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आधुनिक भारत की विरासत
यद्यपि भारत में अंग्रेजी शासन का आरम्भ 1757 ई. में हुई प्लासी की लड़ाई के पश्चात् से माना जा सकता है, परन्तु पश्चिमी संस्कृति का मुख्य प्रभाव 1835 ई. में अंग्रेजी भाषा की शिक्षा के आरम्भ होने से हुआ। उसके पश्चात् 50 वर्षों में ही पश्चिमी संस्कृति के विचारों ने भारत में इतना अधिक परिवर्तन ला दिया जितना सम्भवतया पिछले 1000 वर्षों में नहीं हुआ था। भारत ऐसे समय में पश्चिमी संस्कृति के सम्पर्क में आया जबकि फ्रांस की राज्य-क्रान्ति हो चुकी थी और पश्चिमी यूरोपीय विचारधार तर्क और व्यक्तिवाद की श्रेष्ठता को स्वीकार कर चुकी थी। पश्चिमी सभ्यता ने उस समय तक विश्वास के स्थान पर तर्क और बाह्य सत्ता के स्थान पर व्यक्ति की स्वयं की भावना को श्रेष्ठ स्वीकार कर लिया था जिसने सामाजिक न्याय और राजनीतिक अधिकारों को नवीन मान्यता प्रदान की। भारत गम्भीर रूप से इस भावना से प्रभावित हुआ।
अंग्रेजी शासन ने विभिन्न प्रकार से भारतीय संस्कृति को प्रभावित किया और प्रायः जीवन के सभी क्षेत्रों पर उसका प्रभाव पड़ा, परन्तु उसका सबसे मुख्य प्रभाव तर्क और व्यक्तिवाद की भावना थी। इसने भारतीयों को आस्था के स्थान पर तर्क का मार्ग बताया। इसी ने यह भावना प्रदान की कि किसी भी विचार या भावना को स्वीकार करने से पहले उसके उचित और अनुचित होने का निर्णय कर लेना चाहिए। मस्तिष्क द्वारा स्थापित और स्वीकृत विचारों, भावनाओं और सत्ता का विरोध करना स्वतन्त्र विचार और भावना का प्रतीक है और वही सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक प्रगति का मुख्य आधार है। पश्चिमी संस्कृति से भारतीयों ने इस स्वतन्त्र मस्तिष्क, विचार और तर्क को प्राप्त किया जिससे उनके विश्वास की प्राचीन दीवारें टूट गयीं और उन्होंने जीवन के सभी प्रश्नों, विचारों, परम्पराओं आदि के विषय में एक बड़े प्रश्न-चिन्ह को लेकर सोचना आरम्भ किया। इसी से प्राचीन विश्वास, धारणाएँ परम्पराओं आदि या तो समाप्त हो गयीं अथवा उनमें तर्क के आधार पर परिवर्तन किये गये और इस प्रकार सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक आदि जीवन के सभी क्षेत्रों में एक नवीन चेतना आयी और इन सभी क्षेत्रों में प्रगति हुई। यह स्वाभाविक ही था कि पश्चिमी संस्कृति का प्रथम सम्पर्क भारतीयों को पश्चिमी संस्कृति की श्रेष्ठता में विश्वास दिलाता। नवीन संस्कृति का पहला प्रभाव शिक्षित भारतीयों पर पश्चिमी संस्कृति की नकल करना था। शिक्षित भारतीयों ने पश्चिमी संस्कृति, वेश-भूषा और व्यवहार, यहाँ तक कि धर्म को भी तेजी से स्वीकार करना आरम्भ किया और ऐसा प्रतीत हुआ कि सम्पूर्ण भारत पश्चिमी सभ्यता और धर्म को ग्रहण कर लेगा, परन्तु ऐसा नहीं हुआ। आरम्भ के तूफान के पश्चात् जब शान्ति हुई तो भारतीयों ने अपने धर्म, समाज और संस्कृति को नवीन विचारों से परिवर्तित किया और भारतीय संस्कृति का आधुनिकीकरण किया और उसे पश्चिमी सभ्यता के मुकाबले ही नहीं बल्कि उससे भी श्रेष्ठ सिद्ध करने का प्रयत्न किया और इस प्रयत्न से भारत के जीवन के सभी क्षेत्रों में न केवल परिवर्तन ही हुए बल्कि प्रगति भी हुई। धर्मपश्चिमी संस्कृति का सबसे महत्वपूर्ण प्रभाव 19वीं सदी में धार्मिक और सामाजिक आन्दोलनों का आरम्भ होना था और उसमें भी मुख्यतया हिन्दू धर्म और सामाजिक आन्दोलनों का। राजा राममोहन राय ने इस आन्दोलन को आरम्भ किया। उनके पश्चात् से धर्म और समाज-सुधार की यह भावना तीव्रतर होती गयी। देवेन्द्रनाथ टैगोर, केशवचन्द्र सेन, स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानन्द और आधुनिक समय में श्री अरविन्द और महात्मा गाँधी जैसे व्यक्तियों ने हिन्दू समाज और धर्म को दिन-प्रतिदिन नवीन चेतना, नवीन भावना और नवीन मोड़ दिया और हिन्दू संस्कृति और धर्म की श्रेष्ठता को स्थापित किया। राजा राममोहन राय ने सर्वप्रथम वेदों के ज्ञान का परिचय भारतीयों को कराया। स्वामी दयानन्द ने उनकी श्रेष्ठता को स्थापित किया, स्वामी विवेकानन्द ने भारतीय आध्यात्मवाद की श्रेष्ठता को भारत में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी फैलाया और महात्मा गाँधी के समय तक हिन्दू धर्म जीवन का एक व्यवहारिक कार्यक्रम बन गया। राजा राममोहन राय ने भारतीयों को मूर्ति पूजा तथा कर्मकाण्ड को छोड़कर एक ‘सत्य ईश्वर’ की पूजा में विश्वास सिखाया, स्वामी विवेकानन्द ने ‘उग्र हिन्दू धर्म‘ को स्थापित किया और स्वामी विवेकानन्द ने मनुष्य-मात्र में ईश्वरीय स्वरूप को स्वीकार करने का विचार दिया। अब हिन्दुओं को न ईसाई धर्म को स्वीकार करने की आवश्यकता थी और न अपने को हीन समझने का कोई कारण। सोया हुआ हिन्दू धर्म फिर से जाग्रत हो गया और अपने ऊपर जमी हुई धूल को हटाकर संसार के सभी धर्मों के सम्मुख सम्मान से खड़ा हो गया। मुसलमान, पारसी आदि भी इस भावना से मुक्त न रहे और उन्होंने भी अपने धर्मों के सुधार के प्रयत्न किये और पर्याप्त अंशों में सफलता भी पाई।समाजधर्म-सुधार, समाज-सुधार से पृथक् न रहा। जिस तर्क की भावना ने भारतीयों को धर्म-सुधार की प्रेरणा दी थी उसने उससे भी अधिक सामाजिक कुरीतियों को दूर करने की आवश्यकता को बताया। बाल-विवाह, पर्दा-प्रथा, सती-प्रथा, देवदासी-प्रथा, बहु-विवाह आदि समाप्त हो गये हैं या हो रहे हैं। विधवा-विवाह, अन्तर्जातीय-विवाह और खान-पान भी आरम्भ हो गये हैं। वेश-भूषा, खान-पान, आचार-विचार आदि पर भी पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव स्पष्ट है। जाति-प्रथा और संयुक्त परिवार व्यवस्था भी दुर्बल हो रही है। अछूतों की स्थिति पहले की तुलना में बहुत ठीक हो गयी है और समाज में स्त्रियाँ समान अधिकार प्राप्त कर रही हैं। आधुनिक भारतीय समाज अपनी अनेक कुरीतियों से मुक्त हो चुका है। समानता की भावना समाज के सभी वर्गों में स्पष्ट है और सामाजिक नैतिकता की भावना भी भारत में आ रही है। निःसन्देह, इन परिवर्तनों से भारतीय समाज में कुछ उथल-पुथल है और कुछ अव्यवस्था दिखाई पड़ती है, परन्तु तब भी यदि सभी दृष्टिकोण से समाज की स्थिति का निर्णय किया जाये तो इसमें कोई सन्देह नहीं कि आधुनिक भारतीय समाज बहुत कुछ प्रगति कर चुका है और आगे भी प्रगति करेगा।मुसलमानों में धार्मिक, सामाजिक और शिक्षात्मक सुधार का कार्य अलीगढ़-आन्दोलन ने आरम्भ किया। सर सैय्यद अहमद खाँ उस आन्दोलन के प्रवर्तक थे। उन्होंने न केवल अंग्रेजों और मुसलमानों के परस्पर सम्बन्धों को सुधारा बल्कि मुसलमानों को आधुनिक शिक्षा की ओर आकर्षित किया। विभिन्न अन्य समुदायों की स्थापना के अतिरिक्त उनका एक प्रमुख कार्य अलीगढ़ में एंग्लो-ओरिएण्टल कॉलेज की स्थापना करना था जो बाद में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय बना। यह विद्यालय मुसलमानों की शिक्षात्मक, सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक प्रगति और परिवर्तनों का मुख्य स्थान बना। मुसलमानों में आधुनिक विचारधारा को विकसित करने का श्रेय भी इसी विद्यालय को गया। पश्चिमी विचार, स्त्री-शिक्षा, समाज-सुधार और मुसलमानों में पश्चिमी संस्कृति के विकास के लिए भी इस विद्यालय ने महत्वपूर्ण कार्य किया। इस प्रकार अंग्रेजी शासन के अन्तर्गत मुसलमानों में भी आधुनिकीकरण का आरम्भ हुआ और भारतीय मुसलमानों ने अपनी वेश-भूषा, विचार, रहन-सहन आदि में परिवर्तन किये। राजनीतिअंग्रेजी शासन ने भारत के राजनीतिक विचारों को भी बहुत बड़ी मात्रा में प्रभावित किया। भारत के सामाजिक और धार्मिक आन्दोलन भी भारतीय राजनीति को प्रभावित करने वाले थे। डॉ. मजूमदार ने लिखा है - ‘‘भारतीय राजनीतिक भावनाओं और कार्यों को राष्ट्र की सत्य, न्याय और प्रेम की आध्यात्मिक भावना से अलग करके समझना सम्भव नहीं है क्योंकि वह भी उनके प्रभाव का एक बाह्य स्वरूप है।’’ स्वामी दयानन्द सरस्वती और स्वामी विवेकानन्द का राष्ट्रीय भावना के निर्माण में सहयोग स्पष्ट है। महात्मा गाँधी की राजनीतिक भी धर्म और आध्यात्मवाद पर निर्भर थी। इसके अतिरिक्त भी समानता, स्वतन्त्रता, जनतन्त्र, राष्ट्रीयता आदि राजनीति विचारों को भारत ने अंग्रेजी शासन से ही प्राप्त किया है। आधुनिक भारतीय प्रजातन्त्र अंग्रेजी सभ्यता और शासन की ही देन है।भारतीय राजनीति में साम्प्रदायिकता का आरम्भ भी अंग्रेजी शासन की देन है। मुख्यतया सिक्खों और उससे भी अधिक मुसलमानों से साम्प्रदायिकता का आरम्भ और विकास अंग्रेजी शासन-काल में हुआ। 1906 ई. में मुस्लिम लीग की स्थापना अंग्रेजों के प्रोत्साहन से हुई और राजनीति में साम्प्रदायिकता को स्पष्ट रूप से 1909 ई. से कौन्सिल एक्ट में ‘साम्प्रदायिक निर्वाचन-प्रणाली’ को आरम्भ करके सम्मिलित किया गया। उसी का अन्तिम परिणाम भारत का विभाजन और पाकिस्तान का निर्माण था। यही नहीं अपितु सिक्खों में अलगाव की राजनीति का आरम्भ भी अंग्रेजी शासन-काल में किया गया था जिसको हम उग्र स्वरूप में वर्तमान भारतीय राजनीति में अब देख रहे हैं। शिक्षाअंग्रेजों की एक प्रमुख देन अंग्रेजी भाषा की शिक्षा है, परन्तु यह तो एक आरम्भ-मात्र था। आधुनिक भारतीय शिक्षा-पद्धति, अध्ययन के विषय, विज्ञान और औद्योगिक शिक्षा आदि सभी अंग्रेजों की देन है। मध्य-युग में हिन्दू और मुसलमान दोनों की शिक्षा का आधार मुख्यतया धार्मिक ग्रन्थ रहे। इसमें सन्देह नहीं कि भारतीयों ने विभिन्न ललित-कलाओं और कुछ मात्रा में वैज्ञानिक क्षेत्र में भी अद्वितीय कार्य किये थे, परन्तु यह ज्ञान कुछ ही व्यक्त्यिों तक ही सीमित था और अधिकांशतया यह कार्य पैतृक व्यवसाय की दृष्टि से किये जाते थे, जैसे शिल्पी का पुत्र शिल्पी ओर वैद्य का पुत्र वैद्य हुआ करता था। विभिन्न विषयों में सार्वजनिक शिक्षा का प्रयत्न अंग्रेजी शासन-काल में आरम्भ हुआ। कला, विज्ञान इंजीनियरिंग, चिकित्सा आदि और उनकी विभिन्न शाखाओं का अध्ययन सार्वजनिक रूप से अंग्रेजी शासन-काल में आरम्भ हुआ जिससे किसी भी प्रकार की कोई शिक्षा किसी विशेष व्यक्ति अथवा विशेष परिवार तक सीमित न रही और बड़ी संख्या में व्यक्तियों की रूचि और योग्यता का लाभ प्राप्त किये जाने की सम्भावना बढ़ी। प्राथमिक शिक्षा से लेकर विश्वविद्यालय तक की शिक्षा का संगठन अंग्रेजी शासन-काल में हुआ। निःसन्देह, आधुनिक समय में इस शिक्षा-पद्धति में अनेक दोष हैं और इसमें परिवर्तन हो रहे हैं और किये जाने की माँग भी है, परन्तु अंग्रेजों द्वारा स्थापित शिक्षा-पद्धति और अंग्रेजी शिक्षा के अध्ययन ने भारतीयों को बहुत लाभ पहुँचाया। इसके कारण भारतीय न केवल पश्चिमी राज्यों या संसार के अन्य सभी राज्यों के सम्पर्क में आये बल्कि पश्चिमी संस्कृति के सम्पूर्ण ज्ञान को इसने भारतीयों के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया जिससे भारतीयों की जीवन के सभी क्षेत्रों में प्रगति सम्भव हो सकी, परन्तु अब इस पद्धति में तथा अंग्रेजी भाषा को अन्तर्राजकीय सम्पर्क की भाषा बनाये रखने से भारत को हानि हो रही है। इस कारण इस पद्धति में परिवर्तन करने तथा हिन्दी को राष्ट्र-भाषा का व्यवहारिक स्वरूप प्रदान करने की शीघ्र आवश्यकता है।मध्यम वर्ग की उत्पत्तिअंग्रेजी शासन और शिक्षा के कारण भारत में एक नवीन वर्ग का जन्म हुआ, जिसमें सरकारी या गैर-सरकारी नौकरी करने वाले, अध्यापक, डॉक्टर, इंजीनियर, मध्यम व्यापारी-वर्ग आदि सम्मिलित हैं। इस वर्ग की अपनी पृथक् विशेषता है। एक तरफ यह वर्ग पर्याप्त प्रतिक्रियावादी है और दूसरी तरफ आधुनिक भारत के निर्माण में इसने बड़ा सहयोग प्रदान किया है। भारत की शिक्षा, राजनीति, ललित-कला आदि सभी की उन्नति का मूल कारण यही है। शिक्षा और राजनीति में इसी वर्ग ने नेतृत्व किया है, शासन और न्याय इसी के हाथों में है, सांस्कृतिक निर्माण में इसका महत्वपूर्ण योगदान है और व्यवसाय और उद्योगों की प्रगति भी बहुत कुछ इसी वर्ग की बुद्धि पर निर्भर करती है, परन्तु अब यह वर्ग प्रतिक्रियावादी सिद्ध हो रहा है जिसके कारण यह आवश्यक है कि उसे हाथों से नेतृत्व छीन लिया जाये।विभिन्न भारतीय भाषाओं के साहित्य का विकासअंग्रेजी भाषा के माध्यम से भारतीय पश्चिमी साहित्य के सम्पर्क में आये और उससे विभिन्न प्रादेशिक भाषाओं ने प्रोत्साहन प्राप्त किया। छापाखाने और समाचार-पत्रों की स्थापना हो जाने से इस कार्य में अधिक सहयोग प्राप्त हुआ। पश्चिमी साहित्य के राष्ट्रीयता, स्वतन्त्रता, सामानता, जनतन्त्र आदि के विचारों ने भारतीय साहित्य को बहुत प्रभावित किया। भारतीय गद्य का निर्माण वास्तव में अंग्रेजी पुस्तकों के अनुवाद से प्रारम्भ हुआ। भारतीय नाटकों पर अंग्रेजी नाटकों का प्रभाव स्पष्ट है। एकांकी और समस्या-नाटक इसी प्रभाव का परिणाम हैं। छोटी-छोटी कहानियों और उपन्यासों पर भी पाश्चात्य साहित्य का प्रभाव स्पष्ट है। पद्य (Poetry) में भी भारतीयों ने अंग्रेजी सॉनेट (Sonnet) और ओड (Ode) की नकल करते हुए ‘चतुर्दश पदियाँ‘ और ‘सम्बोधन गीत’ लिखे। अंग्रेजी गीतों (Lyrics) का भी भारतीयों ने अनुकरण किया। विभिन्न प्रादेशिक भाषाओं के व्याकरण के निर्माण को अधिकांश ईसाई धर्म-प्रचारकों ने आरम्भ किया था जिसके कारण उनके साहित्य का विकास सम्भव हो सका। देखा जाये तो हिन्दी, बंगाली, उर्दू, गुजराती, तमिल आदि प्रादेशिक भाषाओं की उन्नति और उनके साहित्य का निर्माण अंग्रेजी शासन-काल में हुआ। आरम्भ में भारतीयों ने पश्चिमी साहित्य की नकल की, दूसरे भाग में भारतीयों ने भारतीय विचारों और धारणाओं को पाश्चात्य तरीकों और विचारों से प्रभावित होते हुए प्रकट किया और अन्त में भारतीय साहित्य में स्वयं मौलिक रचनाओं के निर्माण की शक्ति आ गयी और शुद्ध भारतीय साहित्य का निर्माण हुआ।वैज्ञानिक अन्वेषण की भावनाअंग्रेजी संस्कृति के सम्पर्क से भारतीयों को एक महत्वपूर्ण ज्ञान ‘ज्ञान-विज्ञान की उपयोगिता‘ प्राप्त हुआ है। भारतीयों ने यह अनुभव किया कि पश्चिम की प्रगति का मूल आधार उसकी प्रकृति पर विजय है जो उसने भौतिक-विज्ञान की उन्नति द्वारा की है। यदि भारत को भी संसार में दूसरे देशों की तुलना में खड़ा होना है और औद्योगिक, भौतिक तथा आर्थिक प्रगति करनी है तो यह आवश्यक है कि भारतीय भौतिक-विज्ञानों की प्रगति करें। स्वयं अंग्रेजों ने कई स्थानों पर विज्ञान की प्रगति और अन्वेषण के लिए शिक्षा-केन्द्र स्थापित किये। स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत में अब ऐसे अनेक अन्वेषण-केन्द्र स्थापित किये गये हैं और प्रायः सभी भौतिक-विज्ञानों की प्रगति का प्रयत्न किया गया है।स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत ने इस दिशा में अतीव प्रगति भी की है। भारत में विभिन्न नवीन उद्योग आधुनिक विज्ञान और तकनीकि प्रगति के कारण ही सम्भव हो पाये हैं। भारत में नवीनतम मशीनें, रेलवे-इंजन और यात्रा के डिब्बे, हवाई जहाज आदि ही नहीं बनाये जा रहे हैं अपितु भारत अणु-शक्ति के विकास में भी एक अग्रणी देश हैं। यही नहीं अपितु भारत कई विदेशी राज्यों में विभिन्न उद्योगों की स्थापना कर रहा है और उनमें से कई शिक्षा, उद्योग और आधुनिकीकरण के लिए भारत के आभारी हैं। यह भी एक प्रकार, से भारत को अंग्रेजी शासन की देन है क्योंकि इस प्रगति की पृष्ठभूमि का निर्माण अंग्रेजी काल की शिक्षा-पद्धति ने किया। ललित-कलाएँभारतीयों को ललित-कलाओं की उन्नति का मार्ग भी अंग्रेजों से प्राप्त हुआ। भारतीय अपनी ललित-कलाओं के प्राचीन गौरव को भूल चुके थे। जो भी चिन्ह उन कलाओं के प्राप्त होते थे वे सभी मुस्लिम काल के थे। हिन्दू काल में इन कलाओं की क्या स्थिति थी, इसका ज्ञान भारतीयों को न रहा था। अंग्रेज विद्वानों और पुरातत्व विभाग ने प्राचीन भारत के गौरव-चिन्हों की खोज की। सिन्धु नदी की संस्कृति की खोज, अशोक के स्तम्भ और शिलालेख, अजन्ता के भित्ति-चित्र, बौद्ध गुफाओं और स्तूपों की खोज, एलोरा और उत्तरी तथा दक्षिणी भारत के अनेक मन्दिरों की खोज अंग्रेज विद्वानों ने ही की। हैवल, फर्गूसन, कनिंघम, पर्सी ब्राउन, स्मिथ जैसे अनेक विदेशी विद्वानों ने भारतीय गौरव के इन अवशेषों की खोज की जो भारतीय संस्कृति की अमूल्य निधियाँ हैं। उसके पश्चात् भारतीय विद्वानों ने भी इस दिशा में उल्लेखनीय कार्य किया और इस प्रकार न केवल प्राचीन भारत के गौरव की ही खोज की बल्कि भारतीय इतिहास का भी निर्माण किया तथा भविष्य की प्रगति के लिए भी प्रोत्साहन प्रदान किया। इसके अतिरिक्त भारतीय स्थापत्य-कला, मूर्ति-कला, चित्र-कला और गायन-कला पर भी पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव आया और इन क्षेत्रों में आधुनिक समय में जो उन्नति हुई है उसमें बहुत कुछ पश्चिमी संस्कृति का योगदान है।संस्कृत साहित्यअंग्रेज विद्वानों ने प्राचीन भारतीय धार्मिक ग्रन्थों की खोज की। भारतीय वेदों, उपनिषदों और अपने बौद्ध ग्रन्थों को खो चुके थे या भूल चुके थे। मैक्स मूलर और विलियम जोन्स जैसे अंग्रेज विद्वानों ने इन प्राचीन ग्रन्थों का संग्रह किया, देश-विदेश से उनको मँगाया और फिर अनेक भाषाओं में इनके अनुवाद हुए। अपने प्राचीन धर्म, संस्कृति, ज्ञान और धार्मिक ग्रन्थों के लिए भी हम बहुत कुछ अंग्रेजों के आभारी हैं। वर्तमान भारत में संस्कृत-शिक्षा-संस्थानों की संख्या में वृद्धि हुई है जिनके द्वारा विभिन्न शोध-कार्य किये जा रहे हैं और जिनके माध्यम से भारत के अतीत के गौरव की स्थापना का प्रयत्न किया जा रहा है।भारत का आर्थिक जीवनभारत के आर्थिक जीवन को अंग्रेजी शासन ने गम्भीरता से प्रभावित किया। इंग्लैण्ड में उद्योग-धन्धों की क्रान्ति और मशीनों के युग के आरम्भ हो जाने से भारत अंग्रेजों के लिए कच्चे माल को बेचने और बने हुए सामान को खरीदने का एक बड़ा बाजार बन गया। इससे भारत का धन इंग्लैण्ड जाने लगा। भारतीय उद्योग-धन्धे नष्ट हो गये और कृषि पर भार बढ़ता गया। अगर किसी दृष्टि से अंग्रेजों ने भारत का शोषण किया तो वह अर्थ-व्यवस्था ही थी। अंग्रेजों की इस शोषण-नीति के कारण भारत एक निर्धन देश बन गया। अंग्रेजों ने भारत के औद्योगीकरण के लिए कभी प्रयत्न नहीं किया और जो कुछ भी विकास इस क्षेत्र में हुआ, वह मजबूरी में परिस्थितियोंवश हुआ।परन्तु बहुत लम्बे समय तक भारत के औद्योगीकरण को रोकना सम्भव न हो सका। इस क्षेत्र में प्रथम महायुद्ध के समय भारतीयों को एक अच्छा अवसर प्राप्त हुआ और उसके पश्चात् जापान, जर्मनी और अमेरिका के औद्योगीकरण ने भारत को बहुत प्रोत्साहन प्रदान किया। धीरे-धीरे नवीन उद्योगों का निर्माण हुआ। भारत ने आर्थिक प्रगति की ओर कदम रखा। इसके साथ-साथ कृषि का आधुनिकीकरण हुआ। स्वतन्त्रता के पश्चात् इस दिशा में बहुत प्रयत्न किया गया। इसी समय में औद्योगीकरण के साथ-साथ भारत में समाजवाद और साम्यवाद के विचारों का उत्कर्ष हुआ और इनसे सम्बन्धित अन्य समस्याओं की उत्पत्ति हुई। इस प्रकार, यद्यपि अंग्रेजी समय में भारत के आर्थिक विकास का कोई प्रयत्न नहीं किया गया, परन्तु तब भी भारत औद्योगीकरण की भावना और प्रयत्नों से बच नहीं सका। इस प्रकार, अंग्रेजी शासन ने विभिन्न प्रकार से भारतीय जीवन और संस्कृति को प्रभावित किया है। अनेक व्यक्तियों का कथन है कि अंग्रेजी शासन प्रत्येक दृष्टि से भारतीयों के लिए हानिकारक सिद्ध हुआ है। आपसी फूट, नैतिकता से गिरावट, निर्धनता, भारतीय संस्कृति के जीवन के लक्ष्यों में अविश्वास आदि हमें अंग्रेजी शासन से ही प्राप्त हुए हैं। निःसन्देह, अंग्रेजों की दासता भारत के पतन का मुख्य कारण है। उपर्युक्त विचार सम्भवतया उग्र राष्ट्रीयता की भावना को सन्तुष्ट करने का कार्य कर सके, परन्तु इसे उचित स्वीकार नहीं किया जा सकता। निःसन्देह, यदि भारत स्वतन्त्र होता और अंग्रेजी दासता उसने स्वीकार न की होती तो भी उसकी प्रगति होती और वह विश्व की आधुनिक प्रगति और धारणाओं से प्रभावित होता, परन्तु भारत की राजनीतिक एकता, पाश्चात्य संस्कृति के सम्पर्क में आना, भारत की प्राचीन संस्कृति और गौरव की खोज, धर्म और समाज-सुधार, आधुनिक शिक्षा और विज्ञान की प्रगति आदि सभी का श्रेय अंग्रेजी शासन को है। अंग्रेजों ने आर्थिक दृष्टि से भारत का शोषण अवश्य किया अन्यथा जीवन के सभी क्षेत्रों में अंग्रेजी शासन का प्रभाव लाभदायक रहा। अंग्रेजी शासन यहाँ न होता तो क्या होता, यह तो केवल विचार-मात्र है। यह निष्कर्ष करना कि वह अच्छा होता या बुरा होता, यह तो केवल सोचा ही जा सकता है। निश्चित रूप से इस विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता। यथार्थ यह है कि अंग्रेजी शासन यहाँ था और यद्यपि उससे भारत को हानि भी हुई, परन्तु भारत ने उससे अनेक लाभ भी प्राप्त किये हैं। 19वीं सदी भारत के मध्य-युग और आधुनिक युग को विभक्त करती है और इसमें सन्देह नहीं कि उसके आरम्भ से अब तक भारत में जो परिवर्तन हुए हैं वह पिछले एक हजार वर्षों में भी नहीं हुए। यही अंग्रेजों के शासन के प्रभाव को भारत में स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त हैं। जहाँ तक अंग्रेजी शासन के दोषों का प्रश्न है, हमें इस सत्य को मानकर चलना होगा कि प्रत्येक साम्राज्यवादी शक्ति साम्राज्य की स्थापना अपने लाभ के लिए ही करती है। इस कारण, अधीन-राज्य में विभिन्न दोषों का उत्पन्न होना स्वाभाविक है, परन्तु स्वतन्त्रता के पश्चात 73 वर्षों में भी भारतीयों का अपने को उन दोषों और प्रभावों से मुक्त न कर पाना भारतीय शासक-वर्ग की अनैतिकता तथा बौद्धिक दिवालियापन का प्रमाण है। इसके लिए अब अंग्रेजी शासन को दोष देना सर्वदा अनुचित और अव्यवहारिक है। | |||||||||
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