| |||||||||
|
संचार एवं जनसंचार माध्यम
संचार व्यवस्था को इन शब्दों में परिभाषित किया गया है, ‘विचारों सूचनाओं और अभिवृत्तियों को एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक पहुँचाने को’ संचार व्यवस्था कहा जाता हैं। प्रौद्योगिकी से जुड़े कुछ आविष्कारों की चर्चा अध्याय 7 में की गई है जिनके कारण संचार व्यवस्था में क्रांति हुई जैसे टेलीग्राफ, टेलीफोन, बेतार का तार, ग्रामोफोन, टेलीविजन, ट्रांजिस्टर, संगणक और उपग्रहों का प्रयोग आदि। ये सभी परिवर्तन उस दौर में हुए हैं। जिसमें संपूर्ण विश्व में व्यापक राजनीतिक और आर्थिक परिवर्तन हुए हैं। माल का बड़े पैमाने पर उत्पादन तथा अपने देश के राजनीतिक जीवन में आम जनता की भागीदारी (या जिसको कभी-कभी सामूहिक लोकतंत्र भी कहा जाता है) के साथ जनसंचार माध्यमों का भी विकास हुआ है। जनसंचार के इन माध्यमों अथवा सामूहिक संचार व्यवस्था के इन साधनों में समाचार पत्र, सिनेमा, रेडियो और टेलीविजन भी शामिल हैं। इनमें समाचार पत्र ही काफी पुराना संचार माध्यम है। कुछ देशों में मुद्रण कला के आविष्कार के तत्काल बाद ही समाचार पत्र की भी शुरूआत हुई। समाचार पत्र को छोड़कर दूसरे सभी माध्यम नए हैं और आधुनिक प्रौद्योगिकी की उपज हैं। बीसवीं सदी में प्रौद्योगिकी में विकास के कारण समाचार पत्रों का भी विकास हुआ है। यह विकास सूचना-संकलन, प्रेषण और मुद्रण, तीनों ही क्षेत्रों में हुआ है।
दुनिया के हर हिस्से में आम जनता के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन पर नई संचार-व्यवस्था और जन संचार माध्यमों का गहरा असर पड़ा है। इनके कारण नए उद्योग, नए पेशे, नए कला रूप और लोगों को प्रभावित करने या यहाँ तक कि नियंत्रित करने के लिए नए तरीके सामने आए हैं। इनसे विशाल पैमाने पर जो श्रोता या दर्शक तैयार हुआ है (इनको को सूचना का ग्राहक भी कहा जाता है) मानव इतिहास में वह एकदम नई घटना है। जन संचार माध्यमों ने सामूहिक मनोरंजन के नए रूप भी निर्मित किए हैं। काम के घण्टे पहले की तुलना में कम हो गए हैं। इससे अधिक लोगों के पास अब अवकाश का समय हो गया है तथा मनोरंजन का स्वरूप भी सामूहिक हो गया है। इन परिवर्तनों के कारण विचारों, सूचनाओं और अभिवृत्तियों (एटीच्यूड्स) की दृष्टि से दुनिया के लोग उसी तरह एक दूसरे के नजदीक आए जिस तरह परिवहन में विकास से लोगों के एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने तथा माल असबाब को एक जगह से दूसरी जगह ढोकर ले जाने के कारण दुनिया के लोग एक दूसरे के नजदीक आए थे। जन संचार माध्यमां ने कुछ समस्याएँ भी पैदा की हैं, जिनका समाधान अभी खोजना है। समाचार पत्रजैसा पहले बताया जा चुका है कि समाचार पत्र सबसे पुराना जन संचार माध्यम है। साक्षरता के प्रसार के साथ हर देश में समाचार पत्रों की माँग बढ़ी और समाचार पत्रों की संख्या और उनकी मुद्रित प्रतियों की संख्या में सारी दुनिया में जबर्दस्त बढ़ोत्तरी हुई। समाचार पत्र पढ़ना एक शिक्षित व्यक्ति की प्रातःकालीन दिनचर्या का जरूरी हिस्सा बन गया। हाल की एक रिपोर्ट के मुताबिक आज 8000 के करीब समाचार पत्र हैं जिनकी 500 करोड़ प्रतियाँ छपती और बिकती हैं। जिन देशों में काफी बड़ी जनसंख्या निरक्षरों की है, वहाँ समाचार पत्रों की वितरण संख्या काफी कम है। लेकिन इन देशों में भी यह बात आम है कि जो लोग पढ़ना नहीं जानते हैं, वे दूसरों से पढ़वाकर अखबार सुनते हैं। भारत में राष्ट्रीय चेतना के प्रसार में समाचार पत्रों की भूमिका काफी महत्वपूर्ण रही है। भारत में 16000 दैनिक समाचार पत्र प्रकाशित होते हैं, इनमें कुछ सौ साल से भी अधिक पुराने समाचार पत्र हैं।समाचारों का राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र बहुत व्यापक हो गया है। इसलिए जिन खबर एजेंसियों के पास तकनीकी और मानव संसाधन बहुत ज्यादा हैं, वे एजेंसियाँ खबर एकत्र कर उसे अपने ग्राहक अखबारों को उपलब्ध कराती हैं। पाँच प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय खबर एजेंसियाँ हैं - युनाइटेड प्रेस इंटरनेशनल (यू. पी. आई.), एसोशिएटेड प्रेस (ए. पी.), रेटर्स, फ्रांस प्रेस और तास। इनमें पाँचवीं सोवियत सूचना एजेंसी है। इसके अतिरिक्त पाँच पश्चिमी प्रेस एजेंसियाँ हैं। वास्तविकता यह है कि ये ही चार एजेंसियाँ संसार के अधिकांश समाचार का संकलन और प्रसार करती हैं। एक अनुमान के मुताबिक गैर-समाजवादी देशों में प्रसारित सूचना का लगभग अस्सी प्रतिशत इन चार एजेंसियों से ही मिलता है। पिछले तीन दशकों में सूचना-संकलन और सूचना-प्रसार का केंद्रीयकरण लोगों की चिंता का प्रमुख कारण रहा है। जिन लोगों ने अखबार निकालना शुरू किया उन्होंने चाहा था कि जनमत बनाने और जनता की बौद्धिक उत्सुकता को संतुष्ट करने के लिए अखबारों का उपयोग किया जाए। लेकिन धीरे-धीरे समाचार पत्रों ने उद्योग का रूप धारण कर लिया और समाचार पत्रों के मालिकों अथवा इन पर अधिकार रखने वाली कंपनियों की दिलचस्पी मूलतः इनसे लाभ कमाने में हो गई। वास्तव में कुछ समाचार पत्र तो उद्योगपतियों द्वारा आरम्भ किए गए। पाठकों की संख्या में वृद्धि के साथ समाचार पत्र विज्ञापन के प्रमुख माध्यम बन गए। इतना ही नहीं, अधिकांश अखबारों में तो कुल स्थान का 30 से 40 प्रतिशत हिस्सा विज्ञापन घेर लेता है। अब समाचार पत्रों का मुनाफा पत्रों की बिक्री से नहीं, उनमें प्रकाशित होने वाले विज्ञापनों से होता है। ऐसी स्थिति में समाचार पत्रों की नीतियों पर धीरे-धीरे विज्ञापनदाताओं का प्रभाव बढ़ता चला गया। इस पूरी सदी में स्वामित्व के केंद्रयीकरण और समाचार पत्रों पर नियंत्रण की प्रवृत्ति दिखाई देती है। थोड़ी सी कंपनियाँ कई समाचार पत्रों की मालिक हैं और उन पर इन कंपनियों का नियंत्रण है। विज्ञापनों की कमी के कारण पाठकों की बड़ी संख्या के बावजूद कई समाचार पत्रों का प्रकाशन बंद हो गया। जबकि समाचार पत्र अभी भी सूचना का प्रमुख माध्यम है और इस माध्यम की स्वतंत्रता सभी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं का मुख्य लक्ष्य है तब ऐसा माना जा रहा है कि ये परिवर्तन इस माध्यम के लक्ष्य को विरूपित कर रहे हैं और इनसे समाचार पत्रों की स्वतंत्रता को खतरा भी है। लोग यह भी मानते हैं कि प्रेस की स्वतंत्रता को राज्य से उतना खतरा नहीं है जितना इन परिवर्तनों से है। सचमुच राज्य प्रेस के साथ जोड़तोड़ करता रहता है, खास तौर पर वह तब ऐसा करता है जब उसे भीतरी या बाहरी संकट से निपटना पड़ता होता है या खतरे का सामना करना होता है। हाल के वर्षों में इसके अनेक उदाहरण प्रकाश में आए हैं, जब स्वतंत्रता की बार-बार दुहाई देने वाले समाचार पत्रों ने राज्य की खुफिया एजेंसियों द्वारा तैयार की गई मनगढ़ंत घटनाओं को प्रकाशित किया है। जिन देशों में कम्युनिस्ट पार्टियाँ सत्ता में हैं, वहाँ आमतौर पर समाचार पत्रों पर सरकार अथवा पार्टी का पूरा नियंत्रण होता है। अभी कुछ दिनों से सोवियत संघ में यह नियंत्रण खत्म होने लगा है। रेडियो और टेलीविजन1920 के दशक में नियमित रूप से प्रसारण शुरू हुआ। इससे संचार व्यवस्था में क्रांतिकारी बदलाव आया। 1930 के दशक में बहुत छोटे पैमाने पर टेलीविजन सेवाएँ शुरू की गईं लेकिन दुसरे विश्व युद्ध के बाद ही जाकर टेलीविजन प्रभावशाली संचार माध्यम बना और कहा जाए तो एक अर्थ में यह सबसे शक्तिशाली माध्यम बना। ट्रांजिस्टर के आविष्कार के बाद तो रेडियो घर की चार दिवारी तक ही सीमित नहीं रहा। अब तो इसे जेब में डाल कर ले जाया जा सकता था और घर में बिजली के तार के साथ इसे जोड़ने की जरूरत अब नहीं रही और जल्दी ही वह दिन भी आया जब रेडियो की संख्या ने समाचार पत्रों की संख्या को पीछे छोड़ दिया। इसके बाद संचार प्रौद्योगिकी में और क्रांतिकारी परिवर्तन हुए। अब तो विश्व स्तर अथवा ब्रह्माण्ड स्तर की किसी भी घटना या मानवीय प्रयास को संपूर्ण विश्व के लोग एक ही साथ देख सकते हैं। खेल और सांस्कृतिक कार्यक्रम, सम्मेलनों और बैठकों की कार्रवाई, नागरिक उथल पुथल, विद्रोहों के दृश्य, पुलिस और सैनिक कार्रवाई, यहाँ तक कि राजनेताओं की हत्या के दृश्य भी करोड़ों-अरबों लोगों के लिए अब घर के कमरे में बैठे-बैठे देखना संभव हो गया है। 1980 के दशक के मध्य में एक अनुमान लगाया गया जिसके अनुसार एक अरब से ज्यादा रेडियो और पचास करोड़ टेलीविजन सेट विश्व में मौजूद थे। समाचार पत्रों की तुलना में इन दो माध्यमों पर सरकारी नियंत्रण कुछ अधिक है यद्यपि बहुत से देशों में रेडियो और टेलीविजन के प्रसारण का स्वामित्व भी निजी क्षेत्र में है। अधिकांश मामलों में इन माध्यमों पर विज्ञापनदाताओं का कब्जा है, जो इनकी आमदनी के प्रमुख स्रोत हैं। इसका अपवाद प्रसारण के वे केंद्र हैं जिनको राज्यकोश से जनसेवा के रूप में चलाया जाता है। भारत में रेडियो का प्रसारण पहली बार 1927 में शुरू किया गया था। उस समय प्रसारण का काम दो ट्रांसमीटरों से शुरू किया गया और ये दोनों ही ट्रांसमीटर निजी स्वामित्व में थे। 1930 में सरकार ने इनको अपने हाथ में ले लिया और 1936 से रेडियो प्रसारण का कार्य ‘आल इंडिया रेडियो’ द्वारा किया जाने लगा। सन् 1957 में इसका नाम बदलकर आकाशवाणी कर दिया गया। प्रयोग के स्तर पर 1959 में टेलीविजन सेवा शुरू की गई लेकिन 1970 के दशक में आने के बाद ही इसने प्रमुख संचार माध्यम का रूप लिया। भारतीय टेलीविजन सेवा ‘दूरदर्शन’ के नाम से जानी जाती है। सन् 1982 में राष्ट्रीय नेटवर्क के जरिए इसने प्रसारण का काम शुरू किया जिसमें पुनः प्रसारण केंद्रों से इनको प्रसारित किया जाता था। अपने टेलीविजन कार्यक्रमों के लिए अधिकांश विकासशील देश पश्चिमी देशों पर निर्भर हैं क्योंकि अपना कार्यक्रम तैयार करने के लिए उनके पास संसाधन नहीं हैं और न ही उनके पास प्रौद्योगिकी का आधारिक ढाँचा है।इन दो संचार माध्यमों के बढ़ते हुए प्रभुत्व से और खास तौर से टेलीविजन के प्रभुत्व से, जनकला और मनोरंजन के नए रूप सामने आए हैं। इसमे संगीत, रेडियो नाटक, टेलीविजन सीरियल और खेल कार्यक्रम शामिल हैं। चूँकि अधिकांश कार्यक्रम विज्ञापनदाताओं द्वारा प्रायोजित किए जाते हैं, इसलिए कार्यक्रमों के प्रसारण का समय, उनका स्वरूप और गुणवत्ता सब पर विज्ञापनदाता का जबर्दस्त असर होता है। विज्ञापनदाताओं के प्रभुत्व के कारण इन माध्यमों में व्यावसायिक प्रतिष्ठान बनने की प्रवृत्ति लक्षित होती है और जो कार्यक्रम ये प्रसारित करते हैं, उनको देखकर लगता है कि वह व्यावसायिक प्रतिष्ठान का कार्यक्रम है। उदाहरण के लिए विश्व स्तर के टेलीविजन नेटवर्क के जरिए प्रायोजकों द्वारा खेल के जो दृश्य प्रसारित किए जाते हैं, उनको देखकर लगता है कि वे किसी बहुत बड़ी व्यापारिक कार्रवाई के अंग हैं। चलचित्रचलचित्रों को प्रसारित करने वाली प्रौद्योगिकी का विकास 1890 के दशक में हो चुका था और सिनेमा (या चलचित्र) इस सदी के दूसरे दशक में विशाल जन समुदाय के मनोरंजन का प्रमुख रूप बन गया था। संयुक्त राज्य अमरीका में बनी डी. डब्ल्यू. ग्रिफिथ की फिल्म बर्थ आफ ए नेशन (एक राष्ट्र का जन्म) को पूरी लंबाई की पहली महत्वपूर्ण फिल्म माना जाता है। इसके बाद संयुक्त राज्य अमरीका का हालीवुड नगर फिल्म निर्माण का सबसे महत्वपूर्ण केंद्र बन गया और तीन दशकों तक विश्व के फिल्म बाजार पर छाया रहा। 1926 में चलचित्रों में ध्वनि डाली गई, इसके पहले सारे चलचित्र मूक हुआ करते थे। भारत में पहली फीचर फिल्म 1912 में बनी थी तथा पहली सवाक् फिल्म (जिसे टाकी कहा जाता था) 1931 में बनी। सिनेमा की शुरूआत सामूहिक मनोरंजन के रूप में हुई लेकिन बाद में तो यह एक मुख्य कला रूप बन गया। कहा जाता है कि यह बीसवीं सदी का भिन्न कलारूप है। धीरे-धीरे टेलीविजन ने जब तक सिनेमा दर्शकों पर कब्जा नहीं कर लिया था, सिनेमा सबसे ज्यादा लोकप्रिय मनोरंजन का रूप था और कई संवेदनशील निर्देशक, अभिनेता, संगीत निर्माता और रचनात्मक प्रतिभा वाले अनेक श्रेणियों के लोग सिनेमा को मात्र मनोरंजन से उठाकर बहुत आगे तक ले गए। फिल्म के विषय आम आदमी का जीवन, उसकी खुशियाँ और उसकी पीड़ा बने। ऐसी फिल्मों ने सामाजिक प्रश्नों पर संवेदनशीलता को बढ़ावा देने में मदद की और ये फिल्में समूची दुनिया के दर्शकों के बीच लोकप्रिय हुईं। यद्यपि जिन अभिनेता-अभिनेत्रियों ने चमक-दमक वाली भूमिकाएँ निभाईं और कभी कभार संवेदनशील भूमिकओं में भी वे उतरे, वे लोक नायक और नायिका के रूप में दर्शकों में खूब लोकप्रिय हुए। लेकिन कला रूप की तरह सिनेमा का विकास निर्देशकों के योगदान का नतीजा है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद कई सिने निर्देशकों ने फिल्में बनाईं। ये फिल्में साफतौर पर उनको व्यवसायिक फिल्म निर्देशकों से अलग करती हैं। सिनेमा के इतिहास में कुछ सबसे ज्यादा विख्यात निर्देशकों के नाम इस प्रकार हैं - सर्जेई आइंस्टीन, चार्ली चैपलिन, अकीरा कुरासावा, वित्तोरियो दे सिक्का, सत्यजित राय, इग्मार बर्गमान, ब्रेसन, फेलिनी और अल्फ्रेड हिचकॉक।दूसरे विश्व युद्ध के बाद सिनेमा की दुनिया में हालीवुड का प्रभुत्व समाप्त हो गया यद्यपि दुनिया के अनेक हिस्सों के फिल्म बाजार में इसका प्रभुत्व जारी रहा। पूर्वी और पश्चिमी यूरोप, जापान, भारत और लैटिन अमरीका में महत्वपूर्ण फिल्में बनाई गईं। संचार प्रणाली में विकास के कारण लाखों करोड़ों लोगों की पहुँच महान कलाकृतियों तक हो गई। विश्व के विभिन्न भागों से समाचार, विचार और सूचनाओं तक आम आदमी, यहाँ तक कि निरक्षर व्यक्ति की भी पहुँच हो गई। सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक और आर्थिक विकास के लिए तथा वास्तविक लोकतांत्रिक सामाजों की रचना के लिए इन्होंने बहुत बड़ा रास्ता खोला है। अज्ञान को समाप्त करने, शिक्षा को बढ़ावा देने और महत्वपूर्ण सामाजिक सवालों के विषय में लोगों को जागरूक बनाने के लिए बहुत से देश इन संचार माध्यमों का प्रभावी इस्तेमाल कर रहे हैं। लेकिन इन संचार माध्यमों से लाखों-करोड़ों लोगों के विचारों और अभिवृत्तियों को उनके द्वारा निंयत्रित करने की संभावना के दरवाजे भी खुल गए हैं जिनका इन संचार माध्यमों पर कब्जा है। घटिया संस्कृति के अर्थ में जिसको हम सामूहिक संस्कृति (या भीड़ संस्कृति) के नाम से जानते हैं तथा जिसे बढ़ावा देने के लिए इन संचार माध्यमों का इस्तेमाल होता है और जिसके कारण सामूहिक संस्कृति और अभिजन संस्कृति के बीच दूरी बढ़ी है, यह भी हमारे लिए चिंता का विषय है। एक सवाल बार-बार पूछा जाता रहा है, ‘‘बिना रूप बिगाड़े, बिना स्तर को नीचे गिराए, कला किस प्रकार लोकप्रिय बनाई जा सकती है, बिना गुणवत्ता से समझौता किए संस्कृति का प्रसार कैसे संभव है, कैसे नए तकनीकी संसाधनों का सुरूचि और विवेकपूर्ण इस्तेमाल किया जा सकता है ?’’ इलैक्ट्रॅानिक संचार माध्यम की इस आधार पर आलोचना की गई है कि इसकी वजह से दर्शकों में ‘‘बहुत अधिक निष्क्रियता’’ पैदा हुई और यह निष्क्रियता उनकी निजी विशेषता नहीं है बल्कि इस संचार माध्यम ने उन पर थोप दी है। हाल के वर्षों में वीडियो की शुरूआत तथा उसकी लोकप्रियता से एक नया रास्ता खुला है। शिक्षा में इसके उपयोग की व्यापक संभावनाएँ मौजूद हैं। दर्शक अपनी पसंद का चुनाव कर सके, इस संभावना का दरवाजा भी इससे खुला है। नई सूचना व्यवस्थाजैसा कि पहले संकेत किया जा चुका है कि संचार व्यवस्था में जिस तकनीकी विकास के चलते क्रांति आई है, उसके कारण एक ऐसी स्थिति बनी है जिसमें आर्थिक रूप से विकसित मुट्ठी भर देशों का प्रभुत्व कायम है और संचार माध्यमों पर नियंत्रण है। इस स्थिति को लेकर विकासशील देश अपनी चिंता व्यक्त करते रहे हैं। पश्चिमी देशों द्वारा की गई विश्व की घटनाओं की विकृत व्याख्या को अपने देश पर थोपने का वे सख्त विरोध करते हैं। जो सूचना पश्चिमी संचार माध्यम प्रसारित करते हैं, उसका अधिकांश या तो तीसरी दुनिया के देशों के लिए अप्रासंगिक होता है अथवा उनको तोड़-मरोड़ कर हमारे सामने पेश किया जाता है। ये संचार माध्यम जिन सांस्कृतिक मूल्यों को प्रचारित-प्रसारित करते हैं, माना जाता है कि वे मूल्य तीसरी दुनिया की संस्कृति पर बुरा प्रभाव डालते हैं। तीसरी दुनिया के देश इस बात पर जोर देते रहे हैं कि सूचना का अंतर्राष्ट्रीय विनिमय वस्तुतः समानता के स्तर पर होना चाहिए और यह दोनों पक्षों के लिए समान रूप से लाभकारी होना चाहिए। संचार माध्यमों पर पश्चिमी देशों द्वारा अपने प्रभाव के इस्तेमाल को ‘‘सूचना साम्राज्यवाद’’ का नाम दिया गया है और क्षेत्रीय सहयोग, गुट निरपेक्ष आंदोलन, सुयुक्त राष्ट्र संघ तथा यूनेस्को के जरिए विकासशील देश एक नई सूचना प्रणाली रचने की कोशिश कर रहे हैं।गुट निरपेक्ष आंदोलन, संयुक्त राष्ट्र संघ तथा कुछ विशेष क्षेत्रों में कार्यरत इसके अभिकरणों (एजेंसियों) ने नई सूचना व्यवस्था को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है यद्यपि इस दिशा में उपलब्धियाँ काफी सीमित हैं। मानव-अधिकारों के सार्वभौम घोषणा पत्र में इस बात का प्रावधान था कि हर आदमी को अपने विचार रखने और इसको अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता है और इसमें बिना हस्तक्षेप अपने विचार रखने, विचार जानने, राष्ट्रीय सीमाओं के बावजूद सूचना पाने और सूचना देने की स्वतंत्रता भी शामिल है। सूचना के मुक्त आदान प्रदान की व्याख्या पश्चिमी देशों की बहुत-सी सरकारों ने गलत तरीके से की है। उनके विचार से इसका अर्थ यह है कि संचार प्रणाली की प्रौद्योगिकी पर नियंत्रण के नाते उन देशों को अपने विचारों, मूल्यों और व्याख्याओं को दूसरों पर थोपने का अधिकार है। 1978 में यूनेस्को ने आधारभूत सिद्धांतों का एक घोषणा पत्र स्वीकार किया था इसका सरोकार शांति और अंतर्राष्ट्रीय समझदारी को सुदृढ़ करने, मानवाधिकारों को बढ़ावा देने, क्रांतिकारिता, पृथकतावाद और युद्ध भड़काने वाली बातों का सामना करने से था। इस घोषणा पत्र की धारा 1 में कहा गया था - शांति और अंतर्राष्ट्रीय समझदारी को मजबूत बनाने, मानवाधिकार को बढ़ावा देने और नस्लवाद, पृथकतावाद तथा युद्ध की भावना भड़काने को रोकने के लिए इए बात की जरूरत है कि बिना रोक टोक सूचना प्राप्त हो और उसका बेहतर और व्यापक प्रसार हो। इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए जन संचार माध्यमों को बहुत बड़ा योगदान करना है। यह योगदान इस हद तक प्रभावी होगा कि जिन विषयों के विभिन्न पक्षों का विवेचन किया गया है, सूचना में उसकी झलक मिलेगी। इसी घोषणा पत्र की धारा 2 में कहा गया है -(1) विचार रखने की स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति और सूचना पाने की स्वतंत्रता का उपयोग करना शांति और अंतर्राष्ट्रीय समझदारी को मजबूत करने वाले महत्वपूर्ण घटक हैं और इनको मानवाधिकार और मौलिक स्वतंत्रता का अविभाज्य अंग माना जाता है।(2) इस बात की गांरटी होनी चाहिए कि सूचना जनता को मिलेगी। इसलिए जनता को सूचना के जितने माध्यम और स्रोत उपलब्ध हैं, उनमें विविधता होनी चाहिए ताकि हर व्यक्ति सच्चाई जानने में सक्षम हो सके और घटनाओं और तथ्यों की वस्तुपरकता का मूल्यांकन कर सके। इस उद्देश्य को पाने के लिए पत्रकारों को संवाद भेजने की स्वतंत्रता होनी चाहिए और जो सूचनाएँ उसे चाहिए वहाँ तक पहुँचने के लिए उसे यथासंभव पूरी सुविधाएँ मिलनी चाहिए। इस प्रकार यह बात महत्वपूर्ण है कि जनसंचार माध्यम आम लोगों तथा व्यक्तियों के सरोकारों के प्रति संवेदनशील हों। इससे सूचना को व्यापक रूप प्रदान करने में जनता की भागीदारी को बढ़ावा मिलेगा। (3) अंतर्राष्ट्रीय समझदारी और शांति को मजबूत करने, मानवाधिकारों को बढ़ावा देने, नस्लवाद, पृथकतावाद तथा युद्ध भड़काने की हरकत का मुकाबला करने के लिए पूरे विश्व में अपनी भूमिका के कारण जनसंचार माध्यम मानवाधिकार को बढ़ावा देने में सहायक होता है, विशेष रूप से दलित भावनाओं को अभिव्यक्त करके, उस जनता की भावनाओं को जो उपनिवेशवाद, नव-उपनिवेशवाद, विदेशी कब्जे तथा सभी तरह के नस्लवादी भेदभाव और दमन के विरूद्ध संघर्ष करती है लेकिन जो जनता अपनी बात को अपने ही भू-भाग के लोगों तक पहुँचाने में असमर्थ है। (4) यदि जन संचार माध्यमों को अपनी गतिविधियों में घोषणा पत्र के सिद्धांतों को बढ़ावा देने की स्थिति में पहुँचाना है तो यह जरूरी है कि पत्रकार और जन-संचार माध्यम के दूसरे अभिकर्त्ता, अपने देश या विदेश में अपनी रक्षा के विषय में आश्वस्त होने चाहिए जो उनको सर्वोत्तम रक्षा की गारंटी करती है कि उन्हें अपने व्यवसाय के लिए सबसे बेहतर स्थितियाँ उपलब्ध होंगी। इसके बाद संचार प्रणाली के विकास के लिए यूनेस्कों ने ‘‘अंतर्राष्ट्रीय संचार प्रणाली विकास कार्यक्रम’’ (आई. डी. पी. सी.) की स्थापना की। राष्ट्रीय सूचना प्रणाली की स्थापना और सुधार के लिए विकासशील देशों की मदद करना इस कार्यक्रम का प्रमुख उद्देश्य है ताकि जनसंचार माध्यमों के ढाँचे को दोष-मुक्त करके, इस क्षेत्र में विभिन्न देशों के बीच विद्यमान खाई को पाटा जा सके। इन प्रश्नों को यूनेस्को ने इतना अधिक महत्व तो दिया लेकिन इससे कुछ देश नाराज हुए और संयुक्त राज्य अमरीका यूनेस्को से अलग हो गया और इसके बाद ब्रिटेन और सिंगापुर ने भी यूनेस्को से अलग होने की घोषणा कर दी। इस बीच नई सूचना व्यवस्था कायम करने की दिशा में गुटनिरपेक्ष आंदोलन ने कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाए। सन् 1976 में नई दिल्ली में गुट निरपेक्ष देशों के शिक्षा मंत्रियों की बैठक हुई और इस सवाल पर एक घोषणा पत्र स्वीकार किया गया। घोषणा में इस बात पर ध्यान दिया गया कि ‘‘वर्तमान विश्वस्तरीय सूचना प्रणाली की हालत लगातार संतुलनहीन बनी हुई है’’ तथा गुट निरपेक्ष देशों पर इसका विपरीत असर हुआ है। उपनिवेशवाद की विरासत से सूचना प्रणाली और जनसंचार माध्यमों को मुक्त करने पर इस घोषणा पत्र में जोर दिया गया तथा आह्वान किया गया कि सूचना प्रणाली का वि-उपनिवेशीकरण करके नई अंतर्राष्ट्रीय सूचना व्यवस्था स्थापित की जाए। घोषणा पत्र में कहा गया था कि नई सूचना व्यवस्था उतनी ही जरूरी है जितनी नई अर्थव्यवस्था। इसके तत्काल बाद गुट निरपेक्ष देशों की ‘न्यूज एजेंसी पूल’ नाम से एक संस्था स्थापित की गई ताकि पूल (संघ) के सदस्यों के बीच समाचारों का आदान-प्रदान हो सके। | |||||||||
| |||||||||