूपों का विस्तार भर नहीं था और उन रूपों की नकल तो कतई नहीं था। दुनिया के एक हिस्से में विकास के कारण, हर हिस्से की कला और साहित्य प्रभावित हुआ है, इतना प्रभावित हुआ है कि मानव इतिहास में इतना अधिक प्रभाव और किसी काल में नहीं पड़ा। लोगों में विश्व समुदाय का बोध पैदा हुआ है और यह बोध समकालीन की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है। यह विशेषता दिन-ब-दिन प्रबल होती जा रही है। इस बात का उल्लेख पहले हो चुका है। मानव जाति की आम समस्याओं के प्रति सब लोग समान रूप से चिंतित हैं। नाभिकीय तथा आण्विक हथियारों का विकास मानव जीवन के लिए खतरा बन गया है। यह आम खतरा ही इस काल की मुख्य समस्या है। इसके अलावा दूसरी समस्याएँ भी हैं, जैसे गरीबी और पिछड़ापन, बढ़ती हुई आबादी और अभी हाल में एक समस्या पैदा हुई है और लोग इसको समस्या मानने भी लगे हैं, वह है पर्यावरण की समस्या। सारा विश्व अब भाग्य की एक ही रस्सी में बँधा है। इसके पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था। समकालीन इतिहास और आधुनिक इतिहासहम देख चुके हैं कि समकालीन इतिहास आधुनिक इतिहास से सारतः भिन्न है (और सबसे हाल का हिस्सा ही भिन्न नहीं है) तो अच्छा होगा कि आधुनिक इतिहास पर भी हम सरसरी निगाह डालें। हमें नहीं भूलना चाहिए कि इतिहास का कोई भी काल एकदम नया नहीं होता बल्कि हर नए ऐतिहासिक दौर में उसके गर्भ के काफी अवशेष बने रहते हैं। इतिहास में निरंतरता के तत्व हमेशा मौजूद रहते हैं। इसलिए वर्तमान की नवीनता को ठीक से समझने के लिए अतीत की जानकारी भी जरूरी होती है।यदि सारी दुनिया को ध्यान में रख कर हम विचार करें तो कह सकते हैं कि इतिहास में आधुनिक युग का श्रीगणेश पंद्रहवीं-सत्रहवीं सदी के दौरान हुआ (यद्यपि यह वक्तव्य दुनिया के हर क्षेत्र और हर देश पर लागू नहीं होता)। इन सदियों के दौरान पश्चिमी यूरोप के कुछ देशों में मध्यकालीन व्यवस्था से आधुनिक व्यवस्था में संक्रमण के लक्षण स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ने लगते हैं। संक्रमण के इस दौर में नवजागरण, सुधार, आधुनिक विज्ञान की शुरूआत, नए भूभागों और नए मार्गों की खोज (विशेष रूप से नए समुद्री मार्गों की) ऐतिहासिक विकास की मुख्य बातें हैं। इनके कारण अमरीका, एशिया का एक हिस्सा तथा अफ्रीकी महाद्वीप का उपनिवेशीकरण हुआ। जिस बदलाव के कारण लोगों का सामाजिक और आर्थिक जीवन संगठित हुआ था, उस आधारभूत बदलाव के साथ इन ऐतिहासिक परिवर्तनों का संबंध बहुत गहरा था। सामंतीय व्यवस्था में विघटन के बाद यह बदलाव आया था और उसकी जगह एक नई व्यवस्था ने ली थी जिसे पूँजीवाद के नाम से हम जानते हैं। इन परिवर्तनों के चलते दुनिया का बहुत बड़ा भाग एकीकृत हो गया। इस एकीकृत होने में कहीं-कहीं नृशंसतापूर्वक बल प्रयोग किया गया और अफ्रीकी देशों में यही काम लोगों को दास बनाकर पूरा किया गया। अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में एक और बदलाव दिखाई पड़ता है। इस बदलाव के चलते सबसे अधिक आधारभूत परिवर्तन हुए। यह बदलाव औद्योगिक क्रांति थी। वस्तुओं के उत्पदान में मशीनों के इस्तेमाल के साथ पहले-पहल इंग्लैंड में इसकी शुरूआत हुई। उन्नीसवीं सदी के अंतिम ढाई दशकों में औद्योगिक क्रांति यूरोप के अन्य कई देशों में फैल गई विशेष रूप से संयुक्त राज्य अमरीका में इसका विस्तार हुआ, यद्यपि इन सभी देशों में इसके विस्तार की मात्रा एक जैसी नहीं थी, जिन देशों में औद्योगिक क्रांति पहुँची, उन देशों की जनता का पूरी तरह कायाकल्प हो गया। इन देशों में आर्थिक गतिविधि का केंद्र ग्रामांचलों से खिसक कर औद्योगिक क्षेत्र में पहुँच गया। ज्यादातर लोग कृषि से हटकर औद्योगिक उत्पादन और इससे जुड़ी हुई गतिविधियों में लग गए और देश की संपित्त का बढ़ा हुआ भाग दिनों दिन कृषि क्षेत्र की जगह उद्योग से मिलने लगा। समाज में दो नए वर्गों का उदय हुआ-पूँजीपति अथवा बुर्जुआ वर्ग, जो उद्योगों का मालिक था और वाणिज्य-व्यापार पर इसका कब्जा था, दूसरा औद्योगिक मजदूर वर्ग अथवा सर्वहारा वर्ग था, जो मजदूरी के लिए काम करता था। यूरोप के उद्योगीकृत देशों के मजदूर वर्ग के लिए यह भीषण कष्ट का दौर था। मजदूरों ने ट्रेड यूनियन के रूप में अपने को संगठित करना शुरू कर दिया, हालाँकि कई देशों में ये ट्रेड यूनियनें गैर कानूनी घोषित थीं। समाजवादी विचारधारा के प्रभाव में पृथक राजनीतिक शक्ति के रूप में भी ये लोग अपने को संगठित करने लगे। इस तरह समाजवादी आंदोलन का आविर्भाव हुआ जिसने मजदूरों की न सिर्फ आर्थिक माँगों को आगे बढ़ाने का प्रयास किया बल्कि पूँजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए उनको लामबंद किया। समाजवाद के विचारों को वैज्ञानिक रूप देने में और यूरोप के अनेक देशों में समाजवादी आंदोलन को संगठित करने में कार्ल मार्क्स और फ्रेडेरिक एंगेल्स ने नेतृत्वकारी भूमिका अदा की। समाजवादी विचार अमरीका में भी पहुँचे। 1864 में अंतर्राष्ट्रीय मजदूरों का एक संगठन बनाया गया जो बाद में ‘प्रथम अंतर्राष्ट्रीय‘ या ‘फर्स्ट इंटरनेशनल‘ के नाम से विख्यात हुआ। 1876 में इसको जब औपचारिक रूप से समाप्त किया गया तब तक यूरोप के कई देशों में समाजवादी पार्टियाँ गठित की जा चुकी थीं। इनमें से कुछ पार्टियों के अनुयायियों की संख्या बहुत अधिक थी। पेरिस में 1871 में समाजवाद की प्रेरणा से पहली क्रांति हुई। इतिहास में इसे ‘पेरिस कम्यून‘ नाम से जाना जाता है। यद्यपि पेरिस कम्यून की उम्र कुल तीन माह की थी, लेकिन ऐतिहासिक महत्व की दृष्टि से यह घटना बहुत बड़ी थी। 1889 में दूसरा अंतर्राष्ट्रीय (सेकेण्ड इंटरनेशनल) स्थापित किया गया और विभिन्न देशों की समाजवादी पार्टियों को इससे संबद्ध कर दिया गया। इसी बीच कई देशों में औद्योगिक क्रांति और पूँजीवादी शोषण के कुप्रभावों से मजदूरों की रक्षा के लिए कानून पास किए गए। इन परिवर्तनों के साथ-साथ राजनीतिक क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। पहले हम राष्ट्र-राज्यों के निर्माण की बात कर चुके हैं। यह भी बता चुके हैं कि ये विकास के महत्वपूर्ण संकेत थे जो मध्य काल से आधुनिक काल में समाज के संक्रमण की सूचना दे रहे थे। उन्नीसवीं सदी में यूरोप में राष्ट्र-राज्यों का निर्माण जारी रहा और कुछ देशों में बीसवीं सदी के आरंभिक दो दशकों तक यह चलता रहा। यूरोप के इतिहास में राष्ट्रवाद का आविर्भाव एक महत्वपूर्ण कारक था। कुछ राष्ट्र एक से ज्यादा राज्यों में बँटे हुए थे (जैसे जर्मनी)। इनमें से कुछ पर किसी और देश का शासन था। स्वतंत्र राज्य के रूप में संगठित होने की इन्होंने कोशिश की। यूरोप के अनेक देशों की राजनीतिक प्रणाली में एक अन्य महत्वपूर्ण विकास देखने को मिला। यूरोप के लगभग सभी देशों में राजतंत्र और कुलीनतंत्र कायम था। सत्रहवीं सदी के गृह युद्ध के बाद केवल इंग्लैंड में संसद की सर्वोच्च सत्ता की स्थापना करने में सफलता मिल सकी। अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी में आकर लोकतंत्र और संप्रभुता जैसे लोकप्रिय विचारों को बल मिला। 1789 में फ्रांस की राज्य क्रांति हुई। इसमें स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व और मनुष्य तथा नागरिकों के अधिकार जैसे आदर्शों की घोषणा की गई। इसके पहले अंग्रेजी उपनिवेशों के लोगों ने ‘स्वतंत्रता का घोषणा पत्र‘ जारी किया था जिसमें इस आशय की घोषणा की गई थी कि ‘जन्म से सभी मनुष्य समान है’ और इनके कुछ ‘अहरणीय अधिकार‘ हैं और जनता को यह अधिकार है कि किसी भी दमनकारी सरकार को वह उखाड़ फेंके। उपनिवेश के लोग अपनी स्वतंत्रता की लड़ाई में सफल रहे और उन्होंने नया स्वतंत्र गणतंत्र स्थापित कर लिया। इस गणतंत्र का नाम संयुक्त राज्य अमरीका था। उन्नीसवीं सदी के यूरोप के इतिहास में राष्ट्रवाद के साथ लोकतंत्र एक महत्वपूर्ण शक्ति थी। यूरोप के अधिकांश देशों में लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था कायम करने के लिए अनेक क्रांतियाँ और आंदोलन हुए। यद्यपि यूरोप के सभी देशों में राजतंत्रीय सरकारों का अस्तित्व बना रहा। अनेक देशों में राजतंत्र को संवैधानिक रूप मिला हुआ था अर्थात् उनका शासन संविधान द्वारा चलाया जाता था और वास्तविक सत्ता का इस्तेमाल संसद करती थी। लेकिन अधिकांश देशों में सबको वयस्क मताधिकार नहीं मिल सका था और बहुत से स्त्री-पुरूष मतदान के अधिकार से वंचित थे। उपरोक्त कही गई सारी बातें यूरोप और उत्तरी अमरीका तक सीमित थीं। यहाँ तक कि यूरोप में कुछ ऐसे देश थे जो इन सब परिवर्तनों से अप्रभावित थे। उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशक के दौरान जापान के अलावा दुनिया के अन्य देशों में न तो औद्योगिक क्रांति हुई और न ही उस तरह के राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन हुए जिनकी चर्चा हम पहले कर चुके हैं। हम पहले कह चुके हैं कि अमरीका (दक्षिणी और उत्तरी), एशिया के कुछ भागों और अफ्रीकी देशों का उपनिवेशीकरण तब शुरू हुआ था जब नए भूभागों और नए समुद्री मार्गों का पता चल गया था। उन्नीसवीं सदीं के अंतिम तीन दशकों के दौरान साम्राज्यवाद की एक नई लहर उठी और फिर इस सदी के अंत के पहले ही विश्व का तकरीबन हर हिस्सा प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से किसी न किसी यूरोपीय शक्ति (संयुक्त राज्य अमरीका) के अधीन किया जा चुका था। कुछ देशों को वास्तविक रूप से अधीन करने में काफी समय लगा था क्योंकि इन उपनिवेशों की जनता की ओर से जबर्दस्त प्रतिरोध हुआ था। कुछ अन्य देशों जैसे भारत पर साम्राज्यवाद की विजय पहले ही हो चुकी थी। जिनको हम आज तीसरी दुनिया के देश कहते हैं, साम्राज्यवादी देशों द्वारा उनका शोषण किया गया था और उन देशों का भी आर्थिक शोषण उन्होंने किया था जो उनके प्रत्यक्ष नियंत्रण में नहीं थे। शुरू से ही उपनिवेशों की जनता ने साम्राज्यवादी शासन का प्रतिरोध किया। यद्यपि, उन्नीसवीं सदी की समाप्ति के पहले से ही औपनिवेशिक शासन के प्रभुत्व वाले देशों में अत्यंत शक्तिशाली ताकतें उभरने लगी थीं। लेकिन यहाँ इस बात को याद रखना जरूरी है कि जिन लोगों ने औपनिवेशिक शासन को खत्म करना चाहा था उनका मकसद अपने देश में उपनिवेशवाद के पहले वाली राज्य व्यवस्था को पुनः बहाल करना नहीं था। इसके विपरीत उनका उद्देश्य अपने देश को आधुनिक राष्ट्र का रूप प्रदान करना था, साथ ही समानता के आधार पर आधुनिक समाज की रचना और औद्योगीकरण करना भी उनका उद्देश्य था। बीसवीं सदी में जो दुनिया अस्तित्व में आई, उससे उसके पहले की यह दुनिया एकदम अलग थी। खासतौर से जिस दौर में हम रह रहे हैं, वह तो उससे एकदम अलग है। बहरहाल, यह बात याद रखने की है कि जिन शक्तियों को बीसवीं सदी का निर्माण करना था, उन्नीसवीं सदी में ही उनके अंकुर फूटने लगे थे। | |||||||||
| |||||||||