| |||||||||
|
मुगल कालीन सांस्कृतिक एवं धार्मिक स्थिति
मुगल काल में भारत में बहुमुखी सांस्कृतिक विकास हुआ। वास्तुकला, चित्रकला, साहित्य तथा संगीत में ऐसे मानदण्ड स्थापित किए गये जिनसे बाद की पीढ़ियाँ अत्यंत प्रभावित हुईं। इस दृष्टि से उत्तर भारत में गुप्त काल के बाद मुगल काल को द्वितीय क्लासिकी युग माना जा सकता है। इस काल में भारतीय तथा मुगलों द्वारा लाई गई तुर्की और ईरानी संस्कृतियों का समन्वय हुआ। समरकन्द में तुर्की दरबार का पश्चिम तथा मध्य एशिया के सांस्कृतिक केन्द्र के रूप में विकास हुआ था। बाबर इस सांस्कृतिक विरासत के प्रति जागरूक था। वह भारत की संस्कृति के कई पहलुओं का आलोचक तथा उनके लिए उचित मानदण्ड स्थापित करने के लिए दृढ़ था। चौदहवीं और पन्द्रहवीं शताब्दी में भारत के विभिन्न क्षेत्रों में कला और संस्कृति का जो बहुमुखी विकास हुआ था उसके बिना मुगल काल की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ असंभव सी होती। मुगल काल के सांस्कृतिक विकास में भारत के विभिन्न हिस्सों, मतों तथा जातियों से विभिन्न प्रकार से योगदान दिया था। इस अर्थ में इस काल का सांस्कृतिक विकास सही अर्थों में राष्ट्रीय संस्कृति के विकास के रूप में था।
वास्तुकलामुगलों ने भव्य महलों, किलों, द्वारों, मस्जिदों, बावलियों आदि का निर्माण किया। उन्होंने बहते पानी तथा फब्बारों से सुसज्जित कई बाग लगवाये। वास्तव में महलों तथा अन्य विलास भवनों में बहते पानी का उपयोग मुगल काल की विशेषता थी। बाबर स्वयं बागों का बहुत शौकीन था और उसने आगरा तथा लाहौर के नजदीक कई बाग भी लगवाए। मुगलों के लगवाए कई बाग, जैसे कश्मीर का निशात बाग, लाहौर का शालीमार बाग तथा पंजाब तराई में पिंजोर बाग, आज भी देखे जा सकते हैं। शेरशाह ने वास्तुकला को नई दिशा दी। सासाराम (बिहार) में उसका प्रसिद्ध मकबरा तथा दिल्ली के पुराने किले में उस की मस्जिद वास्तुकला के आश्चर्यजनक नमूने हैं। ये मुगल पूर्वकाल के वास्तुकला के चर्मोत्कर्ष तथा शैली के प्रारंभिक नमूने हैं।अकबर पहला मुगल सम्राट था जिस के पास बड़े पैमाने पर निर्माण कराने के लिए समय और साधन थे। उसने कई किलों का निर्माण किया जिसमें सबसे प्रसिद्ध आगरे का किला है। 1572 में अकबर ने आगरा से 36 कि. मी. दूर फतेहपुर सीकरी में किलेनुमा महल का निर्माण आरंभ किया। यह आठ वर्षों में पूरा हुआ। पहाड़ी पर बसे उस महल में एक बड़ी कृत्रिम झील भी थी। इसके अलावा इस में गुजरात तथा बंगाल शैली में बने कई भवन थे। इनमें शहरी गुफाएँ, झरोखे तथा छतरियाँ थी। हवा खोरी के लिए बनाए गये ‘‘पंच महल’’ की सपाट छत को सहारा देने के लिए विभिन्न स्तम्भों, जो विभिन्न प्रकार के मन्दिरों के निर्माण में प्रयोग किए जाते थे, का इस्तेमाल किया गया था। राजपूती पत्नी या पत्नियों के लिए बने महल सबसे अधिक गुजरात शैली में हैं। इस तरह के भवनों का निर्माण आगरा के किले में भी हुआ था। लेकिन इनमें से कुछ ही बचे हैं। अकबर आगरा और फतेहपुर सीकरी दोनों जगहों के काम में व्यक्तिगत रुचि लेता था। दीवारों तथा छतों की शोभा बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किए गये चमकीले नीले पत्थरों में ईरानी या मध्य एशिया का प्रभाव देखा जा सकता है। फतेहपुर सीकरी का सबसे प्रभावशाली भवन वहाँ की मस्जिद तथा बुलंद दरवाजा आधे-गुम्बद की शैली में बना हुआ है। गुम्बद का आधा हिस्सा दरवाजे के बाहर वाले हिस्से के ऊपर है तथा उसके पीछे छोटे-छोटे दरवाजे हैं। यह शैली ईरान से ली गई थी और बाद में मुगल भवनों में आम रूप से प्रयोग की जाने लगी। मुगल सम्राज्य के विस्तार के साथ मुगल वास्तुकला भी अपने शिखर पर पहुँच गई। जहाँगीर के शासन काल के अंत तक ऐसे भवनों का निर्माण हो गया था जो पूरी तरह संगमरमर के बने थे और जिनकी दीवारों पर कीमती पत्थरों की नक्काशी की गई थी। यह शैली शाहजहाँ के समय और भी लोकप्रिय हो गई। शाहजहाँ ने ताजमहल जो निर्माण कला का रत्न माना जाता है, में बड़े पैमाने पर प्रयोग किया। ताजमहल में मुगलों द्वारा विकसित वास्तु कला की सभी शैलियों का सुन्दर समन्वय है। अकबर के शासन काल के आरम्भ में दिल्ली में निर्मित हुमायूँ का मकबरा, जिसमें संगमरमर का विशाल गुम्बद है, ताज का पूर्व गामी माना जा सकता है। इस भवन की एक दूसरी विशेषता दो परत के गुम्बदों का प्रयोग है। जिसके अंतर्गत बड़े गुम्बद के अन्दर एक छोटा गुम्बद भी बना हुआ है। ताज की प्रमुख विशेषता उसका विशाल गुम्बद तथा मुख्य भवन के चबूतरे के किनारों पर खड़ी चार मीनारें हैं। इसमें सजावट का काम बहुत कम है, लेकिन संगमरमर के सुन्दर झरोखों, जड़े हुए कीमती पत्थरों तथा छतरियों से इसकी सुन्दरता बहुत बढ़ गयी है। इसके अलावा इसके चारों तरफ लगाये गये सुसज्जित बाग से यह और भी प्रभावशाली दिखता है। शाहजहाँ के शासनकाल में मस्जिद निर्माण कला भी अपने शिखर पर थी। दो सबसे सुन्दर मस्जिदें हैं। आगरा के किले की मोती मस्जिद जो ताज की तरह पूरी संगमरमर से बनी है। तथा दिल्ली की जामा मस्जिद जो पूरी लाल पत्थर की है। जामा मस्जिद की विशेषता इसका विशाल द्वार ऊँची मीनारें तथा गुम्बद हैं। यद्यपि मितव्ययी औरंगजेब ने बहुत भवनों का निर्माण नहीं कराया तथापि हिन्दू, तुर्क तथा ईरानी शैलियों के समन्वय पर आधारित मुगल वास्तुकला की परम्परा 18वीं तथा उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ तक बिना रोक जारी रही। मुगल परम्परा ने प्रान्तीय तथा स्थानीय राजाओं के किलों तथा महलों की वास्तुकला को प्रभावित किया। अमृतसर में सिक्खों का हर मन्दिर जिस को स्वर्ण मन्दिर कहा जाता है और जो इस काल में कई बार बना, वह भी गुम्बद तथा मेहराब के सिद्धान्त पर निर्मित हुआ था और इसमें मुगल वास्तुकला की परम्परा की कई विशेषताएँ प्रयोग में लाई गयीं। चित्रकलाचित्रकला के क्षेत्र में मुगलों का विशिष्ट योगदान था। उन्होंने राज दरबार, शिकार तथा युद्ध के दृश्यों से संबंधित नए विषयों को आरंभ किया तथा नए रंगों और आकारों की शुरुआत की। उन्होंने चित्रकला की ऐसी जीवंत परम्परा की नींव डाली जो मुगल साम्राज्य के पतन के बाद देश के विभिन्न भागों में जीवित रही। इस शैली के समृद्धि का मुख्य कारण भारत में चित्रकला की बहुत पुरानी परम्परा थी। यद्यपि बारहवीं शताब्दी के पहले के ताड़पत्र उपलब्ध नहीं हैं, जिनसे चित्रकला की शैली का पता चल सके, अजंता के चित्र इस समृद्ध परम्परा के सार्थक प्रमाण हैं। लगता है कि आठवीं शताब्दी के बाद चित्रकला की परम्परा का हृास हुआ, पर तेरहवीं शताब्दी के बाद की ताड़पत्र की पांडुलिपियों तथा चित्रित जैन पांडुलिपियों से सिद्ध हो जाता है कि यह परम्परा अभी जीवित थी।पन्द्रहवीं शताब्दी में जैनियों के अलावा मालवा तथा गुजरात जैसे क्षेत्रीय राज्यों में भी चित्रकारों को संरक्षण प्रदान किया जाता था। लेकिन सही अर्थों में इस परम्परा का पुनरुत्थान अकबर के काल में ही हुआ। जब हुमायूँ ईरान के शाह के दरबार में था, उसने दो कुशल चित्रकारों को संरक्षण दिया और बाद में यह दोनों उसके साथ भारत आए। इन्हीं के नेतृत्व में अकबर के काल में चित्र कला को एक राजसी कारखाने के रूप में संगठित किया गया। देश के विभिन्न क्षेत्रों से बड़ी संख्या में चित्रकारों को आमन्त्रित किया गया। इनमे से कई निम्न जाति के थे। आरम्भ से ही हिन्दू तथा मुसलमान साथ-साथ कार्य करते थे। इसी प्रकार अकबर के दो प्रमुख चित्रकार जसवंत तथा दसावन थे। चित्रकला के इस केन्द्र का विकास बड़ी शीघ्रता से हुआ और इस ने बड़ी प्रसिद्धि हासिल कर ली। फारसी कहानियों को चित्रित करने के बाद उन्हें महाभारत, अकबरनामा तथा अन्य महत्वपूर्ण ग्रन्थों की चित्रकारी का काम सांपा गया। इस प्रकार भारतीय विषयों तथा भारतीय दृश्यों पर चित्रकारी करने का रिवाज़ लोकप्रिय होने लगा और इससे चित्र कला पर ईरानी प्रभाव को कम करने में सहायता मिली। भारत के रंगों जैसे फ़िरोजी रंग तथा भारतीय लाल रंग का इस्तेमाल होने लगा। सबसे मुख्य बात यह हुई कि ईरानी शैली के सपाट प्रभाव का स्थान भारतीय शैली के वृत्ताकार प्रभाव ने लिया और इससे चित्रों में त्रिविनितयि प्रभाव आ गया। मुगल चित्र कला जहाँगीर के काल में अपने शिखर पर पहुँच गई। जहाँगीर इस कला का बड़ा कुशल पारखी था। मुगल शैली में मनुष्यों का चित्र बनाते समय एक ही चित्र में विभिन्न चित्रकारों द्वारा मुख, शरीर तथा पैरों को चित्रित करने का रिवाज था। जहाँगीर का दावा था कि वह किसी चित्र में विभिन्न चित्रकारों के अलग-अलग योगदान को पहचान सकता था। शिकार, युद्ध तथा राज दरबार के दृश्यों को चित्रित करने के अलावा जहाँगीर के काल में मनुष्यों तथा जानवरों के चित्रों को बनाने की कला में विशेष प्रगति हुई। इस क्षेत्र में मंसूर का बहुत नाम था। मनुष्यों के चित्र बनाने का भी काफी प्रचलन था। अकबर के काल में पुर्तगाली पादरियों द्वारा राज दरबार में यूरोपीय चित्रकला भी आरंभ हुई। इससे प्रभावित हो कर वह विशेष शैली अपनाई गई जिससे चित्रों में करीब तथा दूरी का स्पष्ट बोध होता था। यह परम्परा शाहजहाँ के काल में दिलचस्पी न होने के कारण कलाकार देश में दूर-दूर तक बिखर गये। इस प्रक्रिया से राजस्थान तथा पंजाब की पहाड़ियों में इस काल के विकास में सहायता मिली। राजस्थान शैली में जैन अथवा पश्चिम भारत की शैली के प्रमुख विषयों और मुगल शैली के आकार का समन्वय था। इस प्रकार इस शैली में शिकार तथा राजदरबार के दृश्यों के अलावा राधा और कृष्ण की लीला जैसे धार्मिक विषयों को भी लेकर चित्र बनाये गए। इनके अलावा बारह मासा अर्थात् वर्ष के विभिन्न मौसम तथा विभिन्न रागों पर आधारित चित्र भी बनाए गए। पहाड़ी शैली ने इस परम्परा को जारी रखा। भाषा और साहित्यअखिल भारतीय स्तर पर सरकारी काम काज अन्य बातों के लिए फारसी तथा संस्कृत भाषाओं की महत्वपूर्ण भूमिका तथा भक्ति आंदोलन के प्रभाव से प्रान्तीय भाषाओं के विकास की चर्चा हम पहले ही कर चुके हैं। प्रान्तीय भाषाओं के विकास का कारण स्थानीय तथा प्रान्तीय राजाओं द्वारा दिया गया संरक्षण तथा प्रोत्साहन था।16वीं शताब्दी तथा 17वीं शताब्दी में यह धाराएँ जारी रहीं। अकबर के काल तक उत्तरी भारत में फारसी भाषा का इतना प्रचलन हो गया था कि फारसी के अलावा स्थानीय भाषा (हिंदवी) में कागजात को रखना ही बंद कर दिया गया, इसके बावजूद 17वीं शताब्दी में दकन के राज्यों के पतन तक उनमें स्थानीय भाषाओं में दस्तावेजों को रखने की परम्परा जारी रही। फारसी गद्य तथा पद्य अकबर के शासन काल में अपने शिखर पर थे। उस काल के महान लेखक और विद्वान तथा प्रमुख इतिहासकार अबुल फजल ने गद्य की ऐसी शैली प्रचलित की जिसका कई पीढ़ियों ने अनुसरण किया। उस काल का प्रमुख कवि फैजी, अबुल फजल का भाई था और उसने अकबर के अनुवाद विभाग में बड़ी सहायता की। उसके निरीक्षण में ‘महाभारत’ का भी अनुवाद किया गया। उस समय के फारसी के दो अन्य प्रमुख कवि उत्बी तथा नजीरी थे। इनका जन्म ईरान में हुआ था पर यह उन विद्वान और कवियों में थे, जो बड़ी संख्या में उस काल में ईरान से भारत आये थे और उन्होंने मुगल दरबार को इस्लामी जगत का एक प्रमुख सांस्कृतिक केन्द्र बना दिया था। फारसी साहित्य के विकास में हिन्दुओं ने भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। इस काल में साहित्यक तथा ऐतिहासिक कृतियों के अलावा फारसी भाषा के कई विश्व कोष भी तैयार किए गए। इस काल में यद्यपि संस्कृत की कोई मूल अथवा महत्वपूर्ण रचना नहीं की गई, इस भाषा में रचित कृतियों की संख्या काफी बड़ी थी। पहले की तरह, दक्षिण तथा पूर्वी भारत में अधिकतर कृतियाँ स्थानीय राजाओं के संरक्षण में रची गई पर कुछ कृतियों उन ब्राह्मणों की थीं जो सम्राटों के अनुवाद विभाग में नियुक्त थे। इस काल में क्षेत्रीय भाषाओं में परिपक्वता आई तथा उत्कृष्ट संगीतमय काव्य की रचना हुई। पाली, उड़िया, हिन्दी, राजस्थानी तथा गुजराती भाषाओं के काव्य में इस काल में राधा-कृष्ण तथा कृष्ण और गोपियों की लीला तथा भागवत की कहानियों का काफी प्रयोग किया गया। राम पर आधारित कई भक्ति गीतों की रचना की गई तथा रामायण, महाभारत, का क्षेत्रीय भाषाओं, जिनमें विशेष कर पहले अनुवाद नहीं हुआ था, में किया गया। इस कार्य में हिन्दू तथा मुसलमान दोनों ने योगदान दिया। अलाउल ने बंगला में काफी रचनाएँ कीं और साथ में मुसलमान सूफी संत द्वारा रचित हिन्दी काव्य ‘‘पद्मावत’’ का भी अनुवाद किया गया। इस काव्य में मलिक मुहम्मद जायसी ने अलाउद्दीन खलजी के चित्तौड़ अभियान को आधार बनाकर आत्मा तथा परमात्मा के संबंध में सूफी विचारों और माया के बारे में हिन्दू शास्त्रों के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया। मध्ययुग में मुगल सम्राटों तथा हिन्दू राजाओं ने आगरा तथा उसके आस-पास के क्षेत्रों में बोली जाने वाली ब्रज भाषा को भी प्रोत्साहन प्रदान किया। अकबर के काल से मुगल राज दरबार में हिन्दू कवि भी रहने लगे। एक प्रमुख मुगल मनसबदार अब्दुर रहीम खान-ए-खाना ने अपने भक्ति काव्य में मानवीय संबंधों के बारे में फ़ारसी विचारों का भी समन्वय किया। इस प्रकार फारसी तथा हिन्दी की साहित्यक परम्पराएँ एक दूसरे से प्रभावित हुईं। इस काल के सबसे प्रमुख हिन्दी कवि तुलसीदास थे जिन्होंने उत्तर प्रदेश के पूर्वी क्षेत्रों में बोली जाने वाली अवधी भाषा में एक महाकाव्य की रचना की जिसके नायक राम थे। उन्होंने एक ऐसी जाति व्यवस्था का अनुमोदन किया जिसमें जाति, जन्म के आधार पर नहीं, वरन् मानव के व्यक्तिगत गुणों पर आधारित थी। तुलसीदास वास्तव में मानवता वादी कवि थे, जिन्होंने पारिवारिक मूल्यों पर महत्व दिया और यह बताया कि मुक्ति का मार्ग हर व्यक्ति के लिए संभव है और यह मार्ग राम के प्रति पूर्ण भक्ति है। दक्षिण भारत में मलयालम में भी साहित्यिक परम्परा आरंभ हुई। एकनाथ और तुकाराम ने मराठी भाषा को शिखर पर पहुँचा दिया। मराठी की महत्ता बताते हुए एकनाथ कहते है - ‘‘यदि संस्कृत ईश्वर की देन है तो क्या प्राकृत चोर तथा उचक्कों की देन हैं ? यह बातें मात्र घमंड तथा भ्रम पर आधारित हैं। ईश्वर किसी भी भाषा का पक्षपाती नहीं। उसके लिए संस्कृत तथा प्राकृत एक समान हैं। मेरी भाषा मराठी माध्यम से उच्च विचार व्यक्त किए जा सकते हैं और यह अध्यात्मिक ज्ञान से परिपूर्ण है।’’ उस उक्ति में क्षेत्रीय भाषाओं के रचनाकारों का गर्व स्पष्ट है तथा उसमें इन भाषाओं में लिखने वालों का आत्मविश्वास तथा उनका गर्व भी परिलक्षित होता है। सिक्ख गुरुओं की रचनाओं ने पंजाबी भाषा में नये प्राण फूँक दिए। संगीतएक अन्य सांस्कृतिक क्षेत्र जिसमें हिन्दुओं और मुसलमानों ने मिलकर काम किया वह संगीत का था। अकबर ने ग्वालियर के तानसेन को संरक्षण दिया जिनके बारे में वह कहता है कि उन्होंने कई रागों की रचना की। जहाँगीर तथा शाहजहाँ और उनके कई मुगल मनसबदारों ने इस परम्परा को जारी रखा। कट्टर औरंगजेब ने संगीत को गाड़ने के लिए जो कुछ कहा था उसके बारे में कई कहानियाँ हैं। आधुनिक अनुसंधान से पता चलता है कि औरंगजेब ने गायकों को अपने राज दरबार से बहिष्कृत कर दिया था लेकिन वाद्य संगीत पर कोई रोक नहीं लगाई थी। यहाँ तक कि औरंगजेब स्वयं एक कुशल वीणा वादक था। औरंगजेब की हरम की रानियाँ तथा उसके कई मनसबदारों ने भी सभी प्रकार के संगीत को बढ़ावा दिया। इसलिए औरंगजेब के शासन काल में भारतीय शास्त्रीय संगीत पर बड़ी संख्या में पुस्तकों की रचना हुई। संगीत के क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण विकास अठारहवीं शताब्दी में मोहम्मद शाह (1720-48) के शासन काल में हुआ।धार्मिक विचार तथा विश्वास और एकता की समस्याएँसोलहवीं तथा सत्रहवीं शताब्दी में व्यक्ति आन्दोलन का जोर रहा। उसके अलावा पंजाब में सिक्ख तथा महाराष्ट्र में महाराष्ट्र धर्म आन्दोलन भी आरंभ हुए। सिक्ख धर्म की नींव नानक की वाणी से पड़ी। लेकिन इसके विकास में गुरुओं का बहुत महत्व रहा। प्रथम चार गुरुओं ने ध्यान तथा विद्वत्ता की परंपरा जारी रखी। पाँचवें गुरू, गुरू अजफ्रन देव ने गुरूओं के धर्म ग्रन्थ आदि ग्रन्थ अथवा ग्रन्थ साहब का संकलन किया। इस बात पर जोर देने के लिए कि गुरु आध्यात्मिक तथा सांसारिक दोनों क्षेत्रों में प्रमुख हों, उन्होंने शान-ओ-शौकत से रहना आरंभ किया। उन्होंने अमृतसर में बड़े-बड़े भवनों का निर्माण किया, कीमती वस्त्र पहनने शुरू किए तथा मध्य एशिया से अपने लिए घोड़े मँगवाये। उनके साथ-साथ घुड़सवार चलते थे। उन्होंने सिक्खों से उनकी आय का दस प्रतिशत दान के रूप में लेने की प्रथा भी आरंभ की।अकबर सिक्ख गुरुओं से बहुत प्रभावित था और कहा जाता है कि वह अमृतसर भी गया था। लेकिन जहाँगीर द्वारा गुरु अर्जुन को बंदी बनाये जाने और उनकी मृत्यु के बाद सिक्ख और मुगलों में संघर्ष आरंभ हो गया। जहाँगीर ने गुरु अजफ्रन पर विद्रोही राजकुमार खुसरो को पैसों तथा प्रार्थनाओं से सहायता करने का आरोप लगाया। उसने गुरु अर्जुन के उत्तराधिकारी गुरु हर गोविन्द को थोड़े समय तक बंदी बना कर रखा लेकिन उन्हें जल्दी ही मुक्त कर दिया और बाद में जहाँगीर के साथ उसके संबंध सुधर गये। वे जहाँगीर के साथ उसकी मृत्यु के तुरन्त पहले कश्मीर भी गये। लेकिन शिकार के मामले को लेकर शाहजहाँ से उन का मतभेद हो गया। इस समय तक गुरु के अनुयायियों की संख्या काफी बढ़ गई और वांइदा खाँ के नेतृत्व में कुछ पठान भी इसमें शामिल हो गये थे। गुरु की मुगलों के साथ कई मुठभेड़ें भी हुई और अंत में गुरु पंजाब की तराई में जाकर बस गये जहाँ वे शांति से रहे। इस प्रकार हम देखते हैं कि मुगल शासकों तथा सिक्खों के बीच संघर्ष का वातावरण नहीं था, न ही हिन्दुओं को उनके धर्म के लिए पीड़ित किया जा रहा था। अतः ऐसा कोई कारण नहीं था जिसमें सिक्ख या अन्य कोई दल हिन्दुओं का नेता बन कर मुसलमान अत्याचार के विरोध में झंडा उठाता था। सिक्ख गुरु और मुगल शासकों की झड़पें धार्मिक नहीं बल्कि व्यक्तिगत तथा राजनीतिक कारणों से हुईं। शाहजहाँ ने यद्यपि अपने शासन काल के आरम्भ में कट्टरता का रुख अपनाया तथा नये मन्दिरों को तुड़वाया पर इसके बावजूद वह अपने दृष्टिकोण में संकीर्ण नहीं था। बाद में उसके पुत्र दारा का भी उस पर प्रभाव पड़ा। दारा शाहजहाँ का सबसे बड़ा पुत्र था और वह स्वभाव में भी विद्वान तथा सूफी था। जिसकी धार्मिक नेताओं से शास्त्रार्थ करने में बड़ी दिलचस्पी थी। काशी में ब्राह्मणों की सहायता से उसने गीता का फारसी में अनुवाद किया लेकिन उसका सबसे महत्वपूर्ण कार्य वेदों का संकलन था जिसकी भूमिका में उसने वेदों को काल की दृष्टि से ईश्वर्य कृति माना और उन्हें कुरान के समान बताया। इस प्रकार से उसने इस बात पर जोर दिया कि इस्लाम तथा हिन्दू धर्म में मूलभूत अंतर नहीं है। गुजरात के एक अन्य कवि दादू ने जातीय भेदभाव से मुक्त निपख नामक एक धार्मिक आन्दोलन आरंभ किया। उन्होंने अपने को हिन्दू तथा मुसलमान बताने से इंकार किया और दोनों को धार्मिक ग्रन्थों से ऊपर उठने के लिए कहा। उन्होंने इस बात की घोषणा की कि बह्म अथवा सर्वोच्च सत्य को विभाजित नहीं किया जा सकता। इसी तरह की सहिष्णुता से पूर्ण धार्मिक धारा महाराष्ट्र में पंढरपुर के अन्य भक्त तुकाराम की कृतियों में देखी जा सकती है। पंढरपुर महाराष्ट्र धर्म का केन्द्र बन गया था और वहाँ विष्णु के प्रतिरूप विनोबा की पूजा अत्यन्त लोकप्रिय हो गई थी। तुकाराम जो स्वयं को एक शूद्र बताते थे, भगवान की प्रतिमा की पूजा अपने हाथों से किया करते थे। यह आशा नहीं की जा सकती थी कि इस तरह के विश्वास तथा कार्यों को हिन्दू और मुसलमानों के कट्टर तत्व आसानी से स्वीकार कर लेंगे और अपनी शक्ति और प्रभाव का त्याग कर देंगे जिनका वह इतने दिनों से लाभ उठाते चले आ रहे थे। कट्टर हिन्दुओं की भावनाओं को बंगाल के नवद्वीप (नदिया) के रघुनन्दन ने वाणी दी। रघुनन्दन मध्य युग के धर्मशास्त्रों के सबसे बड़े कवि माने जाते हैं। उन्होंने ब्राह्मणों के विशेषाधिकार पर जोर दिया और उन सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया कि धर्मशास्त्रों को पढ़ना और उनका प्रसार करना केवल ब्राह्मणों का ही अधिकार है। उनके अनुसार कलियुग में केवल दो वर्ण ब्राह्मण और शूद्र रह गये थे क्योंकि सच्चे क्षत्रियों का बहुत पहले लोप हो गया था और वैश्य और अन्यों ने अपने कर्तव्यों का निर्वाह न कर अपनी जाति खो दी थी। महाराष्ट्र के रामानन्द ने भी ब्राह्मणों के विशेषाधिकारों का समर्थन किया। मुसलमानों में यद्यपि तौहीद की धारा जारी रही तथा कई प्रमुख सूफी संतों ने इसका समर्थन किया तथा कट्टर उलमा के एक छोटे दल ने अकबर की सहिष्णुता की कड़ी आलोचना की। उस समय के सबसे प्रसिद्ध कट्टर मुसलमान शेख अहमद सरहिंदी माने जाते हैं। ये सूफियों के कट्टर नक्श बन्दी दल, जो अकबर के शासन काल में भारत में आरंभ हुआ था उसके समर्थक थे। शेख अहमद सरहिन्दी ने तौहीद तथा ईश्वर के एकात्मक को गैर-इस्लामी बताते हुए इसका विरोध किया। उन्होंने ऐसे रीति रिवाजों और विश्वासों पर भी विरोध किया जो हिन्दुत्व से प्रभावित थे। इनमें ध्यान लगाना, संतों के मजारां की पूजा करना तथा धार्मिक सभा में संगीत (सभा) शामिल था। राज्य के इस्लामी स्वरूप पर जोर देते हुए उन्होंने जजिया को फिर से लगाने पर जोर दिया और इस बात की सिफारिश की कि हिन्दुओं के प्रति कड़ा रुख अपनाया जाये। अपनी योजना के कार्यान्वयन के लिए उन्होंने कई केन्द्रों को शुरु किया तथा अपने पक्ष में लाने के लिए सम्राट तथा कई मनसबदारों को चिट्ठियाँ लिखीं। इन सब के बावजूद शेख अहमद सरहिंदी का कोई असर नहीं पड़ा। जहाँगीर ने उन्हें अपने को मुहम्मद साहब से भी बड़ा बताने के लिए बंदी बना लिया और अपनी बात वापस लेने पर ही रिहा किया। औरंगजेब ने भी इनके पुत्र तथा उत्तराधिकारी की ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। इसके साथ हम देखते हैं कि कट्टर विचारकों तथा प्रचारकों का प्रभाव बड़ा सीमित था और इनसे बहुत कम लोग प्रभावित थे। ऐसे लोगों की आशा यही रहती थी कि उन्हें धनी एवं समाज और राज्य के प्रतिष्ठित लोगों का समर्थन प्राप्त हो। दूसरी ओर सहिष्णुता के समर्थक विचारकों से आम जनता प्रभावित थी। भारतीय इतिहास में कट्टरता तथा सहिष्णुता के प्रभाव को भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। यह एक ओर विशेषाधिकारी शक्तिशाली लोगों तथा दूसरी ओर मानवतावादी विचारों से प्रभावित आम जनता के बीच में संघर्ष का एक रूप था। कट्टरता तथा संकीर्ण तत्वों के प्रभाव तथा उन के द्वारा प्रतिपादित संकीर्ण विचारों से दो प्रमुख धर्म हिन्दू तथा इस्लाम के समन्वय तथा देश की एकता में बाधा पहुँची। औरंगजेब के शासन काल में यह संघर्ष उभर कर सामने आया। | |||||||||
| |||||||||