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पूर्वमध्यकाल में आर्थिक परिवर्तन
सामाजिक विघटन और कृषि सम्बन्धी परिवर्तनप्राचीन भारतीय समाज जो धीरे-धीरे मध्य-कालीन समाज में बदला, उसका मूल कारण था भूमिदान की प्रथा। यह प्रथा कैसे आरम्भ हुई ? भूमिदान के शासन-पत्र (सनद) बताते हैं कि दाताओं, मुख्यतः राजाओं को पुण्य-प्राप्ति की कामना रहती थी और दान पाने वालों, मुख्यतः भिक्षुओं और पुरोहितों को धार्मिक अनुष्ठानों के लिए धन की आवश्यकता रहती थी। परन्तु वास्तव में यह प्रथा एक ऐसे संकट के कारण चली जो प्राचीन सामाजिक व्यवस्था के ऊपर मंडरा रहा था। वर्णमूलक समाज-व्यवस्था की आधारशिला थी - वैश्य। वैश्य कहलाने वाले किसानों और शूद्र कहलाने वाले मजूदरों के उत्पादनात्मक कार्यकलाप। राजा के अधिकारी इन वैश्यों से जो कर वसूलते थे उससे राजा अपने अधिकारियों और सैनिकों को वेतन चुकाता था, पुरोहितों को दान-दक्षिण देता था और भोग विलास की वस्तुएँ वणिकों और बड़े-बड़े शिल्पियों से खरीदता था। लेकिन ईसा की तीसरी-चौथी सदियों में आकर एक घोर सामाजिक संकट ने इस व्यवस्था को ग्रसित कर लिया। समकालीन पुराणों ने एक ऐसी अवस्था का वर्णन किया है जब वर्ण अपने-अपने नियत कर्मों से विमुख होने लगे। निम्न वर्ग उच्च वर्ण बनने और उनके कर्मों को अपनाने लगे। अर्थात् वे कर चुकाना और सेवा-कर्म करना अस्वीकार करने लगे। इससे वर्णसंकट उत्पन्न हुआ, अर्थात् एक वर्ण दूसरे वर्ण में मिलने लगा। वर्णभेद के बन्धनों को तोड़ने का प्रयास होने लगा क्योंकि उत्पादक वर्ग तरह-तरह के करों और लगानों के बोझ से पीड़ित था और राजा उस वर्ग की रक्षा नहीं करता था। इस तरह की स्थिति को ईसा की तीसरी-चौथी सदी के पुराणों में कलियुग के नाम से वर्णित किया गया है।इस संकट से निपटने के लिए अनेक उपाय किए गए। मनु की स्मृति, जो लगभग इसी समय की है, बताती है कि शूद्रों और वैश्यों को अपने-अपने कर्मों से विचलित नहीं होने देना चाहिए। इससे दमनात्मक कार्रवाई को प्रश्रय मिला होगा। लेकिन इस स्थिति का मुकाबला करने के लिए इससे अधिक कारगर पहल कई पुरोहितों और अधिकारियों को वेतन और पारिश्रमिक की जगह भूमि का दिया जाना। इस प्रथा में यह सुविधा थी कि इससे दान-कर दिए गए क्षेत्रों में करों की वसूली करने और शान्ति-व्यवस्था बनाए रखने का भार दान पाने वालों के ऊपर चला जाता था। वे उद्दण्ड किसानों को तुरन्त वहीं सीधा कर सकते थे। इस प्रथा से खेती का नए क्षेत्रों में विस्तार करना भी सम्भव हुआ। साथ ही, विजित कबायली क्षेत्रों में बसाए गए ब्राह्मण वहाँ के मूलवासियों को आसानी से यह शिक्षा दे सकें कि वर्ण-व्यवस्था को माने, राजा की आज्ञा का पालन करें और उसे कर चुकाएँ। भू-स्वामियों का उदयभूमिदान की प्रथा ईसा की पाँचवीं सदी से तेजी पकड़ती गई। इस प्रथा के अनुसार ब्राह्मणों को सारे कर चुकाने की छूट के साथ भूमि दी जाती थी। गाँवों से राजा जितने भी करों की उगाही करता था उन सबों की उगाही का अधिकार ब्राह्मणों को मिल जाता था। इसके अलावा दान-ग्रामों में बसने वाले लोगों पर शासन करने का अधिकार दान-ग्राही पाते थे। सरकारी अधिकारियों और राजा के परिचरों को दान किए गए गाँवों में प्रवेश करने की अनुमति नहीं थी। ईसा की पाँचवीं सदी तक चोरों को सजा देने का अधिकार राजा सामान्यतः अपने ही हाथ में रखता था, परन्तु बाद में सभी प्रकार के अपराधियों को सजा देने का भी अधिकार दान-ग्राहियों को दिया जाने लगा। इस प्रकार दानग्राही ब्राह्मण किसानों और शिल्पियों से करों की वसूली करने के साथ-साथ अपने गाँव में शान्ति व्यवस्था का काम भी करने लगे। ब्राह्मणों को दिया गया दान शाश्वत् अर्थात सदा स्थायी होता था। अतः गुप्तकाल के बाद से राजा की शक्ति ही बहुत ही छोटी समझी जाने लगी। मौर्य काल में कर का निर्धारण और वसूली राजा के एजेंट करते थे और वे ही शान्ति-व्यवस्था भी देखते। परन्तु, भूमिदानों के फलस्वरूप ऐसे-ऐसे इलाके बन गए जो राजकीय नियन्त्रण के परे थे।अधिकारियों को वेतन के बदले भूमि देने की प्रथा ने राजकीय नियन्त्रण क्षेत्र को और भी हड़प लिया। मौर्यकाल में छोटे से बड़े तक सभी अधिकारियों को वेतन सामान्यतः नगद चुकाया जाता था। यह परम्परा कुषाणों के अमल में भी चालू रही, जिन्होंने भारी संख्या में ताँबे और सोने के सिक्के जारी किए। यह परम्परा किसी न किसी तरह गुप्त काल में भी चलती रही, जिन्होंने स्वर्ण-मुद्राएँ स्पष्टतः सेना और उच्च अधिकारियों को वेतन चुकाने के उद्देश्य से ढलवाई थीं। लेकिन ईसा की छठी सदी से लगता है, स्थिति बदल गई। उस सदी की स्मृतियों में कहा गया है कि भूमि वेतन के बदले दी जा सकती है। तद्नुसार हर्षवर्धन के समय से अधिकारियों को वेतन भूराजस्व के रूप में दिया जाता रहा। राज्य की आय का चौथा हिस्सा उच्च अधिकारियों के वेतन-भुगतान की मद में संचित किया जाने लगा। गवर्नरों या राज्य प्रतिनिधियों को तथा मंत्रियों, दंडाध्यक्षों और अधिकारियों को भूमि का कुछ भाग निजी भरण-पोषण के लिए दे दिया जाता था। इन सबों के फलस्वरूप राजा के प्रभुत्व क्षेत्र को हड़पते हुए भूस्वामी वर्ग उदित हुआ। नई कृषि-अर्थव्यवस्थाकृषि-अर्थव्यवस्था में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन आया। ये भूस्वामी न अपनी जमीन खुद आबाद कर सकते थे और न कर की वसूली ही खुद कर सकते थे। असल में खेती का काम उन किसानों या बँटाईदारों को सौंपा जाता था जो जमीन से जुड़े तो थे पर कानूनन उसके हकदार नहीं थे। चीनी यात्री इ-त्सिंग ने कहा है कि अधिकांश बौद्ध विहार अपने नौकर आदि से खेती कराते थे। हुआन-त्सांग ने शूद्रों को कृषक कहा है, इससे यह ज्ञात होता है कि शूद्र दासों या कृषि-मजदूरों के रूप में खेती का काम करना छोड़ चुके थे, शायद उनका अस्थायी तौर पर जमीन पर कब्जा हो गया था। ऐसा उत्तर भारत के पुरानी बस्ती वाले क्षेत्रों में हुआ होगा।जब कबायली इलाकों में गाँव दान में दिया जाता था, तब इस गाँव के कृषक दान लेने वाले व्यक्ति के हाथ सौंप दिए जाते थे। ये भूस्वामी सामान्यतः ब्राह्मण होते थे, क्योंकि पाँचवीं-छठी सदियों से ही बड़े पैमाने पर गाँव ब्राह्मणों को दान में दिए जाते रहे। छठी सदी से ही उड़ीसा, दकन आदि पिछड़े पहाड़ी क्षेत्रों में बटाईदारों और किसानों से खास तौर से कहा जाता था कि वे दी गई भूमि पर कायम रहें। वहाँ से यह परिपाटी गंगा मैदान में भी फैली। उत्तर भारत में शिल्पियों और किसानों से कहा जाता था कि वे दान किए गए गाँवों को नहीं छोड़ें। अतः वे एक गाँव को छोड़ दूसरे गाँव नहीं जा सकते थे, प्रत्युत उसी गाँव में रहकर वहाँ की यथासाध्य सभी आवश्यकताओं को पूरा किया करते थे। व्यापार और नगरों का पतनईसा की छठी सदी से व्यापार का पतन होने लगा। पश्चिमी रोमन साम्राज्य के साथ व्यापार तीसरी सदी में ही समाप्त हो गया था, तथा ईरान और बिजेंटियम के साथ रेशम का व्यापार छठी सदी के मध्य में आकर बन्द हो गया। भारत का चीन और दक्षिणी पूर्व एशिया के साथ कुछ-कुछ व्यापार चलता था, परन्तु इसका लाभ अरब लोगों के हाथ में चला जाता था, जो दलाल का काम करते थे। मुस्लिम-पूर्व काल में अरब लोगों ने वास्तव में भारत के निर्यात व्यापार को लगभग पूरा-पूरा हथिया लिया। छठी सदी के बाद लगभग 300 वर्षों से भी अधिक समय तक व्यापार पतनावस्था में रहा। इस बात का प्रबल प्रमाण है - देश में स्वर्ण मुद्राओं का लगभग पूरा-पूरा गायब हो जाना। छठी सदी के बाद सिक्कों की कमी का होना उत्तर भारत में ही नहीं, दक्षिण भारत में भी देखा जाता है।व्यापार के पतन से नगरों के बुरे दिए आए। नगरों का उत्थान पश्चिम और उत्तर भारत में सातवाहनों और कुषाणों के राज्य काल में हुआ। कुछ नगर गुप्तकाल में तो फूलते-फलते रहे, लेकिन गुप्तोत्तर काल में उत्तर भारत के बहुत-सारे पुराने वाणिज्य-नगर उजाड़ हो गए। उत्खननों से पता चलता है कि हरियाणा और पूर्वी पंजाब के कई नगर, पुराना किला (दिल्ली) मथुरा, हस्तिनापुर (जिला मेरठ), श्रावस्ती (उत्तर प्रदेश), कौशाम्बी (इलाहाबाद के निकट), राजघाट (वाराणसी), चिराँद (सारन जिला) वैशाली और पाटलिपुत्र गुप्तकाल में ही पतनोन्मुख हो गए थे और गुप्तोत्तर काल में ही अधिकांश लुप्त हो गए। चीनी यात्री हुआन त्सांग ने बुद्ध के जीवन से सम्बद्ध कई पुण्य-नगरों में भ्रमण किया तो देखा कि वे या तो उजड़ गए या टूटे-फूटे हैं। भारत के माल के लिए विदेशों में बहुत कम बाजार रह गया, इसलिए इन नगरों में रहने वाले शिल्पी और वणिक लोग देहात चले गए और वहाँ खेती करने लगे। पाँचवीं सदी के उत्तरार्ध में रेशम बुनकरों की एक टोली पश्चिम समुद्रतट को छोड़कर मालवा के मन्दसोर में आ बसी और वहाँ रेशम की बुनाई छोड़कर कोई दूसरा पेशा करने लगी। व्यापार और नगरों का पतन हो जाने पर गाँव के लोगों को तेल, नमक, मसाला, कपड़ा आदि वस्तुओं के बारे में अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति खुद ही करनी पड़ी। इससे उत्पादन की छोटी-छोटी इकाइयाँ उभरी हर इकाई अपनी आवश्यकता की पूर्ति अपने आप कर लेती। छठी सदी के आगे समाज के ढाँचे में कुछ परिवर्तन आए। उत्तर भारत के गंगा मैदान में वैश्य स्वतंत्र किसान माने जाते थे, परन्तु ग्रामदानों ने उनके और राजा के बीच भूस्वामियों को लाकर खड़ा कर दिया, जिससे वैश्यों की हैसियत वही हो गई जो शूद्रों की थी। इस प्रकार पुरानी समाज-व्यवस्था में अन्तर आ गया। सामाजिक ढॉचे का यह परिवर्तन उत्तर भारत से बंगाल और दक्षिण भारत में भी फैल गया जहाँ पाँचवीं से सातवीं सदियों तक ब्राह्मणों को उत्तर भारत से बुला-बुला कर भूमिदान दिया जाता रहा। अतः बाह्य क्षेत्रों में हम केवल दो वर्ण पाते हैं - ब्राह्मण और शूद्र। वर्ण-व्यवस्था में परिवर्तनबार-बार सत्ता हथियाते और भूमिदान पाते-पाते कई कोटियों के भूस्वामी पनप उठे। जब कोई सत्ता और भूमि हथिया लेता था, तो वह सहज ही ऊँचा स्थान पाने के लिए इच्छुक होने लगता था। वह भले ही निम्न वर्ण का हो, अपने प्रभु से भूमिदान पा लेता था। इससे कठिनाइयाँ पैदा होने लगीं, क्योंकि उसकी स्थिति आर्थिक सम्पन्नता के बावजूद सामाजिक और धार्मिक दृष्टि से निम्न होती थी। धर्मशास्त्र के अनुसार सामाजिक प्रतिष्ठा का आधार वर्ण ही होता था। समाज चार वर्णों में विभक्त था, जिसमें सबसे ऊपर ब्राह्मण और सबसे नीचे शूद्र थे। किसी व्यक्ति को आर्थिक अधिकार भी उसके वर्ण के अनुसार ही मिलता था। अतः नए उभरे इन भूस्वामियों के विभिन्न वर्गों को प्रतिष्ठोचित्त स्थान देने के लिए शास्त्रों में कुछ परिवर्तन करना आवश्यक हो गया। छठी सदी में हुए वराहमिहिर नामक एक ज्योतिषी ने निवास-गृहों का आकार चार वर्णों के लिए अलग-अलग बताया, जैसा कि पहले से चला आ रहा था। परन्तु उसने इसके साथ ही भिन्न-भिन्न कोटि के राजाओं के लिए भी निवासगृहों के अलग-अलग आकार निर्धारित किए। इस तरह पूर्व के समाज में हर वस्तु का वर्गीकरण वर्ण के अनुसार होता था, पर अब हस्तगत भूमिसम्पदा की मात्रा के अनुसार वर्गीकरण शुरू हो गया।सातवीं सदी के बाद अनगिनत जाति-उपजातियाँ पैदा हुर्इं। आठवीं सदी का एक पुराण बतलाता है कि वैश्य वर्ण की स्त्री में उससे निम्न वर्ण के पुरूष से हजारों वर्णसंकरो अर्थात् अधम मिश्र जातियों की उत्पत्ति हुई। इसका अर्थ हुआ कि शूद्र और अन्त्यज असंख्य उपजातियों में बँट गए। यही हाल हुआ ब्राह्मणों का और उन राजपूतों का भी जो सातवीं सदी के आसपास भारतीय राज्यव्यवस्था और समाज में एक महत्वपूर्ण भूमिका लिए प्रकट हुए। जातियों की संख्या बढ़ाने में उस नई अर्थव्यवस्था का भी हाथ रहा जिसमें लोग एक स्थान छोड़ दूसरे स्थान को जा नहीं सकते थे। एक ही तरह के व्यवसाय में भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में लगे लोग अपने-अपने क्षेत्र के अनुसार भिन्न-भिन्न उपजातियों में बँट गए। इसके अतिरिक्त, कबायली क्षेत्रों में जहाँ भूमिदान पाकर ब्राह्मण बस गए वहाँ के कबायली लोग हिन्दू समाज में शामिल कर लिए गए और इनमें अधिकतर लोगों को शूद्र और मिश्रित जाति का मान लिया गया। इस प्रकार प्रत्येक कबीले या कुल को हिन्दू समाज में अलग जाति के रूप में शामिल कर लिया गया। सांस्कृतिक विकासछठी-सातवीं सदियों के आसपास देश में कई सांस्कृतिक इकाइयों का उदय हुआ जो बाद में, असम, आन्ध्र, उड़ीसा, कर्नाटक, गुजरात, तमिलनाडु, बंगाल, महाराष्ट्र, राजस्थान आदि नामों से प्रसिद्ध हुईं। इस तरह के उपराष्ट्रीय समूहों के अस्तित्व को विदेशी और देशी दोनों स्रोतों ने सकारा है। चीनी यात्री हुआन त्सांग ने कई राष्ट्रीय समवायों या जनगणों का उल्लेख किया है। उत्तर आठवीं सदी के कई जैन ग्रन्थों में 18 प्रमुख जनगणों की चर्चा है। इसमें सोलह के शरीरिक लक्षण भी वर्णित है, उनकी भाषा के नमूने दिए हुए हैं और उनके चरित्रों के बारे में भी कुछ बातें कही गई हैं। नौवीं सदी का एक नाटककार विशाखादत्त कहता है कि भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न आचार-व्यवहार, वेष-भूषा और भाषा वाले लोग बसते हैं।छठी-सातवीं सदियाँ संस्कृत साहित्य के इतिहास में भी समान रूप से महत्वपूर्ण हैं। शासक वर्ग ईसा की दूसरी सदी से ही संस्कृत का प्रयोग करते आए हैं। शासक स्वयं शान-शौकत से रहते थे, अतः उनकी भाषा भी शब्दाडम्बरपूर्ण और अलंकृत होती गई। संस्कृत गद्य और पद्य की अलंकृत शैली सातवीं सदी से ही जोर पकड़ती गई। प्राचीन परम्परा के संस्कृत के पंडितों को आज भी आलंकारिक शैली बहुत पसंद है। गद्य में शब्दाडम्बर की पराकाष्ठा बाण की कृतियों में देखी जाती है। यद्यपि बाण की गद्य-शैली का अनुकरण करना खेल नहीं था, फिर भी मध्य काल के संस्कृत लेखकों ने उसी को अपना आदर्श बनाया। ईसा की सातवीं सदी से हम भारतीय भाषाओं के इतिहास में एक अद्भुत गतिविधि पाते हैं। पूर्वी भारत की बौद्ध कृतियों में बाग्ला, असमिया, मैथिली, उड़िया और हिन्दी के उद्भव का एक मन्द आभास पाया जाता है। इसी प्रकार इसी काल की जैन प्राकृत की रचनाओं में गुजराती और राजस्थानी का आरम्भ दिखाई देता है। दक्षिणी में तमिल तो सबसे पुरानी भाषा थी, लेकिन कन्नड़ का उद्भव इसी समय आरम्भ होता है, जबकि तेलुगु और मलयालम बहुत बाद में विकसित हुई हैं। लगता है कि हर एक प्रदेश का जीवन अन्य प्रदेशों से अलग-थलग हो गया इसलिए हर प्रदेश में उसकी अपनी-अपनी भाषा उदित होने लगी। गुप्त साम्राज्य के विघटित होने पर बहुत से छोटे-छोटे स्वतंत्र राज्य उदित हुए, जिससे सहज ही देशव्यापी संचार और सम्पर्क में बाधा पड़ी। व्यापार में गिरावट आने के फलस्वरूप ही एक प्रदेश का दूसरे प्रदेश से सम्पर्क टूटा और इससे क्षेत्रीय भाषाओं के उद्भव को बल मिला। प्रादेशिक लिपियों को सातवीं सदी में और उसके बाद में प्रमुखता मिली। मौर्यकाल से गुप्त काल तक लिपि में परिवर्तन होते रहे, लेकिन सारे देश में वह एक ही रही। अतः जो कोई गुप्त काल की लिपि पढ़ने में कुशल हो जाएगा वह उस काल के विभिन्न प्रदेशों में प्राप्त अभिलेखों को भी पढ़ सकेगा। लेकिन सातवीं सदी से हर प्रदेश में उसकी अपनी-अपनी लिपि विकसित हुई, इसलिए जो प्रादेशिक लिपियों का जानकार नहीं रहेगा वह गुप्तोत्तर काल में देश के भिन्न-भिन्न भागों में पाए गए अभिलेखों को पढ़ नहीं सकेगा। सातवीं-आठवीं सदियों से मूर्ति और मन्दिर के निर्माण की शैली हर प्रदेश में अलग-अलग हो गई। विशेषकर दक्षिण भारत तो मानों प्रस्तर मन्दिरों का देश बन गया। पत्थर और काँसा ये दो माध्यम थे, जिनके सहारे देवता साकार किये गये। कांस्य प्रतिमाएँ बड़े पैमाने पर बनने लगीं। यद्यपि कांस्य प्रतिमाएँ भारी संख्या में हिमालयी प्रदेशों में मिलती हैं, तथापि ये उत्तर भारत में अधिक इसीलिए पाई जाती हैं, क्योंकि ब्राह्मण धर्म के मन्दिरों में इनकी आवश्यकता हुई और पूर्वी भारत में इसलिए अधिक मिलती हैं कि बौद्ध मन्दिरों और विहारों में इनकी आवश्यकता हुई। यद्यपि एक ही देवता देश के एक छोर से दूसरे छोर तक पूजे जाते थे, फिर भी हर प्रदेश के लोगों ने उनकी मूर्ति का निर्माण अपनी-अपनी खास रीति से किया। भक्ति और तंत्र सम्प्रदायगुप्तोत्तर काल में हमें कुछ धार्मिक परिवर्तन भी दिखाई देते हैं। देव मंडल में देवताओं को स्थान उनकी श्रेष्ठता के क्रम से दिया जाने लगा। जिस तरह साम्राज्य, धर्मकर्म, भूमि-सम्पत्ति, सैनिक शक्ति आदि के आधार पर असमान वर्गों में बँटा हुआ था, उसी तरह देवगण भी असमान कोटियों में बाँट दिए गए। विष्णु, शिव और दुर्गा ये तीनों मुख्य देवता के रूप में गृहीत हुए और कई अन्य देव और देवियाँ उनके अधीन या गौण देवता माने गए, तथा परिचरों और अनुचरों के रूप में उनके नीचे रखे गए। हम ब्रह्मा, विष्णु, गणपति, शक्ति और शिव इन पाँचों देवताओं की पूजा प्रचलित पाते हैं, जो सम्मिलित रूप से पंचदेवता कहलाते हैं। मुख्य देवता शिव या किसी अन्य देव या देवी को मुख्य मन्दिर में स्थापित किया जाता था और उसके चारों ओर बने चार गौण मन्दिरों में चार अन्य देवता रखे जाते थे। ऐसे मन्दिरों को पंचायतन कहा जाता था। वैदिक देव इन्द्र, वरूण और यम का दर्जा घट गया और वे लोकपाल की कोटि में आ गए। आरंभिक मध्यकाल के देव-मंडलों के अवलोकन से प्रकट होता है कि सांसारिक सोपानक्रमिक वर्गभेद के अनुरूप ही देवों में भी वर्ग भेद बनाया गया। कई देवमंडलों में मातृदेवी को अन्य अनेक देवताओं से ऊँचा स्थान दिया गया। हमें न केवल शैवों, शाक्तों और वैष्णवों के ऐसे देव-मंडल मिलते हैं, बल्कि जैनों और बौद्धों के भी मिलते हैं, जिनमें देव अपनी हैसियत के क्रम से अंकित और स्थापित हैं।जैनों, शैवों और वैष्णवों आदि के संघटन भी पाँच पंक्तियों में बँट गए। सबसे ऊपर की पंक्ति आचार्य को मिली, जिसका अभिषेक उसी तरह होने लगा जिस तरह राजा का। सातवीं सदी से भक्ति सम्प्रदाय देश भर में फैल गया, दक्षिण में तो और भी। भक्ति का अर्थ था अपने आराध्य देव को सबकुछ समर्पित कर देना और उसके प्रतिफल में केवल आराध्य देव की कृपा प्राप्त करना। इसका आशय यह हुआ कि भक्ति मार्ग का साधक अपने को आराध्य के प्रति पूर्ण आत्मसमर्पित कर देता था। इसकी तुलना किसानों के अपने भूस्वामीयों के ऊपर पूर्णतः आश्रित रहने की स्थिति से कर सकते हैं। जिस तरह किसान समर्पण की भावना से अपने भूस्वामी की सेवा करता था और भूस्वामी की कृपा से जोतने के लिए भूमि और रक्षा पाता था, उसी तरह का सम्बन्ध भक्त और भगवान के बीच भी बन गया। चूँकि सामन्तवाद का रंग इस देश में दीर्घ काल तक जमा रहा, इसलिए भारतीय लोकाचार में भक्ति की जड़ें भी भलीभाँति जम पाई। ईसा की छठी सदी के आस-पास से भारत में धर्म के क्षेत्र में तान्त्रिक सम्प्रदाय का फैलना सबसे बड़ी घटना है। पाँचवीं-सातवीं सदियों में नेपाल, असम, बंगाल, उड़ीसा, मध्य भारत और दकन में बहुत से ब्राह्मणों को ग्रामदान मिले और लगभग इसी अवधि में तान्त्रिक ग्रन्थों, तांत्रिक पीठों और तांत्रिक साधनाओं का प्रचार हुआ। तंत्र-मार्ग में स्त्री और शूद्र दोनों के लिए द्वार खुला था और इसमें जादुई अनुष्ठान प्रमुख थे। कुछ अनुष्ठान पहले से भी चलते रहे होंगे, किन्तु ईसा की छठी सदी के आस-पास से इन्हें सुव्यवस्थित करके तांत्रिक ग्रन्थों के रूप में लिखा जाने लगा। इन अनुष्ठानों का उद्देश्य धन-सम्पत्ति आदि की प्राप्ति तथा आधि-व्याधियों से विमुक्ति की कामना पूरी करना था। निःसन्देह तंत्र-मार्ग का उदय ब्राह्मणिक समाज में आदिवासियों के बड़े पैमाने पर प्रवेश का परिणाम था। ब्राह्मणों ने आदिवासियों के बहुत-सारे अनुष्ठानों, जाद टोनों और धार्मिक प्रतीकों को अपना लिया और उन्हें प्रामाणिक रूप में संकलित करके खूब चलाया। धीरे-धीरे ब्राह्मणों और पुरोहितों ने अपने धनवान यजमानों के हितार्थ इनमें मनमाना हेर-फेर भी किया। तंत्र-मार्ग जैन, बौद्ध, शैव और वैष्णव सम्प्रदायों में भी घुस गया। सातवीं सदी से लेकर सारे मध्य काल में तांत्रिक मार्ग जमा रहा। देश के विभिन्न भागों में पाई गई अनेक पांडुलिपियाँ तांत्रिक साधना और ज्योतिष के विषय की हैं और ये दोनों आपस में मिल से गए हैं। कुल मिलाकर ईसा की छठी और सातवीं सदी के दौरान राज्यव्यवस्था, समाज, अर्थव्यवस्था, भाषा, लिपि और धर्म इन सबों में कई गंभीर परिवर्तन हुए। इस अवधि में प्राचीन भारतीय जीवन के बहुत सारे महत्वपूर्ण वैशिष्ट्यों के स्थान पर मध्यकालीन जीवन वैशिष्ट्य अपने आसन जमाते रहे। मेटे तौर पर ये एक भिन्न प्रकार के समाज और अर्थतंत्र की ओर प्रस्थान का संकेत देते हैं, जिसमें राज्य और किसानों के बीच एक भूस्वामी वर्ग प्रमुख हो चला। प्रशासन का संचालन जो पहले राज्य द्वारा नियुक्त अमले करते थे, अब ये भूस्वामी लोग करने लगे। यह घटना क्रम वैसा ही है, जैसा ईसा की छठी सदी में रोमन साम्राज्य के पतन के बाद वास्तविक सत्ता भूस्वामी के हाथ में आने पर यूरोप में हुआ था। रोमन साम्राज्य और गुप्त साम्राज्य दोनों पर हूणों के आक्रमण हुए लेकिन परिणाम भिन्न-भिन्न निकले। रोमन साम्राज्य पर हूणों और अन्य कबीलों का दबाव इतना पड़ा कि किसानों को जान बचाने के लिए अपनी स्वतंत्रता भूमिस्वामियों के चरणों में समर्पित कर देनी पड़ी। लेकिन भारत में हूणों के आक्रमण का ऐसा परिणाम नहीं हुआ। रोमन समाज के विपरीत, प्राचीन भारतीय समाज में उत्पादन कार्य में दासों को किसी बड़े पैमाने पर नहीं लगाया गया। भारत में उत्पादन करने और कर चुकाने का मुख्य भार किसानों, शिल्पियों, वाणिकों और कृषि-मजदूरों पर रहा, जो वैश्य और शूद्र की कोटि में रखे गए। हम इस व्यवस्था के विरूद्ध विद्रोह के लक्षण देखते हैं, जिसके चलते सीधे उत्पादकों से कर वसूल करना राज्य के अधिकारियों के लिए कठिन हो गया। इसलिए विभिन्न कार्यकताओं को पारिश्रमिक के तौर पर भूमि देने की परम्परा बड़े पैमाने पर चल पड़ी। आरम्भ में भूमिदान केवल ब्राह्मणों और मन्दिरों को दिया जाता था, ठीक वैसे ही जैसे यूरोप में चर्च को दिया जाने लगा। भारत और यूरोप दोनों जगह ईसा की छठी सदी के बाद से शिल्प और वाणिज्य की गतिविधि में मन्दी का रूख दिखाई देने लगा। पाँचवीं-छठी सदियों में भारत और रोमन साम्राज्य दोनों जगह समस्त रूप में नगर उजड़ने लगे। भारत और यूरोप दोनों में कृषि का विस्तार हुआ जिससे गाँवों में बस्तियाँ फैलीं। भारत में भूमिदान-प्रथा से इसे बल मिला। भारत और यूरोप दोनों जगह प्राचीन युग के बाद एक शक्तिशाली वर्ग के रूप में भूस्वामियों का खड़ा होना सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक परिदृश्य का एक प्रमुख तत्व हो गया। भूमिदान चाहे धार्मिक प्रयोजन से किया गया हो या अन्य प्रयोजन से, इन भूस्वामियों ने ईसा की सातवीं सदी से भारत और यूरोप दोनों जगह समाज, धर्म, कला, स्थापत्य और साहित्य को नई दिशा देने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। | |||||||||
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